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Prabhasakshi NewsRoom: Pending Cases घटाना और संवैधानिक संतुलन को बनाये रखना CJI Surya Kant के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती

भारत के सर्वोच्च न्यायालय में आज एक महत्वपूर्ण अध्याय जुड़ गया, जब जस्टिस सूर्यकांत ने देश के 53वें मुख्य न्यायाधीश (CJI) के रूप में शपथ ग्रहण की। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने उन्हें पद की शपथ दिलाई। इस अवसर पर प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्री और कई वरिष्ठ संवैधानिक पदाधिकारी मौजूद रहे। परंपरागत वरिष्ठता के अनुरूप उन्हें यह दायित्व सौंपा गया है। उनका कार्यकाल लगभग 14–15 महीनों का होगा, जिसके दौरान उनसे न्यायिक सुधारों और लंबित मामलों को कम करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाने की उम्मीद की जा रही है।
देखा जाये तो भारत में मुख्य न्यायाधीश का पद केवल प्रशासनिक अधिकारों तक सीमित नहीं, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र के संवैधानिक हृदय का प्रतिनिधित्व भी करता है। आज जब जस्टिस सूर्यकांत इस पद पर आसीन हुए हैं, तो उम्मीदें कई हैं और चुनौतियाँ उससे भी अधिक। उनकी पहचान एक गहन संवैधानिक सोच वाले न्यायाधीश के रूप में रही है। कठिन मुद्दों, जटिल संवैधानिक विवादों और लोकतांत्रिक मूल्यों की कसौटी पर खरे उतरने वाले निर्णय उनके अनुभव का हिस्सा हैं। ऐसे में उनका शीर्ष न्यायिक पद पर पहुँचना न्यायपालिका और समाज— दोनों के लिए महत्वपूर्ण संकेत देता है।

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हम आपको बता दें कि भारतीय न्यायपालिका के सामने सबसे गंभीर चुनौती है लंबित मामलों का लगातार बढ़ता ग्राफ। लाखों मामले अभी भी निर्णय की प्रतीक्षा में हैं। सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट और निचली अदालतों में यह समस्या भयावह रूप ले चुकी है। जस्टिस सूर्यकांत ने शपथ के तुरंत बाद ही कहा है कि वे हाई कोर्ट और निचली अदालतों के साथ समन्वय बढ़ाकर इस संकट को कम करने का प्रयास करेंगे।
परंतु यहाँ असली कठिनाई सिर्फ सुनवाई की गति बढ़ाने की नहीं, बल्कि संरचनात्मक सुधार की है। मामलों की प्राथमिकता तय करने की प्रक्रिया, न्यायाधीशों की कमी, तकनीक के प्रभावी उपयोग और न्यायिक प्रशासन में जवाबदेही, ये सभी मुद्दे असली ‘फोकस क्षेत्र’ हैं। यदि नए CJI इस दिशा में ठोस रणनीति पेश करते हैं, तो यह आने वाले वर्षों में न्यायपालिका का चरित्र बदल सकता है।
भारत ऐसे दौर से गुजर रहा है जब नागरिक अधिकारों, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, निजता की सुरक्षा और संघीय संरचना पर बहसें तेज हुई हैं। इन सबके केंद्र में है— सर्वोच्च न्यायालय। जस्टिस सूर्यकांत का पूर्व अनुभव यह संकेत देता है कि वे संवैधानिक व्याख्या में संतुलन और विवेक के पक्षधर रहे हैं। परंतु अब चुनौती कहीं अधिक व्यापक है— अब उन्हें न केवल संवेदनशील मामलों में समयोचित निर्णय देने होंगे, बल्कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता को भी बेजोड़ स्पष्टता के साथ स्थापित करना होगा। लोकतंत्र का स्वास्थ्य उस संतुलन पर टिकता है, जहाँ न तो न्यायपालिका असहज रूप से सक्रिय हो, न ही निष्क्रिय होकर संवैधानिक मूल्यों को खतरे में डाल दे।
मुख्य न्यायाधीश के रूप में उनकी एक प्रमुख जिम्मेदारी होगी सर्वोच्च न्यायालय के प्रशासनिक ढाँचे को अधिक पारदर्शी और प्रभावी बनाना। देखा जाये तो रोस्टर से लेकर बेंच गठन तक, कई बार न्यायालय की आंतरिक प्रक्रिया पर प्रश्न उठते रहे हैं। डिजिटल न्यायिककरण जैसे ई-फाइलिंग, वीडियो हियरिंग और केस-मैनेजमेंट सिस्टम, के प्रभावी कार्यान्वयन से मामलों की गति बढ़ सकती है, पर साथ ही यह ध्यान रखना आवश्यक है कि न्याय की गुणवत्ता कम न हो। एक अन्य महत्वपूर्ण पक्ष है— बड़ी संवैधानिक बेंचों का समय पर गठन। कई बड़े मुद्दे वर्षों से लंबित हैं। यदि नए CJI ऐसे मामलों पर शीघ्र सुनवाई सुनिश्चित करते हैं, तो इससे न्यायपालिका पर जनविश्वास और मजबूत होगा।
देखा जाये तो भारतीय संविधान तीन स्तंभों का राज्य है— विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। इन तीनों के बीच संतुलन लोकतंत्र की मजबूती का आधार है। न्यायपालिका का स्वतंत्र रहना आवश्यक है, पर व्यवसायिक रूप से ‘अति-सक्रिय’ दिखने का जोखिम भी इसी दौरान पैदा होता है। जस्टिस सूर्यकांत को यह सुनिश्चित करना होगा कि न्यायपालिका न तो राजनीतिक दबाव में झुके और न ही नीतिगत मामलों में अनावश्यक हस्तक्षेप करती दिखे। उनका कार्यकाल इस दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है कि देश अनेक राजनीतिक, सामाजिक और संवैधानिक चुनौतियों से गुजर रहा है।
देखा जाये तो भारत का न्याय तंत्र अभी भी कई वर्गों के लिए कठिन और खर्चीला है। न्याय की पहुँच का यह असंतुलन उससे ज्यादा गहरा संकट है जितना आम तौर पर दिखाई देता है। नए CJI को यह ध्यान रखना होगा कि न्याय केवल ‘उच्च न्यायिक निर्णय’ नहीं, बल्कि वह सुविधा है जो समाज के सबसे अंतिम व्यक्ति तक पहुँचे। कानूनी सहायता तंत्र की मजबूती, निचली अदालतों में सुधार, लोक अदालतों की सक्रियता, और समाज न्याय आधारित निर्णय— इन सबको उनके प्रशासनिक दृष्टिकोण में स्थान मिलना चाहिए।
बहरहाल, जस्टिस सूर्यकांत का मुख्य न्यायाधीश बनना न केवल एक परंपरा का पालन है, बल्कि भारतीय न्यायपालिका में नए दृष्टिकोण और संवैधानिक प्रतिबद्धता का प्रवेश भी है। उनका कार्यकाल भले ही लंबा नहीं होगा, लेकिन प्रभावशाली हो सकता है— यदि वे लंबित मामलों के संकट को कम करने, संवैधानिक संतुलन बनाए रखने, न्यायिक प्रशासन सुधारने तथा न्याय को आम जनता तक अधिक सुगमता से पहुँचाने की दिशा में गहरे और ठोस कदम उठाते हैं। भारत की न्यायपालिका अब एक ऐसे मोड़ पर है जहाँ उम्मीद केवल निर्णयों से नहीं, बल्कि नेतृत्व की क्षमता से भी की जाती है। जस्टिस सूर्यकांत के सामने यह अवसर है कि वे इस मोड़ को सही दिशा दें और आने वाली पीढ़ियों को एक अधिक सक्षम, पारदर्शी और संवेदनशील न्यायपालिका सौंपें।


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