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नाम बदलकर मतदाता बनने वाले बांग्लादेशी घुसपैठियों में दिख रहा खौफ, Bengal Border पर ‘रिवर्स माइग्रेशन’ चरम पर

पश्चिम बंगाल में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) के चलते सैकड़ों अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों के अपने देश लौटने की खबरों के बीच, राज्यपाल सीवी आनंद बोस ने आज मुर्शिदाबाद का दौरा किया। इससे पहले उन्होंने उत्तर 24 परगना के हकीमपुर सीमा चौकी पर हालात का जमीनी जायजा लिया था। राज्यपाल ने स्थानीय लोगों से बातचीत की और बीएसएफ के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ बैठक भी की। राज्यपाल ने कहा कि SIR एक “अहम और महत्वपूर्ण” प्रक्रिया है और इससे जुड़े मामलों पर विभिन्न व्याख्याएं सामने आ रही हैं, इसलिए वे “जमीनी सच्चाई अपनी आंखों से देखना” चाहते हैं। हम आपको बता दें कि मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, अवैध घुसपैठियों में व्यापक भय फैलने के कारण बंगाल के कई क्षेत्रों— विशेषकर नदिया, मुर्शिदाबाद और उत्तर 24 परगना—में “रिवर्स माइग्रेशन” तेज़ हुआ है और बड़ी संख्या में घुसपैठिये सीमा पार कर लौटने की कोशिश कर रहे हैं।
देखा जाये तो पश्चिम बंगाल की सीमाओं पर आज जो दृश्य दिखाई दे रहा है वह किसी सामान्य घटनाक्रम का परिणाम नहीं है। यह उस भय की उपज है, जो वर्षों से ढीली पड़ी व्यवस्थाओं पर पहली बार किसी सख्त प्रशासनिक कार्रवाई की दस्तक मात्र सुनकर पैदा हुआ है। SIR (Special Intensive Revision) कोई दंडात्मक अभियान नहीं, बल्कि एक साधारण, नियमित चुनावी प्रक्रिया है। लेकिन इस साधारण प्रक्रिया ने जिस असाधारण प्रतिक्रिया को जन्म दिया है, वही बंगाल के बड़े और वास्तविक संकट— घुसपैठ, जनसंख्या असंतुलन और वोट बैंक के गठजोड़ को उजागर करता है।

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कड़वा सत्य यह है कि बंगाल के एक-एक जिले में लाखों अवैध घुसपैठियों ने अपने नाम बदलकर, उपनाम बदलकर, पहचान बदलकर भारतीय मतदाता सूची में प्रवेश पा लिया है। कुछ आँकड़े बताते हैं कि करीब 2.68 लाख लोगों ने अपने मुस्लिम नाम हटाकर हिन्दू उपनाम जोड़ लिए, ताकि वे “स्थानीय” दिखें और मतदाता सूची में जगह बना सकें। यह आंकड़ा भयावह है और स्वयं इस बात का प्रमाण है कि घुसपैठ अब केवल सुरक्षा का मुद्दा नहीं, बल्कि राजनीतिक संरचना को प्रभावित करने वाली संगठित जनसांख्यिकीय रणनीति बन चुकी है।
इस तरह की भी रिपोर्टें हैं कि बंगाल के कई इलाकों में घरों में ताले पड़े हैं, पूरा-पूरा मोहल्ला खाली दिखाई देता है, लोग रातों-रात सीमा के उस पार भाग रहे हैं। ये दृश्य यूँ ही नहीं बने, ये इसलिए बन सके क्योंकि वर्षों से इस अवैध प्रवासन को न केवल अनदेखा किया गया, बल्कि कई बार राजनीतिक संरक्षण भी दिया गया। कुछ दलों ने इसे वोट बैंक के रूप में पोषित किया, स्थानीय प्रशासन ने आंखें मूँद लीं और परिणामस्वरूप सीमावर्ती जनसंख्या धीरे-धीरे विस्थापित और भयग्रस्त होती गई।
इस पूरे परिदृश्य में राज्यपाल का सीमा पर जाकर स्थिति देखना प्रतीकात्मक ही नहीं, बल्कि अत्यंत आवश्यक कदम है। जब एक संवैधानिक पदाधिकारी को खुद कहना पड़े कि “गलत सूचना फैलाकर लोगों में डर पैदा किया जा रहा है”, तो यह समझ जाना चाहिए कि शासन-व्यवस्था में कहीं न कहीं गहरी दरार उत्पन्न हो चुकी है। यह केवल गलत सूचना का मामला नहीं, बल्कि उस असुरक्षा का मामला है जिसका लाभ राजनीतिक संरक्षण प्राप्त घुसपैठिये वर्षों से उठाते आ रहे थे और पहली बार उन्हें लगता है कि “प्रक्रिया” भी उनके लिए खतरा बन सकती है।
सवाल यह है कि ऐसे भय का जन्म कैसे हुआ? क्या इसलिए कि इन लोगों के पास दस्तावेज़ नहीं? क्या इसलिए कि ये सच्चे नागरिक नहीं? या इसलिए कि वर्षों से इन्हें बिना अधिकार, बिना नियम, बिना पहचान भारत में रहने दिया गया? इस भय का उत्तर इन्हीं सवालों में छिपा है।
यह साफ दिख रहा है कि भले ही सरकारें बदलती रहीं, लेकिन बंगाल में अवैध घुसपैठ का मुद्दा स्थायी, संरचनात्मक और तेज़ी से बढ़ता हुआ संकट रहा है। SIR यदि केवल कागज़ी कार्रवाई है और इसके चलते ही हजारों लोग पलायन कर रहे हैं, तो कल्पना कीजिए कि यदि एक व्यापक, कठोर और राष्ट्रीय स्तर पर लागू होने वाला पहचान सत्यापन अभियान शुरू किया जाए, तो कितनी वास्तविकता उजागर होगी। यहाँ एक और महत्वपूर्ण पहलू है— घुसपैठ का सांस्कृतिक असर। बंगाल के कई इलाकों में स्थानीय लोग अल्पसंख्यक बन गए हैं। केशवपुर जैसे क्षेत्रों में 70–80% जनसंख्या घुसपैठियों की बताई जा रही है। यह स्थिति केवल जनसंख्या का मुद्दा नहीं, बल्कि भाषा, सुरक्षा, रोजगार और सांस्कृतिक अस्तित्व का सवाल बन चुकी है।
देखा जाये तो हालात ऐसे विकट हैं कि सिर्फ SIR से समस्या हल नहीं होगी। इसके लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति, राष्ट्रीय नीति और कठोर कानून की आवश्यकता है। देश को NRC (राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर) जैसे ठोस उपायों की स्पष्ट, चरणबद्ध और निष्पक्ष रूपरेखा चाहिए। घुसपैठ सिर्फ बंगाल का नहीं, बल्कि पूरे भारत का मुद्दा है— असम, त्रिपुरा, अरुणाचल, दिल्ली, राजस्थान, महाराष्ट्र, हर जगह इसकी गूँज सुनाई देती है। सरकारें यदि केवल चुनावी लाभ-हानि के आधार पर निर्णय लेंगी, तो इस देश की सीमाओं की सुरक्षा, नागरिकों की पहचान और जनसंख्या संतुलन कभी स्थिर नहीं हो पाएगा। यह राजनीतिक साहस का समय है और साहस वही है जो “कतरा-कतरा वोट की राजनीति” से ऊपर उठकर एक राष्ट्रीय समाधान बनाए।
-नीरज कुमार दुबे


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