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50 मर्डर करने वाला वेस्टर्न यूपी का ‘फौजी’:बहन का दुपट्टा खींचने वालों को वहीं ठोका, पहले चेयरमैन फिर विधायक की जान ली

मई, 1994 की दोपहर। बुलंदशहर गर्मी नहीं, लगातार बढ़ते अपराधों से पिघल रहा था। जहांगीरपुर के जंगल में उस दिन हलचल थी। घने पेड़ों की ओट में भारी हथियारों से लैस पुलिसवालों की सांसें थमी हुई थीं। सभी की नजरें एक कच्ची सड़क पर टिकी थीं। उड़ती धूल का हर कण किसी जाने-पहचाने नाम की आहट दे रहा था। खबर थी कि वो आज इसी रास्ते से आएगा जिसे खौफ की परछाईं कहा जाता था, महेंद्र फौजी। जो दशकों तक पुलिस के लिए चुनौती बना रहा। आज ये जंगल उसका आखिरी इम्तिहान लेने वाला था। एनकाउंटर के दूसरे एपिसोड में आज कहानी वेस्ट यूपी के ऐसे दुर्दांत अपराधी की जो मिलिट्री से रिटायर्ड था। फिर कैसे उसने 50 से ज्यादा मर्डर, लूट और किडनैपिंग के मामलों को अंजाम दिया। गैंगवार में न जाने कितनों की जाने गईं और आखिर में पुलिस मुठभेड़ में मारा गया, लेकिन कैसे… किस्सा 1: मुझे ‘ना’ सुनना पसंद नहीं 80 का दशक। दिल्ली में तेजी से डेवलपमेंट हो रहा था। इसका असर ये हुआ कि दिल्ली से सटे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिलों में जमीनों की कीमतें बढ़ रही थीं। ये वो दौर था जब गांव का गुंडा, नेता और दलाल सब एक ही धंधे में लगे थे। जमीन हड़पो, बेचो और पैसा कमाओ। इसी दौर में उपजा एक अपराधी था, महेंद्र सिंह गुर्जर। बेहद सनकी, जरा-जरा सी बात पर मरने-मारने पर उतर आता। आर्मी से रिटायर्ड था, इसलिए लोग ‘महेंद्र फौजी’ कहते थे। साल 1982 में जुलाई की एक दोपहर। महेंद्र आंगन में कुर्सी पर बैठा अखबार पढ़ रहा था। तभी उसकी बहन महेंद्री आती दिखी। फौजी ने मुस्कुराकर कहा- “अरे महेंद्री, तू अचानक आ गई। खबर भी नहीं की।” भाई को देखते ही महेंद्री अचानक दोनों हाथों से मुंह छुपाकर रोने लगी। फौजी का चेहरा सख्त हो गया। “अरे क्या हुआ? कुछ बोल।” महेंद्री सिर झुकाए जोर-जोर से रोती जा रही थी। फौजी का गुस्सा सातवें आसमान पर था। उसने डांटते हुए पूछा- “अरे मुंह खोलेगी?” महेंद्री ने सिसकते हुए कहा- “मुंह खोलने लायक ही नहीं रही।” फौजी का गुस्सा तुरंत कम हो गया। उसने बहन को हाथ पकड़कर बैठाया और धीरज बंधाते हुए बोला- “बोल क्या बात है। किसी ने कुछ कह दिया तुझसे?” महेंद्री नीचे देखती हुई, टूटी आवाज में बोली- “ससुराल से आ रही थी, गांव के बाहर दो लड़के मिले। उन्होंने मेरा दुपट्टा खींचा।” फौजी- “किस @#$% की हिम्मत हुई? पूरी बात बता।” महेंद्री- “दोनों लड़के पहले मजाक में बोले कि छू लूं। मैंने मना किया तो बोले ‘लड़की जात होकर मना करेगी। ना सुनना हमें पसंद नहीं।’ फिर दुपट्टा खींचा और हाथ पकड़कर जबरदस्ती करने लगे।” फौजी- “तेरे आदमी को पता है ये बात।” महेंद्री- “पहले उसे ही बताई। वो बोला छंटे हुए बदमाश हैं बात बढ़ाने से बिगड़ेगी। इसे यहीं दबा दे।” इसके बाद महेंद्र ने कुछ नहीं पूछा। बहन को घर के भीतर ले गया। लड़कों का पता पूछा और अपने दोस्त सतबीर गुर्जर के घर चल दिया। सतबीर को आवाज दी तो वो मुंह में बीड़ी दबाए बाहर आया। “क्या हुआ फौजी? भरी दोपहर में आराम कर लेता?” महेंद्र- “चल, किलागढ़ पुट्ठी। जरूरी काम है।” सतबीर हंसकर बोला- “किसकी जमीन देख ली?” महेंद्र ने आंखें तरेरकर कहा- “इस बार जमीन नहीं जान लेनी है।” सतबीर ने कोई रिएक्शन नहीं दी। उसने दूसरी बीड़ी सुलगाई, भीतर गया, एक पिस्टल उठाई और बिना कोई सवाल किए उसके साथ निकल पड़ा। दोनों सीधे उन लड़कों में से एक के घर पहुंचे। दोनों बाहर खटिया पर बैठे ठहाके लगा रहे थे लेकिन जैसे ही फौजी को देखा उनकी हंसी गायब हो गई। वे फौजी को जानते नहीं थे, लेकिन बंदूक देखकर कुछ सकपका गए थे। फौजी ने बिना कुछ कहे एक के बाल पकड़े और मुंह पर घूंसा मारा। उसकी नाक टूट गई, खून बहने लगा। दूसरे को सतबीर ने लात मारकर गिरा दिया। दोनों चीखने लगे। गांव के लोग दूर खड़े थे, पर किसी की बीच में आने की हिम्मत नहीं हुई। तभी एक लड़के की मां घर से बाहर आई और उन्हें छोड़ने की मिन्नतें करने लगी। लेकिन फौजी और सतबीर ने दस मिनट तक इतने लात-घूंसे बरसाए कि दोनों लड़के अधमरे हो गए। फौजी ने औंधे पड़े एक लड़के का चेहरा ऊपर करके पूछा- “मेरी बहन को क्यों छुआ?” लड़के गिड़गिड़ाने लगे- “गलती हो गई, छोड़ दो भाईसाब छोड़ दो।” फौजी बोला- “थूक के चाट।” दोनों ने जमीन पर थूका और फिर चाटने लगे। फौजी ने उन्हें झटका देकर छोड़ा और कमर से रिवॉल्वर निकाल ली। उनकी तरफ तानकर बोला- “मार दूं गोली, बोल साले गोली मार दूं?” दोनों गिड़गिड़ाने लगे- “नहीं भाईसाब, मत मारो… गलती हो गई हमसे।” फौजी के चेहरे पर शैतानी मुस्कान आ गई। बोला- “मुझे भी ना सुनना पसंद नहीं।” ठां…ठां… दोनों के सीने पर दो-दो गोलियां उतार दीं। बंदूक की तड़तड़ाहट सुनकर आसपास के लोग घरों में भाग गए। लड़के की मां वहीं बैठकर छाती पीटने लगी। फौजी के सर पर खून सवार था। चीखकर बोला- “ये देख तेरा खून, कितना गंदा खून है।” इतना कहते ही उसने औरत को भी गोली मार दी। तीन जिंदगियां खत्म करने के बाद भी फौजी के चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी। पुलिस में रपट दर्ज हुई और फौजी फरार हो गया। लड़कों की मौत ही उसके लिए इंसाफ था। खून-खराबे की दुनिया में महेंद्र फौजी का पहला कदम था। किस्सा 2: अब पता चला मैं कौन हूं? यूपी-दिल्ली बॉर्डर के पास ‘लोनी’ में वो हत्याकांड हुआ जिसने महेंद्र फौजी का नाम पूरे वेस्ट यूपी में आग की तरह फैला दिया। लोनी नगर पंचायत अध्यक्ष और रियल एस्टेट कारोबारी था जगमाल सिंह। इसी की छत्रछाया में फौजी ने अपराध का साम्राज्य खड़ा किया था। जगमाल तय करता था कि कौन सी जमीन कब्जानी है और फौजी उस काम को पूरा कर देता। एक दिन फौजी जगमाल के बंगले पर पहुंचा। वो कुछ लोगों से मीटिंग कर रहा था। फौजी ने दरवाजे पर खड़े होकर ही आवाज लगाई- “चेयरमैन साब, ओ चेयरमैन साब…।” जगमाल ने नजर उठाई और फिर बातों में लग गया। फौजी ने कुछ देर इंतजार किया और फिर बोला- “साब, दो मिनट चाहिए, जरूरी बात है।” इतना सुनते ही जगमाल आग बबूला हो उठा। वो चिल्लाया- “पैसे चाहिए न तेरे को? मा@#$%%द, एक रुपया नहीं दूंगा। क्या उखाड़ लेगा तू?” फिर वहां बैठे लोगों की तरफ देखकर बोला- “प्रॉपर्टी लाइन में इसको मैं ही लेकर आया। आज ये मेरा बाप बनने चला है। दरवाजे पर खड़े होकर मुझसे हिसाब मांग रहा है।” फिर फौजी की तरफ घूरकर चिल्लाया- “मैं कौन हूं, अभी पता नहीं है तुझे। जो कुछ भी है तेरे पास, सब मेरा है। एक रात में पूरा घर खाली करवा लूंगा। भाग यहां से…।” फौजी चुपचाप जहर के घूंट पीता रहा। उसकी आंखें लाल हो चुकी थीं। वो लगातार जगमाल को घूर रहा था। फिर अचानक पांव पटकता हुआ वहां से चला गया। कुछ दिन बाद, फौजी घर पर नहीं था। आधी रात को कुछ लोग उसके घर में घुसे और सब-कुछ लूट ले गए। फौजी लौटा तो घर खाली। पाप की कमाई रात के काले साए की भेंट चढ़ चुकी थी। फौजी के दिमाग में जगमाल की बात गूंजने लगी। उसने धमकी दी थी कि एक रात में पूरा घर खाली करवा लेगा। फौजी को यकीन था कि ये जगमाल का ही काम है। वो फौरन अपने कुछ खास साथियों के पास पहुंचा और बोला- “कल जगमाल को मारना है। आज उसकी आखिरी रात है।” सभी साथी हक्का-बक्का हो गए। बोले- “पागल हो गए हो? जगमाल को मारोगे? समस्या हो जाएगी फौजी, उसको मारना आसान नहीं है।” फौजी की आंखें आग उगल रही थीं। उसने सारी बातें अनसुनी कर दीं और बोला- “अभी से समझ लो कि वह मर चुका है। कल सुबह उसकी लाश दिखेगी।” अगली सुबह फौजी अपने गिरोह के साथ जगमाल के बंगले के बाहर पहुंच गया। जैसे ही जगमाल की गाड़ी गेट से बाहर निकली, फौजी ने पीछा शुरू कर दिया। शहर से बाहर सुनसान इलाका आते ही अचानक गोलियों की बौछार शुरू हो गई। फौजी और उसके साथी गाड़ी से कूदे और ताबड़तोड़ फायरिंग करने लगे। खिड़कियों के शीशे चूर-चूर होकर सड़क पर बिखर गए। फायरिंग रुकी, फौजी धीरे-धीरे आगे बढ़ा और कार के भीतर झांका। जगमाल का सिर एक तरफ लटक रहा था। शरीर में आखिरी सांस भी बाकी नहीं थी। फौजी देर तक घूरता रहा फिर बोला- “अब पता चला, मैं कौन हूं?” किस्सा 3: क्रॉसिंग पर MLA का मर्डर उत्तर प्रदेश अपराध की आग में जल रहा था। इस आग ने 13 सितंबर, 1992 की शाम दादरी से तीन बार के विधायक महेंद्र सिंह भाटी को भस्म कर दिया। शाम करीब 6:30 बजे भाटी अपने घर में बने ऑफिस में कुछ कागजात देख रहे थे। अचानक टेलीफोन की घंटी बजी। दूसरी तरफ से इंस्पेक्टर की आवाज आई। “महेंद्र भाई, आप कहां हैं? फौरन भंगेल पहुंचिए। बहुत जरूरी बात है।” भाटी- “क्या हुआ इंस्पेक्टर साब? सब ठीक है?” इंस्पेक्टर- “फोन पर नहीं बता सकता। बस जल्दी आइए।”
भाटी ने अपने ड्राइवर देवेंद्र और गनर कौशिक को चलने का इशारा किया। भाटी के दोस्त उदय सिंह का घर भी पास ही था। उधर से निकलते हुए भाटी की नजर पड़ी कि उदय सिंह बालकनी में खड़े हैं। भाटी ने गाड़ी रुकवाई और बाहर देखकर बोले- “उदय, नीचे आ जल्दी।” उदय नीचे आया। पूछा- “क्या हुआ भाई साब? इतनी जल्दबाजी में कहां जा रहे हो?” भाटी ने कहा- “चुपचाप बैठ कार में। बाद में बताऊंगा।” कार में बैठते ही उदय ने फिर पूछा- “कहां चलना है भाईजी?” “भंगेल। पुलिस का बुलावा है।” उदय ने ठहाका लगाया- “पुलिस का बुलावा और तू मुझे साथ ले जा रहा है? मेरी शामत तो नहीं आई?” भाटी मुस्कुरा दिए पर बोले कुछ नहीं। कार भंगेल रोड पर दौड़ने लगी। रेलवे क्रॉसिंग नजदीक आई। फाटक बंद था। भाटी ने गुस्से में कहा- “इसे भी अभी बंद होना था।” उदय ने हंसते हुए कहा- “अरे भाई, दो मिनट की बात है। नेताओं में सब्र क्यों नहीं होता।” पांच मिनट बाद ट्रेन गुजरी। बैरियर ऊपर हुआ। देवेंद्र ने गाड़ी आगे बढ़ाई। दूसरी तरफ दो गाड़ियां खड़ी दिखीं। दरवाजे पहले से खुले थे। भाटी की नजर उन पर गई तो उनका दिल जोर से धड़का। उन्होंने हड़बड़ाते हुए ड्राइवर से कहा- “देवेंद्र रुक, कुछ गड़बड़ है।” लेकिन देवेंद्र को ब्रेक दबाने का वक्त ही नहीं मिला। दोनों गाड़ियों से एक साथ छह लोग उतरे। सभी के चेहरे पर रूमाल बंधा था। एक के हाथ में AK-47 और बाकियों के हाथ में रिवॉल्वर। शुरुआती फायरिंग में कार की विंडशील्ड चूर-चूर हो गई। दूसरी बार में गोलियां भाटी और उदय के पास से गुजर गईं। गनर कौशिक चिल्लाया- “झुक जाओ साब…।” MLA भाटी दरवाजा खोलकर बाहर निकलने की कोशिश कर रहे थे। अचानक एक गोली उनकी पीठ में लगी, दूसरी गर्दन में। वो सीट पर ही ढेर हो गए। उदय ने भाटी को सहारा देने की कोशिश की, तभी तीन गोलियों उनकी पीठ में आ धंसीं। सिर्फ दो मिनट में दो लोगों की मौत हो गई। विधायक महेंद्र सिंह भाटी के शरीर छलनी हो चुका था। पुलिस पहुंची तो कार में भाटी और उदय की लाशें थीं। केस दर्ज हुआ, राजनीतिक अदावत के चलते आरोप लगा बुलंदशहर के विधायक डीपी यादव पर। लोनी चेयरमैन जगमाल को मारने के बाद महेंद्र फौजी, डीपी यादव की शरण में आ गया था। डीपी यादव के कहने पर ही फौजी ने भाटी का मर्डर किया था। इससे पहले महेंद्र भाटी के भाई राजवीर की हत्या का आरोप भी महेंद्र फौजी पर लगा था। महेंद्र भाटी उस समय गुर्जरों के बड़े नेता थे। उन्होंने यूपी विधानसभा में अपनी सुरक्षा बढ़ाने के लिए गुहार लगाई थी लेकिन कल्याण सिंह सरकार ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। भाटी की हत्या से पूरे यूपी में कोहराम मच गया। अखबारों ने प्रदेश सरकार की बखिया उधेड़कर रख दी। सरकार और पुलिस पर जबरदस्त प्रेशर था। कई जगह छापेमारी हुई। कुछ लोग पकड़े गए लेकिन फौजी का कहीं पता नहीं चला। अब चलते हैं जहां से कहानी शुरू हुई थी… विधायक महेंद्र सिंह भाटी के मर्डर के बाद फौजी ऐसे गायब हुआ जैसे धुंआ हवा में घुल जाता है। दो साल तक उसका कोई सुराग नहीं मिला। जब उसे लगा कि मामला ठंडा हो चुका है, तो फिर से बुलंदशहर में दाखिल होने की राह खोजने लगा। लेकिन किस्मत शायद उसके खिलाफ नई कहानी लिख चुकी थी। मई 1994, पुलिस को पक्की खबर मिली कि फौजी, जहांगीरपुर के जंगलों से होकर शहर में घुसने वाला है। नमी और पेड़ों की परछाइयों के बीच पुलिसवाले पोजीशन ले चुके थे। जंगल का सन्नाटा भी मानो हथियार बनकर तना खड़ा था। प्लानिंग मुकम्मल थी और हर सिपाही खामोश भट्टी की तरह गरम हो रहा था। दारोगा अचल सिंह यादव झाड़ी की ओट में ट्रिगर पर उंगलियां जमाए बैठे थे। तभी दूर कहीं से इंजन की घरघराहट सुनाई दी। आवाज धीरे-धीरे पास आती गई और फिर सफेद एम्बेसडर कार पुलिया की ओर मुड़ती दिखी। अचल सिंह की आंखें चमक उठी। उन्होंने फुसफुसाते कहा- यही है, सफेद गाड़ी उसी की है। फिर पास में पोजीशन लिए सिपाही से पूछा- “सड़क पर कांटे डाले हैं न?” सिपाही ने जैसे कुछ सुना ही नहीं। जवाब न मिलने पर अचल सिंह ने झुंझलाकर पूछा- “बोलता क्यों नहीं है बे…।” सिपाही आंखें चुराते हुए बोला- “साब… वो… भूल गया।” अचल सिंह का चेहरा अंगारे जैसा लाल हो गया। सालों की मेहनत, महीनों की प्लानिंग के बाद महेंद्र फौजी हाथ आने वाला था, लेकिन एक गलती की वजह से सब चौपट होता दिख रहा था। दिमाग में सवाल चलने लगे- गाड़ी कैसे रुकेगी… गोली चलानी ही पड़ेगी क्या? मगर, फौजी को जिंदा पकड़ना था। कुछ पल सोचने के बाद अचल सिंह बोले- “दो सिपाही नीचे उतरो। गाड़ी पुलिया पर आते ही पहिए पर गोली मारना। उसे जिंदा पकड़ना है।” दो सिपाही पेड़ों की ओट लिए नीचे उतरे। सफेद एम्बेसडर सामने से गुजर रही थी। दोनों सिपाहियों ने निशाना साधा। धांय… धांय… लेकिन चूक गए। ये उनकी आखिरी गलती थी। गाड़ी में बैठे फौजी ने बिना एक पल गंवाए AK-47 चला दी। ठां-ठां-ठां-ठां… गोलियां सिपाहियों का सीना चीरती हुई निकल गईं। ये देखकर ऊपर छिपे सिपाही सकते में आ गए। सभी की धड़कनें तेज हो गई, उंगलियां ट्रिगर पर और कस गईं। दारोगा अचल सिंह ने इशारा किया। ऊपर से ताबड़तोड़ गोलियां चलने लगीं। एक सिपाही ने तुरंत थाने में वायरलेस किया। “और फोर्स भेजो। जहांगीरपुर पुलिया पर… 2 जवान शहीद हो गए हैं। बदमाश के पास AK-47 है। तुरंत, तुरंत आओ।” पुलिसवाले नीचे की ओर दौड़े। उधर से गोलियों की बरसात हो रही थी। इधर से चार गोलियां चलतीं, उधर से दस गोलियां आतीं। पूरा जंगल बारूद की गंध से भर गया। फिर अचानक दूसरी ओर से फायरिंग रुक गई। एक पल के लिए सन्नाटा छा गया। किसी को कुछ समझ नहीं आया। पुलिसवाले राइफलें तानकर धीरे-धीरे आगे बढ़े। ड्राइवर की सीट के पास एक शरीर औंधा पड़ा था। एक गोली उसकी टांग की हड्डी तोड़कर निकल गई थी। मांस के चीथड़े उड़ गए थे। दूसरी गोली पीठ में धंसी हुई थी। जख्म से खून अभी भी रिस रहा था। अचल सिंह ने हिम्मत जुटाई और आगे बढ़े। शरीर में कोई हरकत नहीं थी। गेहुंआ रंग का चेहरा, पतली सी मूंछ और बदन पर नेताओं जैसा कुर्ता। दारोगा ने सिपाहियों को हुक्म दिया- दो गोली और मारो। धायं, धायं… शरीर ने कोई हलचल नहीं हुई। मतलब साफ था, महेंद्र फौजी का खौफ अब खत्म हो चुका था। *** स्टोरी एडिट- कृष्ण गोपाल *** रेफरेंस जर्नलिस्ट- शादाब रिजवी, संजय सार्थक | श्योपाल सिंह (मृतक उदय सिंह के रिश्तेदार) भास्कर टीम ने पुलिस, पीड़ितों और जानकारों से बात करने के बाद सभी कड़ियों को जोड़कर ये स्टोरी लिखी है। फिर भी घटनाओं के क्रम में कुछ अंतर हो सकता है। कहानी को रोचक बनाने के लिए क्रिएटिव लिबर्टी ली गई है। ———————————————————– ‘एनकाउंटर’ की ये स्टोरी भी पढ़ें… लखनऊ में बाहुबली को बीच सड़क 126 गोलियां मारीं, जान बचाने के लिए पुलिसवालों को जनेऊ की दुहाई दे रहा था श्रीप्रकाश लखनऊ के पॉश इलाकों में से एक इंदिरानगर। शांत और साफ-सुथरी सड़कें। स्प्रिंगडेल स्कूल के आसपास काफी चहल-पहल थी। तभी ठांय… ठांय… ठां…ठां…ठां… अचानक कान फोड़ देने वाली आवाज आने लगी। लगा जैसे किसी ने पटाखे की लड़ी चला दी हो, लेकिन आवाज पटाखों की नहीं, गोलियों की थी। पूरी स्टोरी पढ़ें…


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