जीआईसी ग्राउंड में आयोजित खादी एवं ग्रामोद्योग प्रदर्शनी में देशभर के अलग-अलग राज्यों से आए ग्रामोद्योग उत्पाद लोगों का ध्यान खींच रहे हैं। इसी बीच बिहार के भागलपुर से आया नॉन-वायलेंट टसर सिल्क प्रदर्शनी का आकर्षण केंद्र बन गया है। भागलपुर की एम.ए. सिल्क खादी ग्रामोद्योग समिति की ओर से आए विक्रेता ने बताया कि वे खास तौर पर देसी टसर सिल्क से बनी साड़ियां लेकर आए हैं। इन साड़ियों की कीमत 4 हजार रुपए से शुरू होकर 8 हजार रुपए तक है। खास बात यह है कि टसर सिल्क पर उकेरी गई मिथिला और मधुबनी पेंटिंग पूरी तरह हाथ से बनाई जाती है, इसमें किसी भी तरह की मशीन का इस्तेमाल नहीं होता। विक्रेता ने बताया कि साड़ियों पर की गई एम्ब्रॉयडरी भी पूरी तरह हस्तनिर्मित है। हाथ की बारीक कारीगरी और पारंपरिक मिथिला डिजाइन इन साड़ियों को खास बनाती है। अधिकतर उत्पाद उनका खुद का उत्पादन है, जिसमें बिहार की संस्कृति और परंपरा की झलक साफ दिखाई देती है। उन्होंने बताया कि टसर सिल्क की सबसे बड़ी खासियत यह है कि गांवों की महिलाएं बहुत बारीकी से टसर के धागे को तैयार करती हैं। एक-एक रेशे से धागा निकालकर कपड़ा बनाया जाता है। देसी टसर सिल्क न सिर्फ भारत में बल्कि विदेशों में भी काफी लोकप्रिय है और इसकी मांग लगातार बढ़ रही है। साड़ियों पर बनी मिथिला और मधुबनी पेंटिंग बिहार की सांस्कृतिक विरासत को दर्शाती है। विक्रेता ने कहा कि मिथिला पेंटिंग बिहार का गौरव है और लोगों को यह न सिर्फ देखने में पसंद आती है, बल्कि पहनने में भी खास लगती है। उन्होंने यह भी बताया कि टसर सिल्क का उत्पादन पूरी तरह ऑर्गेनिक प्रक्रिया से होता है, इसमें किसी भी तरह के केमिकल का इस्तेमाल नहीं किया जाता। अंत में उन्होंने मेरठ के लोगों से अपील की कि वे प्रदर्शनी में आकर देश के ग्रामोद्योग उत्पादों को देखें, समझें और इन्हें अपनाकर स्वदेशी को बढ़ावा दें। क्यों कहलाता है टसर सिल्क ‘नॉन-वायलेंट सिल्क’? आमतौर पर सिल्क का धागा निकालने के लिए सिल्क के कीड़ों को कोकून के अंदर ही मार दिया जाता है। लेकिन टसर सिल्क इस प्रक्रिया से अलग है। इसमें कीड़े को नुकसान नहीं पहुंचाया जाता। कोकून से कीड़ा निकलने के बाद बचे हुए धागे को इकट्ठा कर सिल्क तैयार किया जाता है, इसलिए इसे नॉन-वायलेंट सिल्क कहा जाता है।
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