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खेती करने वाले कुर्मी समाज के किंगमेकर बनने की कहानी:यूपी की सियासत में क्यों हर दल के लिए जरूरी बन गया कुर्मी वोटबैंक

उत्तर प्रदेश की सियासत में कुर्मी, यादवों के बाद OBC की दूसरी सबसे बड़ी जाति है। यही कुर्मी समाज अब भाजपा की नई रणनीति का केंद्र बनी है। केंद्रीय मंत्री पंकज चौधरी को यूपी भाजपा अध्यक्ष बनाकर पार्टी ने कुर्मी कार्ड खेला, जो 2027 विधानसभा चुनाव से पहले बड़ा संदेश है। सपा में भी अलग-अलग जिलों में कुर्मी जाति के कई क्षेत्रीय नेता सक्रिय हैं। इन नेताओं के इलाके की पूरी राजनीति इनके इर्द-गिर्द ही सिमटी है। यूपी की सियासत में महत्वपूर्ण रोल अदा कर रहे कुर्मी समाज का इतिहास क्या है? यूपी की राजनीति में उनका महत्व क्या है? राजनीति में कुर्मी जाति के कौन बड़े चेहरे सक्रिय हैं? कुर्मी जाति की दूसरी जातियों से किस तरह के सियासी संबंध हैं? पढ़िए सिलसिलेवार… सबसे पहले कुर्मी समाज का इतिहास कुर्मी उत्तर भारत में पूर्वी गंगा के मैदान की एक किसान जाति है। लव-कुश को ये अपना पूर्वज मानते हैं। जोगेंद्र नाथ भट्टाचार्य की 1896 में लिखी किताब ‘हिंदू जातियां और संप्रदाय’ के अनुसार, कुर्मी शब्द एक भारतीय जनजातीय भाषा से लिया गया है। यह संस्कृत यौगिक शब्द ‘कृषि कर्मी’ से मिलकर बना है। जर्मन विद्वान गुस्ताव सॉलोमन ओपर्ट (1893) का एक सिद्धांत मानता है कि यह कोमी से बना शब्द है, जिसका अर्थ है ‘हल चलाने वाला’। 18वीं शताब्दी के रिकॉर्ड बताते हैं कि पश्चिमी बिहार के अंदर कुर्मियों ने तत्कालीन उज्जैनिया राजपूतों के साथ गठबंधन किया था। 1712 में मुगलों के खिलाफ विद्रोह करने पर कुर्मी समुदाय के कई नेताओं ने उज्जैनिया राजा कुंवर धीर के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ाई लड़ी थी। उनके विद्रोह में शामिल होने वाले कुर्मी समुदाय के नेताओं में नीमा सीमा रावत और ढाका रावत शामिल थे। यही कारण है कि कुर्मी खुद के क्षत्रीय होने का भी दावा करते रहे हैं। महाराष्ट्र में इन्हें कुनबी और गुजरात में पटेल, पाटीदार कहा जाता है। डेन्जिल इब्बेट्सन और ईएएच ब्लंट जैसे इतिहासकार कहते हैं- 18वीं शताब्दी में पश्चिमी और उत्तरी अवध में कुर्मियों को मुस्लिमों से काफी सस्ते दर पर जंगल साफ करके कृषि योग्य जमीन बनाने का काम मिलता था। जब जमीन में अच्छे से पैदावार होने लगती थी, तब उस जमीन का किराया 30% से 80% बढ़ा दिया जाता था। ब्रिटिश इतिहासकारों के हिसाब से जमीन के किराया बढ़ाए जाने का मुख्य कारण यह था कि गांव की ऊंची जातियों को हल चलाना पसंद नहीं था। ब्रिटिश इतिहासकारों का यह भी मानना है कि कुर्मियों की अधिक फसल पैदावार का कारण यह था कि उनकी खाद डालने की प्रक्रिया बाकी से बेहतर थी। ब्रिटिश काल में उन्हें आदिवासी के रूप में वर्गीकृत किया गया था। लेकिन, स्वतंत्रता के बाद 1950 में सामान्य जाति में रखा गया, जिससे आदिवासी लाभों से वंचित हो गए। बाद में उन्हें OBC का दर्जा मिला, जो शिक्षा, नौकरी और विकास योजनाओं में आरक्षण देता है। कुर्मियों की पिछड़ी जातियों में व्यावहारिक रूप से वही स्थिति है, जो ऊंची जातियों में ब्राह्मणों की है। आज कुर्मी राजनीति, नौकरशाही, शिक्षा ओर नौकरी में आगे हैं। यूपी की राजनीति में कुर्मियों का इतना महत्व क्यों
देश में 1931 के बाद जाति-आधारित जनगणना नहीं हुई। इसीलिए कुर्मी जाति की आबादी के आंकड़े अनुमानित हैं। 2001 में यूपी सरकार की बनाई हुकुम सिंह कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार, कुर्मी (और पटेल) की आबादी राज्य की कुल जनसंख्या का लगभग 7.4% है। यह रिपोर्ट ग्रामीण परिवार रजिस्टरों पर आधारित थी। इसमें OBC की कुल आबादी 50% से अधिक बताई गई थी। 2011 जनगणना में यूपी की कुल आबादी करीब 20 करोड़ थी। 2025 की अनुमानित आबादी करीब 25 करोड़ है। इस हिसाब से प्रदेश में कुर्मी की आबादी करीब 1.75 से 2 करोड़ के बीच होगी। ओबीसी में यादवों के बाद कुर्मी की सबसे ज्यादा आबादी है। यही वजह है कि राजनीतिक दल इस वोटबैंक को साधना चाहते हैं। अगर मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य की बात करें, तो प्रदेश के 403 विधायकों में कुर्मी/पटेल की संख्या 40 है। इसमें भाजपा से 27, सपा से 12 और कांग्रेस से 1 विधायक हैं। 100 एमएलसी में 5 कुर्मी समाज से हैं। यूपी की 80 लोकसभा सीटों में भी 11 सांसद कुर्मी समाज से हैं। इसमें सपा से 7, भाजपा के 3 और अपना दल (एस) की अनुप्रिया पटेल सांसद हैं। विधायकों में ब्राह्मण के बाद सबसे अधिक कुर्मी विधायक हैं। जबकि सांसदों में ब्राह्मणों के बराबर इनकी संख्या है। प्रदेश में पूर्वांचल, अवध, मध्य यूपी और बुंदेलखंड में 128 सीटों पर कुर्मी वोटर प्रभावी भूमिका रखते हैं। हालांकि 48-50 सीटों पर वे निर्णायक असर रखते हैं। इसी तरह लोकसभा की 27 सीटों पर उनका प्रभाव है। लेकिन, 11 सीटों पर जीत-हार तय करते हैं। समाज के प्रमुख और प्रबुद्ध चेहरे ये हैं समाज के प्रमुख नेता
रामस्वरूप वर्मा, जयराम वर्मा, भानुप्रताप सिंह (लखीमपुर खीरी), बेनीप्रसाद वर्मा (बाराबंकी), नरेंद्र सिंह सचान (कानपुर देहात), रामकुमार वर्मा (लखीमपुर खीरी), रामपूजन पटेल (प्रयागराज), बालगोविंद वर्मा (लखीमपुर खीरी), तेज बहादुर गंगवार (बरेली), कुंवर मोहन स्वरूप (पीलीभीत), राम आसरे वर्मा (हरदोई), बरखू राम वर्मा (आजमगढ़), रामलखन वर्मा (अंबेडकर नगर) और चेतराम गंगवार (बरेली)। यूपी की सियासत में कुर्मी समाज के कौन बड़े चेहरे सक्रिय
यूपी की राजनीति में कुर्मी ‘किंग मेकर’ की भूमिका निभाते हैं। लेकिन यादवों (सपा) या जाटवों (BSP) की तरह किसी एक पार्टी से बंधे नहीं हैं। पार्टियां उन्हें गैर-यादव OBC के रूप में प्रमोट करती हैं। भाजपा ने पंकज चौधरी को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर सियासी कसौटी पर कुर्मी राजनीति के नए अध्याय की शुरुआत की है। 2024 से पहले भाजपा के सामने ‌‌विपक्ष के पास कुर्मी बिरादरी में मुकाबला करने के लिए कोई मजबूत चेहरे नहीं थे। लेकिन, अब पंकज चौधरी के सामने सपा में कुर्मी बिरादरी से ही मुकाबला करने के लिए अलग-अलग क्षेत्रों में कई बड़े चेहरे हैं। सपा ने 2022 के विधानसभा चुनाव में झटका खाने के बाद लोकसभा 2024 में रणनीति बदली और यादव-मुस्लिम के साथ ही कुर्मी समाज के नेताओं पर दांव लगाया। 2022 में सपा ने नरेश उत्तम पटेल को पार्टी का अध्यक्ष बनाया। वे कुर्मियों के गढ़ फतेहपुर से आते हैं। वर्तमान में यहीं से सांसद भी हैं। बस्ती से दिग्गज कुर्मी नेता रामप्रसाद चौधरी को उतारा। अंबेडकर नगर से पूर्व बसपाई लालजी वर्मा को टिकट दिया। श्रावस्ती से राम शिरोमणि वर्मा और लखीमपुर खीरी में उत्कर्ष वर्मा को मैदान में उतारा। वहीं, प्रतापगढ़ की कुर्मी बहुल सीट पर सपा ने डॉ. एसपी सिंह को उतारा, जो चुनाव में शिवपाल सिंह पटेल लिखने लगे। इसका परिणाम ये रहा कि सपा के 7 कुर्मी सांसद जीत गए। वहीं, भाजपा से सिर्फ फूलपुर से प्रवीण पटेल, बरेली से छत्रपाल गंगवार और महराजगंज से पंकज चौधरी ही जीत सके। पटेल समाज की राजनीति करने वाली सहयोगी अपना दल (एस) की अनुप्रिया पटेल मिर्जापुर सीट से संसद पहुंचने में सफल रहीं। लोकसभा परिणाम के बाद से ही भाजपा को अपनी रणनीति बदलनी पड़ी। अब 2027 के विधानसभा चुनाव को फतह करने के लिए उसने अपने सबसे बड़े कुर्मी चेहरे पंकज चौधरी को प्रदेश की पतवार थमा दी। 90 के दशक से यूपी की सियासत में बढ़ा कुर्मी नेताओं का प्रभुत्व
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं, यूपी में कुर्मी वोटबैंक को राजनीतिक रूप से साधने की शुरुआत 1990 में बसपा संस्थापक कांशीराम ने की थी। उन्होंने राम लखन सिंह पटेल, लालजी वर्मा, रामप्रसाद चौधरी जैसे कुर्मी नेताओं को आगे बढ़ाया। फिर सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने भी इस समाज के वोटबैंक को पहचानते हुए आगे बढ़ाया। उन्होंने पार्टी में बेनीप्रसाद वर्मा का कद काफी बढ़ाया। उन्हें बाराबंकी से निकालकर गोंडा, बहराइच, बलरामपुर, महराजगंज जैसे कुर्मी बहुल क्षेत्रों की जिम्मेदारी साैंपी। इसी तरह पार्टी ने नरेश उत्तम पटेल सहित अन्य चेहरों को भी आगे बढ़ाया। वहीं, भाजपा ने विनय कटियार और ओमप्रकाश सिंह के जरिए कुर्मियों को साधने की शुरुआती कोशिश की। उसी दौर में महज 26 साल की उम्र में महराजगंज में पंकज चौधरी को सांसद बनाया। 2014 से पहले भाजपा को कुर्मी वोट तो मिले, लेकिन ये तबका तुलनात्मक रूप से सपा-बसपा के पाले में अधिक रहा। 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले यूपी के प्रभारी बने अमित शाह ने कुर्मी वोट बैंक की ताकत को समझते हुए पहली बार अपना दल से गठबंधन किया। फिर पार्टी में सक्रिय कुर्मी नेता पंकज चौधरी, स्वतंत्र देव सिंह जैसे नेताओं को भी आगे बढ़ाया। 2019 में भाजपा ने स्वतंत्र देव सिंह को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर कुर्मी समाज को साधने का बड़ा प्रयास किया। 2022 में इसका फायदा भी मिला। तब भाजपा से सबसे अधिक कुर्मी विधायक जीत कर विधानसभा पहुंचे। 41 कुर्मी विधायकों में 27 भाजपा के हैं। 2024 में सपा से झटका खाने के बाद फिर भाजपा ने कुर्मी वोटबैंक साधने की खातिर ही पंकज को कमान सौंपी है। पार्टी के एक पदाधिकारी का दावा है कि पंकज चौधरी के जरिए वह विधानसभा 2027 से पहले प्रदेश के कई बड़े कुर्मी नेता भाजपा के पाले में कर लेगी। कुर्मी समाज के दूसरी जातियों से कैसे हैं सियासी संबंध?
कुर्मी समाज का अलग-अलग समय में अलग जातियों से सहयोग और टकराव देखा गया है। उनका राजपूत, भूमिहार, ब्राह्मण समाज से टकराव दिखता रहा। राजपूतों ने 18वीं सदी में उन्हें क्षत्रिय टाइटल लगाने से रोका था। ब्राह्मणों ने सूखे के बाद उन्हें खेती से हटा दिया था। 1935 में कुर्मी ने ओबीसी की यादव और कोइरी समाज के साथ मिलकर त्रिवेणी संघ बनाया था। हालांकि, ये संघ भी 5 साल में टूट गया। इसके बाद कुर्मी समाज ओबीसी के गैर यादव जैसे लोध, जाट, सुनार के साथ गठजोड़ करके सियासी लक्ष्य साधते रहे। छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के साथ उनका टकराव देखने को मिलता है। ———————- ये खबर भी पढ़ें- यूपी BJP अध्यक्ष का 2027 के लिए नया फॉर्मूला, योगी के पैर छुए, कहा-लड़ूंगा, अड़ूंगा यूपी भाजपा की राजनीति अब 4K और 4S के बीच होगी। प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद पंकज चौधरी रविवार को करीब 17 मिनट बोले। पंकज ने अपने पहले अध्यक्षीय भाषण में अपना राजनीतिक एजेंडा सरकार, संघ और संगठन के बीच रखा। पढ़िए रिपोर्ट…


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