80 का दशक। बड़े-बड़े माफिया के बीच एक नाम तेजी से उभरकर सामने आया। जो सिर्फ अपराधी नहीं, दिमाग से खेलकर किडनैपिंग को नया रूप देने वाला मास्टरमाइंड था। बड़े व्यापारियों, उद्योगपतियों और रसूखदार लोगों को बिना शोर किए उठा ले जाता। इतना बेखौफ कि अमिताभ बच्चन तक को किडनैप करने का फुल प्रूफ प्लान बना लिया। आज ‘एनकाउंटर’ के पांचवें और आखिरी एपिसोड में कहानी यूपी के ‘किडनैपिंग किंग’ राजू भटनागर की, जिसने किडनैपिंग को प्लांड बिजनेस मॉडल में बदल दिया। शातिर इतना कि आज उसकी एक भी तस्वीर पब्लिक डोमेन में उपलब्ध नहीं… किस्सा 1: आज के ₹1.5 करोड़ के बराबर मांगी फिरौती जुलाई 1987, रात का वक्त। झांसी में राजू भटनागर का अड्डा। शराब की बोतलें खुल चुकी थीं। ताश की बाजी चल रही थी। तभी राजू का भरोसेमंद गुड्डू बोला- “दादा, एक बात कहनी है।” मेज पर ताश का पत्ता फेंकते हुए राजू बोला- “कहना क्या है, बोल सीधा।” गुड्डू ने कहा- “सागर में एक बड़े आदमी का नाम मिला है, सुखनंदन जैन। बीड़ी कंपनी का मालिक। पैसा बहुत है, माल मोटा मिलेगा।” राजू ने नजरें तिरछी करके पूछा- “सागर… एमपी वाला?” गुड्डू बोला- “हां, 10-15 लाख तो आराम से मिल जाएंगे।” राजू पीछे कुर्सी पर टिककर बोला- “ठीक है… पता करो कब निकलता है, कहां जाता है, कितनी देर घर से बाहर रहता है। पक्की जानकारी के बिना कुछ नहीं करना।” कुछ दिनों बाद ही गुड्डू पूरी जानकारी के साथ हाजिर था। उसी शाम राजू ने सुखनंदन जैन को फोन लगाया। राजू धीरे से बोला- “मैं इलाहाबाद से अमित जैन बोल रहा हूं। बीड़ी का बड़ा सौदा करना है। कुछ दिनों में मुझे सागर आना है। तब बात हो जाएगी?” सुखनंदन ने तुरंत जवाब दिया- “ठीक है, आ जाइए। मिलकर बात करते हैं।” राजू ने फोन काटा और गुड्डू की तरफ मुड़ा- “सारी तैयारी हो गई?” गुड्डू बोला- “सब सेट है दादा। टाइमिंग बिल्कुल सही है।” 5 अगस्त 1987, शाम करीब 7 बजे सुखनंदन, सागर में अपने घर से बताकर निकले कि एक सौदा फाइनल करना है, देर हो सकती है। फिर अपनी फिएट कार में बैठे और अमित जैन यानी राजू के बताए होटल पहुंचे। होटल की लॉबी में कुछ कदम ही बढ़ाए थे कि चार आदमी एकदम सामने आ गए। एक आदमी ने पेट में पिस्टल सटा दी। पास खड़े राजू ने हाथ मिलाया और धीरे से बोला- “चुपचाप हमारे साथ आओ।” घबराए सुखनंदन साथ चल दिए। उन्हें अगवा करने के लिए उनकी ही फिएट कार का इस्तेमाल किया गया। राजू, सुखनंदन के साथ कार की पिछली सीट बैठा। गाड़ी रात भर रास्ते बदलती रही और आखिर में मध्य प्रदेश के पन्ना में अपने ठिकाने पर पहुंचे। सुखनंदन को सामने बैठाकर बोला- “दस लाख चाहिए, अभी…।” सुखनंदन ने घबराकर कहा- “मेरे पास इतना पैसा नहीं है।” राजू बोला- “मुझे तुम्हारे घर का हिसाब तुमसे ज्यादा पता है। घर का नंबर बताओ…।” उधर सागर में सुखनंदन के घरवाले परेशान थे। अचानक फोन की घंटी बजी- “सुखनंदन हमारे पास है। 10 लाख का इंतजाम करो, जल्दी।” पूरे मध्य प्रदेश में हड़कंप मच गया। 80 के दशक में 10 लाख रुपए बहुत बड़ी रकम थी। आज के हिसाब से करीब 1.50 करोड़ रुपए बैठती है। पुलिस हरकत में आई, लेकिन कहीं कोई सुराग नहीं मिला। अगले कुछ दिन फोन पर फिरौती के लिए सौदेबाजी में बीते। राजू की आवाज हर बार एक-सी रहती- “फैसला जल्दी करो। हम ज्यादा इंतजार नहीं करते।” घरवाले परेशान थे, पुलिस समझ नहीं पा रही थी कि खोज कहां करे। दरअसल, उस समय तक फोन टैप करके लोकेशन का पता लगाना मुश्किल था। इसके अलावा राजू हर बार अलग-अलग जगह से फोन करता था। आखिरकार रकम 10 लाख से घटकर 5.50 लाख तय हुई। राजू ने गुड्डू से कहा- “नकदी पहुंचे तो इसे छोड़ देंगे।” किडनैपिंग से 22 दिन बाद, 27 अगस्त 1987 5.50 लाख रुपए राजू की बताई जगह पर पहुंचाए गए। काम पूरा हो चुका था। आधी रात में सुखनंदन को आंखों पर पट्टी बांधकर एक सुनसान गली में छोड़ दिया। वे किसी तरह पुलिस स्टेशन पहुंचे और वहां से अपने घर, लेकिन सुखनंदन की फिएट कार राजू ने अपने पास रख ली। यही फिएट आगे राजू का बेंचमार्क बन गई। किस्सा 2: राजू की स्ट्रेटजी, चार्ल्स तिहाड़ से फरार मार्च 1986, दिल्ली की हाई सिक्योरिटी तिहाड़ जेल में अपराध जगत के दो बड़े नाम एक ही वक्त पर मौजूद थे, राजू भटनागर और चार्ल्स शोभराज। चार्ल्स, जिसका पहचान छुपाने, जाली पासपोर्ट बनाने और धोखाधड़ी की टेक्नीक में कोई मुकाबला नहीं था। वहीं, दूसरी तरफ राजू भटनागर; क्राइम की दुनिया का वो नाम, जो जेल के अंदर चलने वाले नेटवर्क की पहचान था। मार्च 1986 की एक शाम। हल्के अंधेरे में जेल की ऊंची दीवारों पर सर्चलाइट्स घूम रही थीं। सभी कैदी अपनी बैरकों में लौट चुके थे। हाई सिक्योरिटी सेल में बंद चार्ल्स शोभराज किसी वजह से जेल सुपरिटेंडेंट (जेलर) के ऑफिस लाया गया। जेलर बिजी थे इसलिए उसे वेटिंग रूम में बैठाया गया। वहां पहले से मौजूद राजू भटनागर उसे चुपचाप देखता रहा। चार्ल्स ने राजू को पहचान लिया। बातचीत चार्ल्स ने ही शुरू की। वो मुस्कुराते हुए बोला- “सुना है, तिहाड़ की नसें तुमसे बेहतर कोई नहीं जानता।” राजू ने जवाब दिया- “नसें नहीं… कमजोरियां। हर सिस्टम में कमजोरियां होती हैं।” चार्ल्स कुछ नजदीक आकर बोला- “मुझे यहां से निकलना है। तुम्हारी मदद लगेगी।” राजू कुछ देर तक उसे देखता रहा। थोड़ा हैरान था ये सुनकर, फिर बोला- “तुम्हें लगता है कि दीवार फांदकर यहां से भाग जाओगे? ऐसा हो सकता है, तुम्हें आसान लगता है ये सब?” चार्ल्स ने पूछा- “आसान होता तो तुमसे क्यों कहता। यहीं तो तुम्हारी मदद लगेगी।” राजू चौकन्ना हुआ, आसपास देखा फिर धीमी आवाज में कहा- “निगाहों पर निगाह रखो। दीवारें अपनी जगह से नहीं हिलतीं, इंसान हिलता है, थकता है, चूकता है।” चार्ल्स के चेहरे पर शातिराना मुस्कान आ गई। राजू के दिमाग में खिचड़ी पकनी शुरू हो गई थी। चार्ल्स के कान के नजदीक आकर बोला- “तिहाड़ के ताले ताकत से नहीं, भरोसे से खुलते हैं।” चार्ल्स ने भौंहें उठाईं- “भरोसा? इस जेल में?” राजू- “हां, जेल की चाबी किसी जेब में नहीं, इंसान के मन में होती है। उसे घुमाओ, दरवाजे खुद खुल जाएंगे।” तभी एक सिपाही अंदर आया। दोनों को बात करता देख उसे कुछ अजीब सा लगा, लेकिन उस पर ज्यादा ध्यान न देकर चार्ल्स को इशारे से बुलाकर जेलर के पास ले गया। इस मुलाकात को काफी दिन बीत गए। तिहाड़ के गलियारों में चार्ल्स और राजू नई चालें चल रहे थे। सिपाही से लेकर अफसरों तक से बातचीत, हंसी-ठिठोली, अपने नेटवर्क से अफसरों की कुछ ‘मदद’ करना, सब चलता रहा। जेल में सभी चार्ल्स से प्रभावित हो रहे थे। अंग्रेजी बोलने वाला पढ़ा-लिखा शांत कैदी। एक दिन चार्ल्स और राजू फिर मिले। इस बार ये संयोग नहीं प्लान था। चार्ल्स ने बताया- “कुछ लोग मैंने अपनी तरफ कर लिए हैं।” राजू- “बाहर मेरा इंतजाम है।” चार्ल्स- “अगर ये काम हो गया, तो दुनिया याद रखेगी।” राजू- “याद रखने के लिए काम नहीं, तरीके चाहिए और तरीका मेरे पास है।” फिर आया वो दिन 16 मार्च 1986, रविवार जेल का नॉर्मल माहौल था। सुबह गार्ड्स की ड्यूटी बदल रही थी। अफसर रोजमर्रा की मीटिंग कर रहे थे। कई नजरें अलग-अलग दिशाओं में थीं, लेकिन चार्ल्स इनसे बच रहा था। सब-कुछ ठीक चल रहा था। सिपाही आनंद प्रकाश चार्ल्स के बैरक के नजदीक पहरेदारी कर रहा। चार्ल्स काफी देर से मुंह ढंककर लेटा हुआ था। शरीर में कोई हरकत नहीं, आनंद ने जेल की सलाखों पर डंडा मारा। फिर भी कोई जवाब नहीं, सिपाही ने अंदर जाकर चादर हटाई। चार्ल्स वहां नहीं था। उसने तुरंत डिप्टी सुपरिटेंडेंट के ऑफिस की घंटी बजाई। सिपाही के मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे। वो सिर्फ इतना कह सका- “तुरंत दौड़िए…” पूरी जेल में हड़कंप मच गया। तिहाड़ की हाई सिक्योरिटी सेल से एक कैदी भाग गया था। सभी कैदियों को बैरक में वापस भेजा गया। गिनती हुई, पता चला तिहाड़ के 900 कैदियों में से 12 गायब हैं। चार्ल्स के साथ 11 अन्य कैदी भी फरार हुई थे। वजह जेल के सारे गेट खुले थे। पूरा जेल स्टाफ, गेटकीपर, सिक्योरिटी गार्ड यहां तक कि ड्यूटी ऑफिसर शिवराज यादव तक बेहोश थे। जेल के गेट की चाबियां तय जगह पर नहीं थीं। तिहाड़ जेल में तमिलनाडु पुलिस के जवानों तैनात किए गए थे ताकि अलग भाषा के चलते नॉर्थ इंडियन कैदी उनसे मेलजोल नहीं बढ़ा पाएंगे। हैरत ये कि वे भी बेहोश पड़े थे। हर बेहोश सिपाही के हाथ में 50 रुपए का नोट फंसा था। आगे जांच में पता चला चार्ल्स ने अपना जन्मदिन मनाने के बहाने पहले सिपाहियों को 50 रुपए का लालच दिया। फिर उन्हें नशीली मिठाई खिलाकर बेहोश कर दिया। जब तक उन्हें होश आता तब तक खेल खत्म हो चुका था। जेल के बाहर राजू के नेटवर्क ने मदद की। एक मोटरसाइकिल, फिर कार, एक सेफ जगह और फिर दिल्ली से बाहर। देश की सबसे सुरक्षित जेल ने पहली बार महसूस किया कि दीवारें मजबूत हो सकती हैं, लेकिन इंसानी चूक हथियार से भी खतरनाक होती है। किस्सा 3: अमिताभ बच्चन की किडनैपिंग 80 का दशक। इलाहाबाद (अब प्रयागराज) की उस शाम कमरे में सिगरेट का धुआं तैर रहा था। रेडियो पर बॉलीवुड के शहंशाह अमिताभ बच्चन का इंटरव्यू चल रहा था। राजू भटनागर अपने गैंग के साथ किसी बड़े आदमी को उठाने की प्लानिंग कर रहा था। तभी एक आदमी एक बोला- “भइया, सच कहैं तौ आजकल एकइ नाम क्यार चर्चा हय, अमिताभ बच्चन।” दूसरा हंसकर बोला- “अरे हिंयय के तो हंय, अलाहाबाद के…” बात राजू को कुछ जंच गई। उसने धीरे से सिर उठाया और पूछा- “सच में? इलाहाबाद के हैं?” गुर्गा बोला- “हां भइया…” कुर्सी पर पीठ टिकाए बैठा राजू कुछ आगे झुककर बैठ गया और बोला- “तुम लोग सोच भी रहे हो कि अगर अमिताभ बच्चन को उठा लिए तो क्या होगा? पूरा देश हिल जाएगा। पैसा, नाम, डर… सब एक साथ।” एक ने धीमी आवाज में कहा- “भइया, आप मजाक तो नहीं कर रहे?” राजू आंखें तिरछो करके बोला- “मजाक नहीं है, काम शुरू करो।” इसके बाद शुरू हुआ जोखिम से बार एक ऐसा खेल, गिरोह के आदमी मुंबई भेजे गए। वहां एक उभरती हुई एक्ट्रेस को भी किसी तरह इस काम में शामिल किया गया। उसे वो जिम्मेदारी दी गई जो गिरोह के किसी भी आदमी के बस की बात नहीं थी। एक्ट्रेस से कहा गया कि वह किसी प्रोग्राम या शूट के बहाने अमिताभ बच्चन तक पहुंचने की कोशिश करे। एक्ट्रेस ने अपना काम बखूबी पूरा किया। उसने अमिताभ को इलाहाबाद के एक प्रोग्राम में चीफ गेस्ट बनने के लिए राजी कर लिया। ये खबर इलाहाबाद में राजू तक पहुंची तो उसने तैयारियां तेज कर दीं। किडनैपिंग के बाद अमिताभ को रखने के लिए सेफ ठिकाना ढूढ़ा गया। वहां तक ले जाने के लिए रास्ता तय हुआ। कोई गड़बड़ होने पर एक अल्टरनेट प्लान भी तैयार किया गया। हर चीज एकदम फिल्मी लग रही थी। प्रोग्राम वाले दिन से ठीक पहले की शाम राजू ने अपने सबसे भरोसेमंद आदमी को बुलाया। उसने पूछा- “सब तैयार है?” आदमी बोला- “हर रास्ते का नक्शा, हर चौक का हिसाब, सब तय कर लिया गया है। बस कल होने की देर है।” राजू गहरी सांस लेकर बोला- “कल शाम तक देश ही नहीं पूरी दुनिया मेरा नाम जान जाएगी।” लेकिन किस्मत का लिखा कुछ और था, अगली सुबह खबर आई कि अमिताभ बच्चन ने प्रोग्राम में आने से मना कर दिया है। वजह कुछ साफ नहीं पता चली। ये खबर सुनते ही राजू का चेहरा उतर गया। कमरे में खामोशी थी। गुर्गों ने एक-दूसरे की तरफ देखा लेकिन कोई कुछ बोलने की हिम्मत नहीं कर पाया। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि उस दिन अमिताभ बच्चन अपना प्रोग्राम कैंसिल कर दिया। अगर ऐसा न होता तो शायद कहानी कुछ और होती। एनकाउंटर 9 जनवरी, 1988 हल्का कोहरा पड़ रहा था। एक मुखबिर ने लखनऊ पुलिस को खबर दी। “राजू भटनागर इलाहाबाद आ रहा है। किसी हाई प्रोफाइल किडनैपिंग की तैयारी है।” लखनऊ के सिटी एसपी एसएन सिंह काफी समय से राजू भटनागर गैंग को पकड़ने की कोशिश में लगे थे। खबर मिलते ही उन्होंने टेबल पर रखी फाइल बंद की और धीमी आवाज में बोले- “मौका अच्छा है, इस बार किसी भी कीमत पर राजू को पकड़ना ही है।” तुरंत एक स्पेशल टीम तैयार की गई। हथियार लोड हुए, बुलेटप्रूफ जैकेट के साथ पुलिस फोर्स इलाहाबाद की ओर निकली। 10 जनवरी की सुबह, अंधेरा अभी पूरी तरह छंटा नहीं था। लौदर रोड पहुंचते ही लखनऊ और इलाहाबाद पुलिस चप्पे-चप्पे पर फैल गई। हर सिपाही अलर्ट था, उंगली ट्रिगर पर और नजर सड़क पर। एसएन सिंह धीमी आवाज में बोले- “इसे हर हाल में जिंदा पकड़ना है। कोई गलती नहीं होनी चाहिए।” तभी दूर से हल्के कोहरे में गाड़ी की हेडलाइट्स की चमकी। एक कार धीरे-धीरे उसी ओर आती दिखी। ये उसी सागर वाले बीड़ी व्यापारी की फिएट कार थी। कार जैसे ही नजदीक आई, पुलिस ने बैरिकेडिंग लगा दी। कार कुछ दूर पहले ही अचानक झटके से रुक गई। राइफल ताने सिपाही सामने खड़े थे। पीछे भी घेरा बना हुआ था। राजू भटनागर पीछे की सीट से चौंककर बाहर झांका। चेहरे पर घबराहट थी। कार में अपने दो साथियों बबलू श्रीवास्तव और बृजमोहन की ओर इशारा किया। फिर धीरे से बोला- “ये लोग पूरी तैयारी से आए हैं।” तभी एक रौबदार आवाज गूंजी- “राजू भटनागर, तुम चारों तरफ से घिर गए हो। कोई बेवकूफी मत करना। चुपचाप सरेंडर कर दो।” ये एसएन सिंह थे। राजू ने हंसकर जवाब दिया- “सर, पुलिस से मेरा पाला आज पहली बार नहीं पड़ रहा है। घर जाइए, आज छुट्टी है। मेरी वजह से अपना सनडे खराब मत करिए।” एसएन सिंह की आंखें सख्त हो गईं। “हम भी खून-खराबा नहीं चाहते। इसलिए बेहतर है कि हथियार डाल दो।” राजू ठहाका मारकर हंसा और अगले ही पल फायरिंग शुरू हो गई। पुलिस ने भी ताबड़तोड़ गोलियां बरसानी शुरू कर दीं। 10 मिनट तक लौदर रोड गोलियों की तड़तड़ाहट से गूंजती रही। फायरिंग थम ही नहीं रही थीं। कार के अंदर बारूद की गंध और धुआं भर गया था। अचानक एक दर्द से भरी चीख निकली- “भइया…” ये बृजमोहन था। डर से कांपते उसके हाथ में खून से सनी शर्ट थी। राजू सीट पर पड़ा तड़प रहा था। छाती में गोली लगी थी। बृजमोहन फिर चीखा- “राजू भइया को गोली लग गई है, वो नहीं बचेंगे।” घायल बबलू खून थूकते हुए गरजा- “चुप रह, पागल मत बन। आज आर-पार होगा। पीछे हटने का सवाल ही नहीं।” बृजमोहन की आवाज कांपने लगी- “नहीं भइया, जिंदा रहना जरूरी है।” अचानक फायरिंग रुक गई। कुछ देर के लिए सन्नाटा छा गया। बबलू ने राजू की तरफ देखा। राजू की आंखें आधी बंद थीं। उसने आखिरी बार बबलू की ओर देखा। आखिरी सांसें चल रही थीं। एक धीमी आवाज आई और हवा में खो जाए- “बस… अब खत्म…” उस पल बबलू की हिम्मत टूट गई। गुस्सा, जुनून सब एक साथ ढह गया। भर्राई आवाज में बोला- “तू सही कह रहा है।” फिर पूरी ताकत जुटाकर बबलू बाहर की ओर चिल्लाया- “सर… हम सरेंडर करते हैं। गोली मत चलाइए।” बबलू और बृजमोहन साथ ऊपर किए कार से बाहर आ गए। पुलिसवाले सावधानी से आगे बढ़े। कार का दरवाजा खोला गया। पिछली सीट पर राजू भटनागर गिरा पड़ा था। पूरी शर्ट खून से लाल थी। पिस्टल हाथ से छूटकर नीचे गिर चुकी थी। सुबह की रोशनी जैसे ही फैली, इलाहाबाद से लखनऊ तक ये खबर जंगल में आग की तरह फैल गई- “किडनैंपिग किंग राजू भटनागर, पुलिस एनकाउंटर में मारा गया।” अपराध की दुनिया का एक बड़ा अध्याय उसी सड़क पर बंद हो गया। *** स्टोरी एडिट- कृष्ण गोपाल *** रेफरेंस जर्नलिस्ट- सुनील शुक्ल, रघुवीर शर्मा | सुनील जैन (सुखनंदन जैन के भाई) ये स्टोरी पुलिस, पीड़ित और जानकारों से बात करने के बाद सभी कड़ियों को जोड़कर लिखी गई है। फिर भी घटनाओं के क्रम में कुछ अंतर हो सकता है। कहानी को रोचक बनाने के लिए क्रिएटिव लिबर्टी ली गई है। ———————————————————– ‘एनकाउंटर’ सीरीज की ये स्टोरीज भी पढ़ें… जिसके नाम से कांपते थे यूपी के डॉक्टर; अमित वर्मा की दहशत से क्लिनिकों पर पड़े ताले, कैसे मारा गया मासूम चेहरे वाला माफिया 2000 के आसपास का पूर्वांचल। श्रीप्रकाश शुक्ला की मौत से पैदा हुए पावर वैक्यूम ने अमित मोहन वर्मा को खड़ा किया था। पूर्वांचल के डॉक्टरों में इस नाम की इतनी दहशत थी कि शाम ढलने के बाद वे घर से निकलने में कतराते थे। आलम ये था कि अस्पताल और क्लिनिक जल्दी बंद होने लगे। पूरी स्टोरी पढ़ें… कालिया के इशारे पर पहली बार लखनऊ में चली AK-47; पूर्व मंत्री को घर में घुसकर मारा, रमेश यादव कैसे बना ‘लखनऊ का बाप’ 90 का दशक था। लखनऊ का बाघामऊ गांव (चिनहट के पास) बारूद की तरह सुलग रहा था। वर्चस्व की लड़ाई में गांव दो हिस्सों में बंट चुका था। एक तरफ थे अयोध्या प्रसाद यादव और दूसरी तरफ रघुनाथ यादव। एक शाम, अयोध्या प्रसाद घर लौट रहे थे। तभी खेत में छिपे कुछ लोग निकले। धांय… धांय… धांय… पूरी स्टोरी पढ़ें…
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