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राष्ट्रीय शिल्प मेला संपन्न, भारतीय संस्कृति की दिखी झलक:दस दिवसीय उत्सव में देशभर के शिल्पकारों ने छोड़ी गहरी छाप।

उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र (एनसीजेडसीसी) में आयोजित दस दिवसीय राष्ट्रीय शिल्प मेला 2025 बुधवार को सांस्कृतिक उत्सव के शानदार समापन के साथ संपन्न हुआ। देशभर से आए शिल्पकारों, कलाकारों और दर्शकों ने इस मेले को ‘कला का महाकुंभ’ बनाते हुए यादगार बना दिया। मेले में देश के विभिन्न राज्यों से आए शिल्पकारों ने अपनी पारंपरिक कलाओं की अनूठी छटा बिखेरी। चंदेरी, सिल्क, सूती वस्त्र, राजस्थान के आकर्षक आभूषण, कश्मीर के ड्राई फ्रूट्स और अनेक हस्तशिल्प उत्पादों ने दर्शकों का दिल जीता। शिल्पियों ने बताया कि प्रयागराज के लोगों ने इस वर्ष भी उनकी कला को भरपूर सराहा और खरीददारी ने उनके उत्साह को कई गुना बढ़ा दिया। मेले से विदा होते वक्त उनके चेहरे संतोष और प्रसन्नता से दमक रहे थे। समापन दिवस की सांस्कृतिक संध्या ने ‘लघु भारत’ की अद्भुत झलक पेश की। कार्यक्रम का शुभारंभ मुख्य अतिथि आचार्य महामंडलेश्वर कौशल्या नंद गिरि (सनातनी किन्नर अखाड़ा), केंद्र निदेशक सुदेश शर्मा, कार्यक्रम सलाहकार कल्पना सहाय, तथा विशिष्ट अतिथि विनोद शुक्ला, शील द्विवेदी, कमलेश श्रीवास्तव, बसंत लाल और प्रदीप जौहरी द्वारा दीप प्रज्वलन से हुआ। इस अवसर पर अतिथियों को अंगवस्त्र, पौधा और स्मृतिचिन्ह देकर सम्मानित किया गया। सांस्कृतिक संध्या की शुरुआत वरुण मिश्रा की मनमोहक ठुमरी प्रस्तुतियों‘तोरी मोरी…चलो मन गंगा यमुना तीर, बाजे रे मुरलिया’ और ‘आया करें जरा कह दो सांवरिया से’से हुई, जिसने दर्शकों की खूब वाहवाही पाई। इसके बाद सूफी गायिका अंशिका रजोतिया ने ‘पिया रे पिया रे, हल्का-हल्का सुरूर, ये तूने क्या किया, दिल्लगी’ और ‘छाप तिलक’ जैसे गीतों से समां बांध दिया। दिल्ली से आईं कविता द्विवेदी एवं दल ने ‘गंगा स्तुति’ पर आधारित ओडिशी नृत्य की प्रस्तुति देकर माहौल को आध्यात्मिक रंग से भर दिया। प्रयागराज की पूर्णिमा कुमार एवं दल ने पारंपरिक ढेड़िया, पूर्वी और झूमर नृत्य प्रस्तुत कर भोजपुरी-सांस्कृतिक लोक रंगों को मंच पर जीवंत किया। वहीं शुभम कुमार व दल ने महिषासुर मर्दिनी पर आधारित नृत्य-नाटिका से दर्शकों में रोमांच भर दिया। मेले व सांस्कृतिक संध्या में भारी संख्या में नागरिकों की उपस्थिति ने यह संदेश दिया कि प्रयागराज में कला, संस्कृति और शिल्प का आकर्षण आज भी उतना ही जीवंत है।


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