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जिसके नाम से कांपते थे यूपी के डॉक्टर:अमित वर्मा की दहशत से क्लिनिकों पर पड़े ताले; कैसे मारा गया मासूम चेहरे वाला माफिया

2000 के आसपास का पूर्वांचल। श्रीप्रकाश शुक्ला की मौत से पैदा हुए पावर वैक्यूम ने अमित मोहन वर्मा को खड़ा किया था। पूर्वांचल के डॉक्टरों में इस नाम की इतनी दहशत थी कि शाम ढलने के बाद वे घर से निकलने में कतराते थे। आलम ये था कि अस्पताल और क्लिनिक जल्दी बंद होने लगे। अमित के अपराध का पूरा कारोबार रंगदारी यानी जबरन वसूली पर चलता था, लेकिन तरीका काफी अलग था। इसे पकड़ना इसलिए चुनौती थी क्योंकि सारा काम यानी धमकी से लेकर वसूली तक इसके ‘लड़के’ करते थे। 20-22 साल के गैंग मेंबर जो खबर भी देते और ट्रिगर भी दबाते थे। आज ‘एनकाउंटर’ में कहानी कुख्यात गैंगस्टर अमित मोहन वर्मा की। जिसका मानना था, डॉक्टर बोरियों में पैसा कमाते हैं और रंगदारी के लिए परफेक्ट और आसान टारगेट हैं। वजह, इनके साथ कोई सिक्योरिटी नहीं रहती… किस्सा 1: मरीज बनकर हास्पिटल में घुसा, रंगदारी वसूली छात्रसंघ चौराहे पर राज हॉस्पिटल का ओपीडी हमेशा की तरह भरा हुआ था। आई स्पेशलिस्ट डॉ. अनिल श्रीवास्तव केबिन में मरीज देख रहे थे। दवाइयों की गंध की वजह से कमरे में अजीब सा भारीपन था। तभी एक दुबला-पतला लड़का धीरे से अंदर आया। डॉ. अनिल ने सहजता से पूछा- “हां, क्या परेशानी है?” लड़का कुर्सी पर बैठा और जानबूझकर आवाज भारी करके बोला- “अमित मोहन वर्मा का नाम सुने हो डाक्टर…” डॉ. अनिल ने चश्मा थोड़ा ऊपर किया- “कौन… नहीं… नहीं सुना।” लड़का, डॉक्टर के थोड़ा नजदीक आकर बोला- “तो अब सुन लो। चुपचाप 40 हजार पहुंचा दो… नहीं तो जान से जाओगे।” डॉ. अनिल का गला सूख गया। लड़का खड़ा हुआ और बिना किसी हड़बड़ाहट के दरवाजे की ओर बढ़ा। फिर रुककर पीछे मुड़े बिना बोला- “तीन दिन में इंतजाम कर लेना। हमें पता है तुम्हारा घर, तुम्हारी क्लिनिक… सब कुछ।” उसी शाम डॉ. अनिल अपने घर में सोफे पर बैठे टीवी देख रहे थे, तभी फोन की घंटी बजी। कांपते हाथ से उन्होंने रिसीवर उठाया। “हैलो…” दूसरी तरफ से एक भारी आवाज आई- “अमित मोहन वर्मा बोल रहे हैं। सुना है डाक्टर लोगों की जान बचाता है, लेकिन गोरखपुर में डाक्टरों की जान सिर्फ हम बचा सकते हैं।” डॉ. अनिल को क्लिनिक का वो लड़का याद आया। उन्होंने हकलाते हुए पूछा- “तुम… तुम चाहते क्या हो?” उधर से आवाज आई- “बादाम खाया करो डाक्टर, इतनी जल्दी भूल गए… 40 हजार…” अचानक कॉल कट गया। कमरे में सन्नाटा था। डॉ. अनिल सोफे का हत्था कसकर पकड़े थे। माथे पर पसीना था। काफी देर तक ऐसे ही बैठे सोचते रहे। “पुलिस के पास जाएं या नहीं? किसी को बताएं या नहीं?” 3 दिन बाद, रात 10:30 बजे हॉस्पिटल के बाहर सुनसान कैंट रोड पर एक बाइक रुकी। हेलमेट पहने एक लड़का अंदर आया और सीधे डॉ. अनिल के सामने आकर खड़ा हो गया। “पैसे…” डॉक्टर ने एक पॉलिथीन उसकी ओर बढ़ाई। फिर धीमी आवाज में कहा- “पैसे पूरे हैं, प्लीज अब परेशान मत कीजिएगा।” लड़का मुस्कुराया- “अगर किसी को बताया, इस्पेसली पुलिस को तो जान से जाओगे।” इतना कहकर लड़का बाहर निकला, बाइक स्टार्ट की और अंधेरे में गुम हो गई। किस्सा 2: घर के बाहर चाइल्ड स्पेशलिस्ट को मारी गोली 14 मार्च 2004, शाम का वक्त सूरजकुंड इलाके में चाइल्ड स्पेशलिस्ट डॉ. जेपी सिंह की क्लिनिक। चैंबर में फोन की घंटी बजी। डॉ. सिंह ने फोन उठाया- “डाक् साब, काम तो दस लाख का है, लेकिन आपके लिए सिर्फ एक लाख… इतने में सब ठीक हो जाएगा।” डॉ. सिंह को कुछ समझ नहीं आया। उन्होंने हैरानी से पूछा- “किस काम के पैसे, क्या ठीक हो जाएगा?” उधर से हंसी की आवाज आई। “सुरक्षित रहना है तो खर्चा तो करना पड़ेगा डाक् साब।” डॉक्टर समझ गए कि फोन पर कौन है। सख्त आवाज में कहा- “मेरी मेहनत का पैसा है। किसी मवाली को नहीं दूंगा। फोन रखो।” उधर से आवाज आई- “सोच लीजिए… एक लाख, अंजाम अच्छा नहीं होगा।” डॉ. सिंह ने तेज आवाज में कहा- “फोन रखो…” फोन कट गया, दूसरी तरफ अमित मोहन वर्मा था। ऐसे बेखौफ अंदाज में रंगदारी के लिए मना किए जाने से चिढ़ गया था। सिगरेट सुलगाते हुए बोला- “बहुत अकड़ है डाक्टर में…। पता करो कहां आता-जाता है, कब लौटता है।” एक लड़का बोला- “मंगलवार को हनुमान मंदिर जरूर जाता है। उस दिन घर भी जल्दी लौटता है।” अमित ने मेज पर हाथ मारा। “उसी दिन काम कर दो।” 16 मार्च 2004, मंगलवार की शाम डॉ. जेपी सिंह मंदिर में प्रसाद चढ़ाकर लौट रहे थे। गली-मोहल्लों में क्रिकेट कमेंट्री की आवाजें आ रही थीं। भारत-पाकिस्तान मैच में टीम इंडिया जीत रही थी। लेकिन शहर में एक और खेल होना था, जिसकी पिच खून से रंगने वाली थी। डॉ. सिंह की कार घर में अंदर जाने के लिए मुड़ी। तभी हेडलाइट की रोशनी में तीन लोग सामने खड़े नजर आए। एक आदमी मोटरसाइकिल पर बैठा था। दूसरा गेट के नजदीक खड़ा था। तीसरा चादर लपेटे था। डॉ. सिंह ने गाड़ी रोकी तभी एक आदमी खिड़की के पास आकर बोला- “डाक् साब, जरा एक बार देख लीजिए, बच्चा बहुत बीमार है।” डॉक्टर ने हैंडब्रेक लगाते हुए कहा- “क्लिनिक आओ। घर में चेकअप कैसे होगा?” आदमी कागज का एक टुकड़ा आगे बढ़ाकर बोला- “आपने ही आज का समय दिया था। देख लीजिए, बहुत तकलीफ में है बच्चा।” डॉक्टर ने हैरानी के साथ पर्ची देखी- “कौन सा बच्चा? नाम तो बताइए…” इसी समय चादर लपेटे तीसरे आदमी ने बाइक वाले से कहा- “तैयार रहना। एक झटके में निकलना है।” बाइक वाला फुसफुसाया- “जल्दी करो… सड़क एकदम खाली है।” कार के पास खड़ा आदमी फिर बोला- “साब, जल्दी देख लीजिए। बच्चा बहुत रो रहा है।” डॉक्टर ने ध्यान से पर्ची देखी और बोले- “ये मेरी पर्ची नहीं लग…” वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था कि तीसरे आदमी ने खिड़की वाले आदमी को धक्का दिया और पिस्टल तान दी। डॉ. सिंह कुछ समझते इससे पहले ही- ताड़, ताड़, ताड़… गोलियों की आवाज ऊपर कमरे तक सुनाई दी। डॉ. सिंह का बेटा इशांत क्रिकेट मैच देख रहा था, बोला- इंडिया के जीतने से पहले ही पटाखे फूटने लगे। तभी डॉ. सिंह की पत्नी रेखा ने आवाज दी- “इशांत, जरा नीचे देखो। शायद तुम्हारे पापा आ गए हैं।” इशांत टीवी से नजर हटाए बिना बोला- “अभी आते होंगे मां। मैच भी तो चल रहा है…” दो-चार मिनट गुजर गए। रेखा ने बेचैनी से कहा- “मैं नीचे देखकर आती हूं।” सीढ़ियां उतरकर देखा, कार खड़ी थी। रेखा पास गईं और कार का दरवाजा खोला। दरवाजा खुलते ही डॉ. सिंह की लाश उनके ऊपर लुढ़क गई। रेखा चीख उठीं- “हे भगवान… ये क्या हो गया।” चीख अंधेरी गली को चीरकर पूरे मोहल्ले में फैल गई। इशांत दौड़ता हुआ ऊपर से आया। मोहल्ले के लोग जुटने लगे। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि अचानक क्या हो गया। डॉ. सिंह को तुरंत उनके ही क्लिनिक ले जाया गया। खून काफी बह चुका था। डॉ. सिंह के एक साथी डॉक्टर ने धीमी आवाज में कहा- “डॉक्टर सिंह नहीं रहे।” किस्सा 3: डॉक्टर की हिम्मत से धरा गया अमित जून, 2004 डॉ. आलोकेश बागची, गोरखपुर के फेमस सर्जन। उम्र करीब 50 साल, दाढ़ी और बाल सफेद हो चले थे लेकिन चाल-ढाल में वही पुराना गुरूर। क्लिनिक से लौटने के बाद घर में बैठे किताब पढ़ रहे थे तभी फोन बजा। दूसरी तरफ से आवाज आई- “20 लाख पहुंचा दो। ज्यादा अकड़ दिखाओगे तो अखबार में छपोगे।” बागची ने हंसते हुए कहा- “ट्रेनिंग लेकर आओ बेटा, आवाज कांप रही है तुम्हारी।” और फोन काट दिया। अगले दिन क्लिनिक में फोन आया। घंटी बजती रही लेकिन बागची ने फोन नहीं उठाया। शाम करीब साढ़े सात बजे एक लड़का डॉ. बागची के कैबिन में घुसा और हाथ बांधकर खड़ा हो गया। मूंछें रुआब से तनी थीं लेकिन चेहरा मरीज जैसा। डॉ. बागची ने पूछा- “क्या बात है?” लड़का वहीं से बोला- “फोन क्यों नहीं उठा रहे? याद रखना, तुम्हारा भी जेपी सिंह वाला हाल होगा।” डॉ. बागची धीरे से खड़े हुए और लड़के के पास जाकर बोले- “किसी की मौत का नाम लेकर मुझे डराओगे? तुम लोगों को लगता है हर आदमी डरकर पैसे दे देगा? मैं उन लोगों में से नहीं हूं।” लड़के ने दांत पीसकर कहा- “फिर सोच लो। अंजाम बहुत बुरा होगा।” डॉ. बागची उसकी आंख में आंख डालकर देखते रहे। लड़का बाहर निकल गया। उन्होंने अपना डर जाहिर नहीं होने दिया लेकिन बात हद से ज्यादा बढ़ चुकी थी। उसी शाम वे SSP ऑफिस पहुंचे। SSP बीबी बक्शी को पूरा किस्सा सुनाया। फिर बोले- “बक्शी साब, एक बात साफ कर दूं। मैं किसी अमित मोहन वर्मा से नहीं डरता। मैंने जिंदगीभर ऑपरेशन थिएटर में मौत की आंखों में झांका है। कोई मवाली मुझे धमकाए, ऐसा न हीं होगा। अब बताइए,मैं क्या करूं?” SSP बक्शी ने मेज पर दोनों हाथ रखे और थोड़ा सा आगे झुककर बोले- “डॉक्टर साब, पहली बार किसी ने हिम्मत दिखाकर अमित के खिलाफ शिकायत दी है। इसे ढूढ़ने में देर नहीं लगेगी।” सिपाही की पिस्टल छीनी, मुठभेड़ में मारा गया SSP बक्शी ने प्लानिंग शुरू कर दी। स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप (SOG) की तीन-चार टीमें बनाई गईं। यूपी, बिहार, नेपाल जहां भी वर्मा की लोकेशन मिलती, पुलिस दबिश डालने में देर नहीं करती। पुलिस लाइन का कंट्रोल रूम रात-दिन बिजी रहता। “कॉल ट्रेसिंग शुरू करो”, “नेटवर्क स्कैनिंग ऑन रखो”, “रात में रेड होगी, पूरी तैयारी रखो” हर रात पुलिस की लाल-नीली बत्तियां चमकतीं। कभी गांव-कभी शहर… अमित मोहन का सुराग जरूर मिलता, लेकिन वो हाथ नहीं आ रहा था। 7 मई 2004 SOG के एक मुखबिर ने खबर दी। “साब… अमित और रामायण उपाध्याय इलाहाबाद में हैं। कल यूनिवर्सिटी के पास दिखे थे।” खबर मिलते ही SSP ऑफिस में हलचल शुरू हो गई। आधे घंटे के अंदर गोरखपुर पुलिस और SOG की तीन गाड़ियां एक साथ रवाना हुईं। ओपी तिवारी, नागेश मिश्रा और शिवपूजन यादव को एक-एक टीम का जिम्मा मिला। इलाहाबाद (अब प्रयागराज) पहुंचने तक शाम हो चुकी थी। खबर थी कि अमित मोहन वर्मा अपने लड़कों से कॉन्टैक्ट करने लिए PCO आता है लेकिन समय और PCO बूथ बदलता रहता है। इलाहाबाद पुलिस की मदद ली गई। शहर के हर बूथ पर अमित की फोटो के साथ खबरी तैनात कर दिया गया। रात करीब 10 बजे इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से पास वाले PCO पर दो लोग नजर आए। एक लंबा आदमी फोन पर बात करने लगा और दूसरा बाहर खड़ा इधर-उधर देख रहा था। खबरी ने अपना काम कर दिया, लेकिन पुलिस पहुंचती इससे पहले दोनों वहां से निकल गए। पुलिस पहुंची तो मुखबिर ने बताया कि 2 मिनट पहले ही निकले हैं। पुलिसवाले सादी वर्दी में थे, इसलिए तेज कदमों से पैदल ही चल दिए। कुछ दूर चलकर एक चाय की दुकान पर दोनों नजर आए। SOG टीम आसपास फैल गई। सभी ने पोजिशन ले ली। दारोगा ओपी तिवारी ने इशारा किया, चार-पांच पुलिसवाले दोनों के करीब पहुंचे। कोई कुछ समझ पाता, इससे पहले SOG टीम ने पिस्टल निकाल लीं। अमित मोहन और रामायण उपाध्याय पकड़े गए, लेकिन कहानी यहां खत्म नहीं हुई। SOG टीम जल्द से जल्द दोनों को लेकर गोरखपुर पहुंचना चाहती थे। फिर भी कानूनी लिखा-पढ़ी में रात के 1 बज गए। दारोगा नागेश मिश्रा ने कहा- “अब क्या आराम कीजिएगा, 1 तो बज ही गए हैं। गोरखपुर ही निकला जाए।” गोरखपुर पहुंचते-पहुंचते 7 बज चुके थे। नॉर्मल ग्राउंड के पास पुलिस की जीप रुकी। सभी की आंख में रात भर की थकान दिख रही थी। लेकिन अमित और रामायण के दिमाग में खुराफात चल रही थी। जीप रुकते ही अमित ने धीमी आवाज में कहा- “साब, बाथरूम जाना है।” ओपी तिवारी ने कहा- “जो कुछ करना है थाने चलकर करना, अभी कुछ नहीं।” रामायण बोल पड़ा- “साब बहुत लंबा रस्ता था, बहुत तेज लगी है।” तिवारी ने सिपाहियों की तरफ इशारा किया। अमित और रामायण नीचे उतरे। सिपाही उन्हें पकड़कर टॉयलेट की तरफ लेकर जाने लगे। कुछ दूर चलकर अमित दौड़ पड़ा। सिपाही चिल्लाया- “ए… भाग रहा है।” रामायण ने एक सिपाही की कमर से पिस्टल खींच ली और गोली चला दी। पुलिस और SOG की टीम चारों तरफ फैल गई। हड़बड़ी में अमित और रामायण नॉर्मल ग्राउंड के भीतर घुस गए। दारोगा शिवपूजन यादव ने लाउड स्पीकर पर कहा- “कोशिश बेकार है, तुम दोनों घिर चुके हो। हथियार डाल दो।” लेकिन रामायण ने फिर गोली चला दी। दोनों एक दीवार के पीछे छिपे हुए थे। तिवारी ने चिल्लाकर कहा- “आखिरी बार कह रहा हूं, हथियार नीचे रखो।” अमित हंसा- “हम ऐसे नहीं मरेंगे।” रामायण ने दो गोलियां फिर दाग दीं। SOG ने कवर पकड़ लिया और फिर जवाबी गोलियां चलने लगीं। कुछ ही मिनटों के बाद में दोनों तरफ से फायरिंग रुक गई। मिट्टी खून से लाल हो चुकी थी। सालों का खौफ नॉर्मल ग्राउंड में निढाल पड़ा था। अगली सुबह प्रदेश के सभी बड़े अखबारों की हेडलाइन बनी- “गैंगस्टर अमित मोहन और रामायण ढेर” *** स्टोरी एडिट- कृष्ण गोपाल *** रेफरेंस जर्नलिस्ट- आनंद राय, एसपी सिंह | डॉ इशांत सिंह (डॉ जेपी सिंह के बेटे), डॉ आलोकेश बागची (विक्टिम) भास्कर टीम ने पुलिस, पीड़ितों और जानकारों से बात करने के बाद सभी कड़ियों को जोड़कर ये स्टोरी लिखी है। फिर भी घटनाओं के क्रम में कुछ अंतर हो सकता है। कहानी को रोचक बनाने के लिए क्रिएटिव लिबर्टी ली गई है। ———————————————————– ‘एनकाउंटर’ की ये स्टोरी भी पढ़ें… कालिया के इशारे पर पहली बार लखनऊ में चली AK-47; पूर्व मंत्री को घर में घुसकर मारा, रमेश यादव कैसे बना ‘लखनऊ का बाप’ 90 का दशक था। लखनऊ का बाघामऊ गांव (चिनहट के पास) बारूद की तरह सुलग रहा था। वर्चस्व की लड़ाई में गांव दो हिस्सों में बंट चुका था। एक तरफ थे अयोध्या प्रसाद यादव और दूसरी तरफ रघुनाथ यादव। एक शाम, अयोध्या प्रसाद घर लौट रहे थे। तभी खेत में छिपे कुछ लोग निकले। धांय… धांय… धांय… पूरी स्टोरी पढ़ें… लखनऊ में बाहुबली को बीच सड़क 126 गोलियां मारीं, जान बचाने के लिए पुलिसवालों को जनेऊ की दुहाई दे रहा था श्रीप्रकाश लखनऊ के पॉश इलाकों में से एक इंदिरानगर। शांत और साफ-सुथरी सड़कें। स्प्रिंगडेल स्कूल के आसपास काफी चहल-पहल थी। तभी ठांय… ठांय… ठां…ठां…ठां… अचानक कान फोड़ देने वाली आवाज आने लगी। लगा जैसे किसी ने पटाखे की लड़ी चला दी हो, लेकिन आवाज पटाखों की नहीं, गोलियों की थी। पूरी स्टोरी पढ़ें…


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