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यूथ सुसाइडल थॉट्स के बढ़ते मामले, साइकेट्रिस्ट ने बताई वजह:कहा- कड़ी मेहनत कर लेते एडमिशन, फिर हो जाते रिलैक्स, प्रेशर पड़ने पर हारते हिम्मत

आजकल के यूथ के बीच सुसाइडल थॉट के बढ़ते मामले गंभीर चिंता का विषय है। पढाई का प्रेशर बढ़ने से अक्सर बच्चे परेशान हो जाते। फेल्योर का डर उनके मन में इस कदर बैठ जाता है कि रिजल्ट या एग्जाम से पहले ही वे हिम्मत हारने लगते। ऐसे में या तो वे अपना जीवन खत्म करने की सोचते या फिर काउंसलर की मदद लेते हैं। डॉक्टर ने इसकी वजह एडमिशन के बाद रिलैक्स हो कर, पढाई छोड़ देने से प्रेशर बढ़ना बताई है। कंपटीशन के इस दौर में करियर में बेहतर उपलब्धि हासिल करने और जेन जी के माहौल में तालमेल बैठाने के लिए लगभग हर बच्चा पिस रहा है। अगर करियर पर फोकस करते हुए पढ़ाई पर ध्यान दे, तो लाइफ का एंजॉयमेंट छूट जाता है। साथ के लोगों के साथ सर्वाइव करना मुश्किल हो जाता। वहीं अगर लाइफ एंजॉय करने लगे तो पढ़ाई छूट जाती। ऐसे में पेरेंट्स की उम्मीदों पर खरे उतरने और दोस्तों के बीच में खुद को मॉडर्न प्रूव करने में अक्सर तैयारी करने वाले बच्चे मेंटली प्रेशराइज्ड हो जाते हैं। समय बर्बाद होने के बाद फेल्योर के डर से सुसाइडल अटेम्प्ट तक कर रहे हैं। ये प्रॉब्लम ज्यादातर इंजीनियरिंग और मेडिकल फिल्ड में एडमिशन लेने वाले बच्चों में ज्यादा देखी जा रही है। ऐसे बढ़ते मामलों को लेकर साइकेट्रिस्ट और काउंसलर का कहना है कि इस स्टेज पर ही बच्चों पर ज्यादा ध्यान देने, उन्हें समझ कर सपोर्ट करने से उनके लाइफ को बचाया जा सकता है। इसके लिए फैमिली, दोस्त और कॉलेज के टीचर्स अहम भूमिका निभा सकते हैं। नए माहौल में भूल जाते लक्ष्य साइकेट्रिस्ट डॉ. आकृति ने बताया- ये बच्चे पहले तो खूब मेहनत करके इन कठिन कोर्सों में एडमिशन ले लेते हैं। फिर एडमिशन पाने के बाद अचानक से एक रिलैक्स मोड में चले जाते। तीन–चार साल की कड़ी मेहनत के बाद मिली आजादी, नया माहौल, सोशल मीडिया इंगेजमेंट, दोस्ती और रिलेशनशिप का क्रेज उन्हें पढ़ाई से दूर कर देता है। इतना ही नहीं वे अपने लक्ष्यों से भी भटकने लगते हैं। ऐसे केस में अक्सर देखा गया है कि शुरुआती दिनों में जो बच्चे कभी 8 से 10 घंटे पढ़ाई करते थे, कॉलेज लाइफ में इतने शामिल हो जाते हैं कि सिलेबस और एग्जाम दूसरे नंबर पर चले जाते हैं। कुछ घंटों या फिर शॉर्टकट पढाई करने लगते हैं। तैयारी न होने पर बढ़ती टेंशन
फिर जब एग्जाम आता है तो कुछ तैयारी ही नहीं रहती। ऐसे में जब सिलेबस का लोड पड़ता है तो घबरा जाते है। इनके दिमाग में बहुत कुछ चलने लगता है। खुद की काबिलियत पर डाउट करने लगते हैं, स्ट्रेस में आ जाते हैं, डिप्रेशन में चले जाते हैं। उन्हें लगता है उनसे नहीं हो पाएगा। तैयारी न होने की वजह से एग्जाम खराब होने और फेल होने का डर सताने लगता है। इतना ही नहीं फेल होने के बाद घर परिवार की बेज्जती होने का भी ख्याल इनके मन में रहता है। इन सब प्रेशर से बचने के लिए उन्हें सबसे आसान अपने जीवन को खत्म करना लगता है। यह सबसे बड़ी वजह है कि आजकल इंजीनियरिंग और मेडिकल के बच्चे ये खौफनाक कदम ज्यादा उठा रहे हैं। एडमिशन के बाद हो जाते रिलैक्स इंजीनियरिंग और मेडिकल में एडमिशन पाना आजकल किसी जंग से कम नहीं है। स्कूल के दिनों में अधिकतर बच्चे का सपना इन फिल्ड में जाना होता है। जिसकी तैयारी में वे तभी से लग जाते हैं। एडमिशन पाने के लिए खूब मेहनत करते हैं और जब कोचिंग, टेस्ट सीरीज, घंटों तक पढ़ाई के बाद एडमिशन मिल जाता है, तो उन्हें लगता है कि उन्होंने सब कुछ हासिल कर लिया है। इसीलिए कुछ दिनों के लिए वे उस मेहनत से दूर हो जाते हैं। साइकोलाजिस्ट इसे ‘फॉल्स रिलैक्सेशन जोन’ बताते हैं जिसमें बच्चे मान लेते हैं कि अब सब ठीक है और मेहनत की जरूरत नहीं है। यही गलती उन्हें आगे जाकर भारी पड़ती है। फैमिली का प्रेशर फील करते लड़के साइकेट्रिस्ट आकृति बताती हैं कि मेरे पास जो बच्चे काउंसलिंग के लिए आते हैं उनमें ज्यादातर लड़के ही होते हैं। ऐसे केस में पाया जाता है कि फैमिली को उनसे ज्यादा उम्मीद रहने की वजह से वे प्रेशर फील करते हैं। वहीं कॉलेज में कॉम्पिटिशन, अकेलापन और दूसरों से तुलना उन्हें ज्यादा प्रभावित करती है। लड़कियों में ऐसी प्रवृत्ति कम देखने को मिलती है, क्योंकि वे मल्टीटास्किंग होती हैं और अपनी बात दूसरों से शेयर कर लेती हैं। काउंसलिंग में देखा गया है कि मेडिकल स्ट्रीम में लड़कियां और इंजीनियरिंग स्ट्रीम में लड़के अधिक मानसिक दबाव का सामना करते हैं। कॉलेज प्रबंधन करती मोटिवेट
डॉ. आकृति ने बताया- ऐसे मामलों में कमी लाने के लिए सबसे बड़ा योगदान कॉलेज प्रबंधन का होता है। शहर के इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों की इस बात के लिए मैं सराहना करूंगी कि वे बच्चों को अवेयर करते हैं। उन्हें मोटिवेट करते हैं कि जब भी अच्छा महसूस न हो वे किसी से बात करें। अपनी परेशानी को बताए, साइकेट्रिस्ट से मिले। इसमें कोई बुराई नहीं हैं। ऐसा होता भी है ,बच्चे मेरे पास आते हैं क्योंकि उन्हें कॉलेज में बताया जाता है कि उनके लिए है कोई, वे अकेले नहीं हैं, जब भी परेशान हो वे बेझिझक बात कर सकते हैं। जब बच्चा घर से दूर जाता है, तो उसका सपोर्ट भी छूट जाता है। वो बिल्कुल अकेला पड़ जाता है। ऐसे वक्त में कॉलेज में उन्हें हमेशा मोटिवेशन मिलते रहना चाहिए। फर्स्ट ईयर में दें इन बातों पर ध्यान, नहीं होगी दिक्कत
डॉ. आकृति ने बताया कि कॉलेज का फर्स्ट ईयर बहुत खास होता है। अगर उस समय कुछ बातों पर बच्चे ध्यान दें तो उन्हें आगे चलकर कोई दिक्कत नहीं होगी। जिनमें


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