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भारतीय ज्ञान परंपरा को आंदोलन बनाना होगा:अयोध्या में प्रोफेसर रविशंकर बोले- युवाओं तक पहुंचते ही वुड-मैकाले की सोच पराजित होगी

भारतीय ज्ञान परंपरा को शिक्षण से जोड़ने की प्रक्रिया को एक आंदोलन के रूप में अपनाने की आवश्यकता है। जब यह ज्ञान युवाओं और विद्यार्थियों तक पहुंचेगा, तो उनके शोध, अध्ययन और पठन-पाठन में स्वतः मुखर होकर चार्ल्स वुड, डी.वी. मैकाले और वामपंथी षड्यंत्रों की सोच को पराजित कर देगा। यह बात मां पाटेश्वरी विश्वविद्यालय, बलरामपुर के कुलपति डॉ. रविशंकर सिंह ने कही। वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समविचारी संगठन समग्र चिंतन (प्रज्ञा प्रवाह) और साकेत महाविद्यालय, अयोध्या के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित “भारतीय ज्ञान परंपरा: एक अनुशीलन” विषयक संगोष्ठी एवं प्रांतीय अभ्यास वर्ग के उद्घाटन सत्र को संबोधित कर रहे थे। डॉ. रविशंकर सिंह बोले- भारतीय ज्ञान परंपरा को निरस्त करने की प्रवृत्ति खतरनाक
मुख्य वक्ता के रूप में डॉ. रविशंकर सिंह ने कहा कि अज्ञानता और नासमझी के आधार पर भारतीय ज्ञान परंपरा को नकारने की प्रवृत्ति यदि जारी रही तो हम बहुत पीछे रह जाएंगे। उन्होंने कहा कि विदेशों में जहां आधुनिक ज्ञान-विज्ञान पर शोध हुआ है, वहां अब चरक और सुश्रुत की प्रतिमाएं स्थापित की जा रही हैं। उन्होंने बताया कि ऋग्वेद के दसवें मंडल के 129वें सूक्त में ब्रह्मांड की उत्पत्ति के सिद्धांत और रहस्य वर्णित हैं। इसी प्रकार गणित में लीलावती, आर्यभट्ट और न्यूटन के सिद्धांतों के तुलनात्मक अध्ययन को हम अपने शिक्षण में क्यों शामिल नहीं कर सकते। डॉ. सिंह ने कहा कि भारतीय ज्ञान परंपरा पर वर्तमान में चीन सबसे अधिक कार्य कर रहा है। ऐसे में राष्ट्रीय शिक्षा नीति–2020 के अंतर्गत पाठ्यक्रम में दिए गए सुझावों का तुलनात्मक अध्ययन कर यह समझा जा सकता है कि भारतीय ज्ञान परंपरा को शिक्षण, शोध और अध्ययन का हिस्सा कैसे बनाया जाए। शोध और आविष्कार भारतीय परंपरा का हिस्सा
संगोष्ठी के मुख्य वक्ता प्रज्ञा प्रवाह के शोध आयाम प्रमुख और लखनऊ विश्वविद्यालय के भौतिक विज्ञान विभाग के सह-आचार्य डॉ. पुनीत कुमार ने कहा कि शोध और आविष्कार भारतीय सभ्यता की प्राचीन परंपरा रहे हैं। इसके प्रमाण हड़प्पा और मोहनजोदाड़ो सभ्यताओं में स्पष्ट रूप से मिलते हैं। उन्होंने कहा कि भारतीय शोध परंपरा में वस्तुओं का सूक्ष्म निरीक्षण कर विचारों का संश्लेषण किया जाता रहा है और निष्कर्षों को समाजोपयोगी स्वरूप में प्रस्तुत किया जाता था। इसी कारण भारत में शोध और लेखन को अलग नहीं माना गया। डॉ. कुमार ने इस धारणा को खारिज किया कि भारतीय ज्ञान परंपरा गोपनीय थी। उन्होंने कहा कि गार्गी संवाद जैसे उदाहरण इस बात के प्रमाण हैं कि यह ज्ञान सबके लिए सुलभ था। उन्होंने भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय द्वारा भारतीय ज्ञान एवं शोध परंपरा के लिए उपलब्ध कराई जा रही सुविधाओं की भी विस्तार से जानकारी दी। संगठन के माध्यम से जन-जन तक ज्ञान परंपरा पहुंचाने की जरूरत प्रज्ञा प्रवाह के उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड क्षेत्र के संयोजक भगवती प्रसाद राघव ने संगठन के माध्यम से भारतीय ज्ञान परंपरा को जनसामान्य तक पहुंचाने और उसे शिक्षण का अभिन्न अंग बनाने की कार्ययोजना पर प्रकाश डाला। वहीं, अवध प्रांत संयोजक प्रदीप कुमार सिंह ने संगठन के विस्तार और कार्य-व्यवहार की जानकारी दी। कार्यक्रम की अध्यक्षता साकेत महाविद्यालय के प्राचार्य प्रो. दानपति तिवारी ने की। कार्यक्रम के संयोजक मनोविज्ञान विभागाध्यक्ष प्रो. प्रणय कुमार त्रिपाठी ने भी अपने विचार रखे। संचालन प्रो. कविता सिंह ने किया। सांस्कृतिक प्रस्तुति और उपस्थिति कार्यक्रम की शुरुआत अतिथियों के स्वागत गीत, दीप प्रज्वलन और सरस्वती वंदना से हुई, जिसे महाविद्यालय की छात्राएं अदिति, सलोनी, अंशिका, सुमन, नेहा और नंदिनी ने प्रस्तुत किया। इस अवसर पर साकेत महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य एवं विश्व हिंदू परिषद के महानगर अध्यक्ष प्रो. अभय कुमार सिंह, मनूचा गर्ल्स डिग्री कॉलेज की प्राचार्य प्रो. मंजूषा मिश्रा, मुख्य अनुशासक प्रो. ब्रजेश कुमार सिंह, प्रज्ञा प्रवाह के प्रांत सह संयोजक डॉ. संतोष त्रिपाठी, डॉ. संतोष कुमार सिंह, डॉ. कीर्ति सिंह, मनोज कुमार तिवारी, अधिवक्ता अजय कुमार सिंह, चिकित्सक डॉ. अरुण कुमार त्रिपाठी सहित बड़ी संख्या में शिक्षाविद्, बुद्धिजीवी, संगठन प्रतिनिधि और महाविद्यालय परिवार के सदस्य उपस्थित रहे।


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