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Rahul Gandhi की जर्मनी यात्रा संयोग है या कोई प्रयोग? जब जर्मन चांसलर भारत आने वाले हैं तो उससे पहले आखिर राहुल किसलिये Germany जा रहे हैं?

रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की दिल्ली यात्रा के बाद भारत अब यूरोप के साथ अपने कूटनीतिक रिश्तों को नई दिशा देने की तैयारी में है। हम आपको बता दें कि जनवरी के अंत में प्रस्तावित भारत–यूरोपीय संघ शिखर सम्मेलन से पहले जर्मन चांसलर फ्रेडरिक मर्ज पहली बार भारत आ रहे हैं। वह जनवरी के तीसरे सप्ताह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ वार्ता करेंगे। इस दौरान व्यापार, तकनीक, हरित विकास, रक्षा सहयोग, प्रवासन गतिशीलता और इंडो-पैसिफिक सुरक्षा जैसे विषय केंद्र में रहेंगे।
भारत–जर्मनी संबंधों के लिए यह बैठक अहम इसलिए भी है कि मर्ज, यूरोप के सबसे प्रभावशाली देशों में से एक का नेतृत्व कर रहे हैं और यूक्रेन युद्ध में जर्मनी की भूमिका निर्णायक रही है। यद्यपि यूरोप रूस के प्रति कड़ा रुख अपनाए हुए है, मगर जर्मनी ने भारत–रूस संबंधों पर सार्वजनिक आलोचना से परहेज किया है और इंडो-पैसिफिक में चीन की आक्रामकता को लेकर भारत के साथ सामरिक समन्वय को अधिक महत्व दिया है।

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इसी के साथ भारत–जर्मनी ने लगभग 1.3 अरब यूरो की नई विकास साझेदारी पर सहमति जताई है, जिसमें हरित ऊर्जा, शहरी विकास, सतत परिवहन और प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन जैसे क्षेत्र शामिल हैं। यह निवेश स्पष्ट संकेत है कि बर्लिन दिल्ली के साथ दीर्घकालिक रणनीतिक रिश्तों को और गहरा करना चाहता है।
परंतु इसी बीच देश के भीतर राजनीतिक विवाद उस समय गहरा गया, जब भाजपा ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी की एक और विदेशी यात्रा जोकि जर्मनी की यात्रा है, उसको लेकर सवाल उठाए हैं। संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा है और संसद में विपक्ष की उपस्थिति महत्वपूर्ण मानी जाती है, ऐसे में राहुल गांधी का 15 से 20 दिसंबर के बीच जर्मनी जाने का फैसला भाजपा के निशाने पर आ गया। भाजपा प्रवक्ता शहजाद पूनावाला ने राहुल गांधी पर तंज कसते हुए उन्हें लीडर ऑफ पर्यटन और विदेश नायक कहा तथा आरोप लगाया कि महत्वपूर्ण राजनीतिक क्षणों में राहुल अक्सर देश से बाहर रहते हैं। हम आपको बता दें कि इंडियन ओवरसीज़ कांग्रेस ने पुष्टि की है कि राहुल गांधी भारतीय प्रवासी समूहों से मिलेंगे और जर्मन मंत्रियों से मुलाक़ातें करेंगे।
देखा जाये तो यहाँ एक तीखा और ज़रूरी प्रश्न उठता है कि जब जर्मनी के चांसलर भारत की ओर कूटनीतिक मैत्री का हाथ बढ़ाते हुए दिल्ली आ रहे हैं, तब भारत के नेता–प्रतिपक्ष आखिर किस उद्देश्य से जर्मनी जा रहे हैं? क्या यह महज़ संयोग है या फिर कोई प्रयोग है? राहुल गांधी की विदेश यात्राओं का इतिहास बहुत कुछ कहता है। राहुल गांधी विदेश जाते हैं और वहाँ अपने व्याख्यानों में भारत के संवैधानिक ढाँचे, न्यायपालिका, चुनाव आयोग, मीडिया और लोकतांत्रिक संस्थाओं पर कठोर और कभी-कभी अपुष्ट आरोप लगाते हैं। लंदन में उन्होंने कहा कि भारत में लोकतंत्र खत्म हो चुका है। अमेरिका में उन्होंने आरोप लगाया कि भारत की संवैधानिक संस्थाएँ केंद्र के नियंत्रण में हैं। यूरोप में उन्होंने कहा कि भारत में अल्पसंख्यक सुरक्षित नहीं हैं। जबकि इन्हीं देशों के नेतृत्व भारत को इंडो-पैसिफिक का स्थिर लोकतांत्रिक स्तंभ मानते हैं और भारत के साथ रणनीतिक साझेदारी को मज़बूत करना चाहते हैं।
ऐसे में स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि राहुल गांधी की विदेश यात्राएँ भारत की छवि को बेहतर बनाती हैं या कमजोर? सवाल उठता है कि क्या वह भारतीय लोकतंत्र को विश्व मंच पर मजबूत दिखाने जाते हैं, या अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों पर हमला करने और घरेलू राजनीति को वैश्विक घेराबंदी में बदलने के लिए विदेश जाते हैं?
साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि संसद का सत्र चल रहा है, महत्वपूर्ण विधेयक पेश हो रहे हैं, विपक्ष की भूमिका निर्णायक है, फिर भी नेता–प्रतिपक्ष विदेश जाने को प्राथमिकता देते हैं। देखा जाये तो राजनीति में असहमति लोकतंत्र की आत्मा है, परंतु संसद से अनुपस्थिति और विदेश से संवैधानिक संस्थाओं पर हमले की आदत लोकतांत्रिक मर्यादाओं के अनुरूप नहीं है।
साथ ही सवाल उठता है कि जब जर्मन चांसलर भारत–जर्मनी संबंधों को नई ऊँचाई पर लाने के लिए दिल्ली आ रहे हैं, तब राहुल गांधी उससे पहले जर्मनी पहुँच कर किस संदेश को आगे बढ़ाएँगे? सवाल उठता है कि जब यूरोप भारत के साथ साझेदारी को मज़बूत करने की बात करेगा क्या तब भारत का नेता–प्रतिपक्ष यूरोप के ही मंचों पर भारत की लोकतांत्रिक संरचना को कमजोर बताता रहेगा? भारत जैसे उभरते वैश्विक शक्ति-पुंज के लिए यह स्थिति असहज है। कूटनीति में विपक्ष की ज़िम्मेदारी सरकार जितनी ही महत्वपूर्ण होती है, परंतु विपक्ष का नेता विदेश यात्राओं को राजनीतिक हथियार बना ले, यह राष्ट्रहित के अनुरूप नहीं है।
आज भारत का कूटनीतिक कद बढ़ रहा है, यूरोप, एशिया और अमेरिका, सभी भारत को निर्णायक साझेदार के रूप में देख रहे हैं। ऐसे समय में यह अपेक्षित है कि राष्ट्रीय नेतृत्व का हर घटक यानि चाहे सरकार हो या विपक्ष, वह विदेश में भारत की शक्ति, स्थिरता और लोकतंत्र को ही मजबूत करे, न कि उसे कटघरे में खड़ा करे।


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