90 का दशक था। लखनऊ का बाघामऊ गांव (चिनहट के पास) बारूद की तरह सुलग रहा था। वर्चस्व की लड़ाई में गांव दो हिस्सों में बंट चुका था। एक तरफ थे अयोध्या प्रसाद यादव और दूसरी तरफ रघुनाथ यादव। एक शाम, अयोध्या प्रसाद घर लौट रहे थे। तभी खेत में छिपे कुछ लोग निकले। धांय… धांय… धांय… पूरा गांव सन्न रह गया। अयोध्या प्रसाद की मौके पर ही मौत हो गई। कुछ दिन बाद रघुनाथ यादव पर फायरिंग हुई। रघुनाथ को गोली लगी, लेकिन बच गए। पुलिस ने दो लोगों को नामजद किया। इनमें से एक था- रमेश यादव। अयोध्या प्रसाद रिश्ते में इसके बाबा थे। यही वो मौका था, जब पुलिस फाइल में पहली बार इस नाम की एंट्री हुई। आने वाले वक्त में ये शख्स दहशत का दूसरा नाम बन गया। आज ‘एनकाउंटर’ के तीसरे एपिसोड में कहानी कुख्यात गैंगस्टर रमेश यादव उर्फ रमेश कालिया की। एक ऐसा अपराधी जिसकी जिंदगी और मौत किसी फिल्मी स्टोरी से कम नहीं थी और जो खुद को ‘लखनऊ का बाप’ कहता था… किस्सा 1: पहली बार लखनऊ में गूंजी AK-47 रघुनाथ यादव मामले में रमेश को जेल हुई। यहां उसकी मुलाकात गैंगस्टर सूरजपाल यादव से हुई। एक दिन सूरजपाल ने पूछा- “क्यों रे, तू किस चक्कर में अंदर आया है?” रमेश ने बिना झिझक कहा- “रघुनाथ यादव पर गोली चलाई थी।” ये नाम सुनते ही सूरजपाल चौंककर बोला- “रघुनाथ… वो तो मेरा भी दुश्मन है।” फिर क्या था, साझा नफरत ने उन्हें दोस्त बना दिया। दोनों एक साथ बैठते, बातें करते। कभी बदले की, कभी रास्तों की। हर रात, जब जेल के गलियारों में सन्नाटा होता, तब दोनों की धीमी आवाजों में साजिशें पलतीं। एक शाम, सूरजपाल ने धीरे से कहा- “एक आदमी है, श्रीप्रकाश शुक्ला” रमेश- “ये कौन है?” सूरजपाल- “पुलिस को ठेंगा दिखाकर चलता है। उससे मिलोगे तो समझ जाओगे कि खेल कैसे खेला जाता है।” उस रात दोनों ने तय कर लिया कि बाहर निकलते ही श्रीप्रकाश से मिलेंगे। श्रीप्रकाश उन दिनों पूर्वी यूपी और उससे सटे बिहार के जिलों में जाना-माना अपराधी बन चुका था। कुछ महीनों बाद दोनों जमानत पर बाहर आए तो श्रीप्रकाश से मिले। श्रीप्रकाश, रमेश की तरफ देखकर मुस्कुराया- “सुना है, एकदम सीधी गोली चलाता है।” रमेश ने जवाब दिया- “गलत आदमी पर कभी तिरछी नहीं चलती।” श्रीप्रकाश हंसा- “अच्छी बात है। ” यहीं से रमेश यादव की जिंदगी ने नया मोड़ लिया। श्रीप्रकाश शुक्ला ने सूरजपाल और रमेश यादव से डील की। टारगेट था रघुनाथ यादव का भाई, शंभू यादव। कुछ दिन बाद, लखनऊ में मल्हौर रोड। दोपहर का वक्त, सड़क पर खासी हलचल थी। पशुपालन विभाग के दफ्तर के बाहर खड़े शंभू यादव खैनी रगड़ रहे थे। शायद किसी काम से आए थे। तभी दूर से एक मोटरसाइकिल आती दिखी। दो लोग सवार थे। पीछे बैठा शख्स था श्रीप्रकाश शुक्ला, कपड़े में लिपटी कोई चीज पकड़े था। बाइक दफ्तर के पास आकर रुकी। श्रीप्रकाश ने धीरे से कपड़ा हटाया। हाथ में AK-47 थी, अगले ही पल गोलियों की बौछार हुई। शंभू यादव का शरीर छलनी हो गया। पहली बार लखनऊ की सड़कों पर AK-47 की आवाज गूंजी थी। हाथ भले ही श्रीप्रकाश के थे लेकिन बंदूक की नली चीख-चीखकर रमेश यादव का नाम ले रही थी। पुलिस ने जब केस दर्ज किया तो रिकॉर्ड में नाम आया- ‘रमेश यादव उर्फ रमेश कालिया।’ ये उपनाम ‘कालिया’ पुलिस की देन था। इसकी वजह रमेश का गहरा काला रंग था। जेल से निकलने के बाद रमेश कालिया, सूरजपाल के साथ मिलकर पुलिस को खुली चुनौती दे रहा था। रायबरेली, बाराबंकी, सुल्तानपुर समेत लखनऊ के आसपास के अन्य जिलों में उसने कई वारदातें कीं। धीरे-धीरे रमेश कालिया डर का दूसरा नाम बन चुका था। किस्सा 2: “चाचाजी नमस्ते…” और फिर चली गोलियां साल 1995, यूपी की राजनीतिक गलियारों में काफी उठा-पटक चल रही थी। गेस्ट हाउस कांड के बाद समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का गठबंधन टूट चुका था। मुख्यमंत्री की कुर्सी खाली थी। राज्यपाल मोतीलाल वोरा प्रदेश की कमान संभाले हुए थे। इन सियासी हलचलों के बीच आई एक खबर ने पूरे देश को हिला दिया। 29 अक्टूबर, लखनऊ का जीयामऊ इलाका। सुबह की हल्की ठंड थी। कांग्रेस के दिग्गज नेता और पूर्व मंत्री लक्ष्मी शंकर यादव घर के बाहरी कमरे में बैठे अखबार पढ़ रहे थे। तभी बाहर गेट पर एक कार आकर रुकी और चार लोग उतरे। “चाचाजी, नमस्ते…” आवाज जानी-पहचानी थी। लक्ष्मी शंकर मुस्कुराए- “अरे अंगद… आओ-आओ, अंदर आओ।” चारों लोग कमरे में दाखिल हुए। अंगद यादव, रमेश कालिया, सूरजपाल और उसका भाई चंद्रपाल। अंगद यादव हाल में गिरी सपा-बसपा सरकार में मंत्री रहे थे। लक्ष्मी शंकर बाकियों को नहीं पहचानते नहीं थे, लेकिन अंगद के साथ सभी अंदर आ गए। थोड़ी देर तक इधर-उधर की बातें होती रहीं। अचानक रमेश खड़ा हुआ। धीरे से जैकेट के भीतर हाथ डाला और पिस्टल निकाल ली। लक्ष्मी शंकर कुछ समझ पाते, इससे पहले ही ठां… ठां… ठां… पूरा घर गोलियों की आवाज से गूंज उठा। कमरे की सफेद दीवारों पर खून के लाल छींटे थे। लक्ष्मी शंकर यादव सोफे पर ही गिर गए। दरअसल, अंगद यादव उसी गली में अपना मकान बनवा रहा था, जहां लक्ष्मी शंकर रहते थे। वो सड़क का कुछ हिस्सा कब्जाना चाह रहा था। लक्ष्मी शंकर ने इसका विरोध किया था। दोनों में कहासुनी भी हुई थी, लेकिन किसी ने नहीं सोचा था कि बात यहां तक पहुंच जाएगी। उस समय लक्ष्मी शंकर यादव सिर्फ यूपी ही नहीं देश की राजनीति में एक बड़ा नाम था। वे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, संविधान सभा के सदस्य और प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रहे थे। इस हाई प्रोफाइल मर्डर से लखनऊ से लेकर दिल्ली तक हड़कंप मच गया। कुछ ही मिनटों में जीयामऊ की गलियां ‘खाकी’ और ‘खादी’ पहने लोगों से भर गईं। राज्यपाल मोतीलाल वोरा ने DIG (लखनऊ रेंज) कश्मीरा सिंह और SSP गुरबचन लाई का तबादला कर दिया। उनकी जगह एसके मिश्रा को DIG और सूर्य कुमार शुक्ला को SSP बनाया गया। राजभवन से एक ही ऑर्डर दिया गया- “लक्ष्मी शंकर यादव के हत्यारों को हर हाल में पकड़िए।” पुलिस ने लखनऊ से लेकर बाराबंकी, रायबरेली, उन्नाव तक रेड मारी। हर थाने की दीवार पर एक ही पोस्टर चिपका था- ‘वॉन्टेड: रमेश कालिया’ दो दिन बाद, 31 अक्टूबर बाराबंकी पुलिस लाइन में मीटिंग चल रही थी। तभी दरवाजा खुला। एक आदमी अंदर आया। चेहरा धूल से भरा, मैले-कुचैले कपड़े, दोनों हाथ ऊपर हवा में उठे, बोला- “मैं रमेश कालिया हूंI” कुछ सेकेंड के लिए हॉल में सन्नाटा छा गया। इतना मनबढ़ अपराधी ऐसे आसानी से सरेंडर कर रहा था? दरअसल, ये सरेंडर नहीं कालिया का माइंड गेम था। खुद को बचाने का सबसे शातिर मूव। किस्सा 3: बाबा का बदला पूरा हुआ 1998 की मई में सूरजपाल और सितंबर में श्रीप्रकाश शुक्ला के एनकाउंटर के बाद रमेश कालिया का दबदबा बढ़ने लगा। जेल आने-जाने का सिलसिला चालू था लेकिन दहशत का दौर भी जारी रहा। हर बड़ी वारदात के बाद कालिया गुर्गों के बीच मुस्कुराते हुए एक ही सवाल दोहराता- “लखनऊ का बाप कौन…?” और जवाब एक गूंज की तरह हवा में फैल जाता- “रमेश कालिया… रमेश कालिया…” अपराध की दुनिया में शीर्ष पर पहुंचने के बावजूद रमेश कालिया अपने बाबा की हत्या का बदला नहीं ले पाया था। दोनों तरफ कई लोगों की हत्या हो चुकी थी। रघुनाथ यादव पर भी कई बार अटैक हुआ, लेकिन हर बार बच गए। 28 अक्टूबर, 2002 रघुनाथ यादव बीडीसी मेंबर (क्षेत्र पंचायत सदस्य) बन चुके थे। एक शाम वो अपनी एंबेसडर कार में बाराबंकी से लखनऊ आ रहे थे। कालिया को खबर मिली। उसके गुर्गे टाटा सूमो से रवाना हुए और वो खुद अपनी फेवरेट यामाहा मोटरसाइकिल से निकल पड़ा। बाराबंकी रोड पर सफेदाबाद रेलवे क्रॉसिंग पार करके कालिया और उसके साथी घात लगाकर बैठ गए। सफेद एंबेसडर दिखते ही कालिया की आंखों में पुराना जहर उतर आया। कार में बैठे रघुनाथ यादव ने इन सबको देख लिया और गाड़ी तेज करने को कहा। लेकिन उस दिन रघुनाथ यादव की किस्मत ने साथ नहीं दिया। आगे क्रॉसिंग बंद थी। पीछे गाड़ी में कालिया के गुर्गे थे। ताबड़तोड़ फायरिंग शुरू हुई और कुछ ही सेकेंड में सब खत्म। रघुनाथ यादव और उनके साथ बैठे दो लोग वहीं ढेर हो गए। इस ट्रिपल मर्डर ने लखनऊ-बाराबंकी बेल्ट में कालिया की दहशत और बढ़ा दी। किस्सा 4: चुनाव, पीछा और मौत की परछाई साल 2003, विधान परिषद चुनाव ने लखनऊ की हवा को बेचैन कर दिया था। रमेश कालिया भी राजनीति में आने की कोशिश कर रहा था। उसकी पत्नी रीता यादव लखनऊ-उन्नाव सीट से मैदान में थी। वहीं, दूसरी तरफ सिटिंग MLC और माफिया से नेता बने अजीत सिंह थे। जमीन, वर्चस्व और मान की लड़ाई चरम पर थी। किसी भी मोड़ पर हवा का रुख बदलता और कहानी खूनी मोड़ ले सकती थी। हुआ भी ऐसा ही, एक शाम अजीत सिंह उन्नाव से लखनऊ आ लौट रहे थे। उधर रमेश कालिया भी उन्नाव में चुनाव प्रचार करके अपने लोगों के साथ लखनऊ आ रहा था। सोहरामऊ के पास उसकी नजर अजीत सिंह की गाड़ी पर पड़ी। उसने अजीत सिंह का पीछा करना शुरू कर दिया। उस वक्त अजीत अकेले थे, गनर भी नहीं था। वे पूरी रफ्तार से कार चला रहे थे। गाड़ियों के बीच दूरी कम होती तो उनकी घबराहट बढ़ जाती। काफी दूर तक चूहे-बिल्ली की ये दौड़ चलती रही। आखिर में अजीत सिंह, कालिया को चकमा देकर लखनऊ-उन्नाव बॉर्डर पर सई नदी के पास एक पेट्रोल पंप पर छिप गए। उन्होंने वहीं से अपने साथियों को फोन लगाया- “कालिया और उसके आदमी मेरे पीछे हैं। जल्दी पहुंचो।” रमेश कालिया और उसके गुर्गे आसपास का इलाका खंगालते रहे लेकिन अजीत हाथ नहीं लगे। कुछ देर बाद उनके समर्थक वहां पहुंचे और किसी तरह अजीत सिंह की जान बची। इस घटना ने दोनों के बीच दुश्मनी की आग और भड़का दी। वहीं, चुनाव में अजीत सिंह की जीत ने आग में घी का काम किया। 4 सितंबर, 2004 अजीत सिंह उन्नाव में जन्मदिन का जश्न मना रहे थे। फॉर्म हाउस में शराब की बोतलें खुल रही थीं। समर्थक नाच-गा रहे थे, “तुम जियो हजारों साल, साल के दिन हों पचास हजार…।” बीच-बीच में बंदूक की गोलियों से अजीत सिंह को सलामी दी जा रही थी। अजीत सिंह मंच पर बैठे मुस्कुरा रहे थे। कुछ देर बाद एक समर्थक ने देखा, अजीत सिंह कुर्सी पर एक ओर लुढ़क गए हैं। झक्क सफेद कुर्ता खून से लाल हो गया। जश्न में हो रही फायरिंग के दौरान ही एक गोली अजीत को लगी थी। शायद हर्ष फायरिंग का फायदा उठाकर किसी ने अजीत सिंह की हत्या कर दी थी। शक की सुई रमेश कालिया की ओर गई, नामजद भी हुआ। हालांकि, बाद में इस मौत को हादसा माना गया। CM बोले- कालिया के लिए सिकेरा को लखनऊ लाइए नवंबर 2004, राजधानी में एक सर्द शाम। हजरतगंज के VVIP गेस्ट हाउस में सन्नाटा था। बाहर लाल बत्ती वाली गाड़ियां कतार में खड़ी थीं। अंदर मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव की आवाज गूंज रही थी- “ये सब क्या हो रहा है? एमएलसी तक सुरक्षित नहीं? जनता का भरोसा कैसे बने सरकार पर, बताओ जरा?” DGP ने झिझकते हुए कहा- “सर, हम पूरी कोशिश कर रहे हैं, पर रमेश कालिया हाथ नहीं आ रहा।” मुलायम ने मेज पर रखी फाइल पर हाथ मारा- “फाइलें बंद करो, रिजल्ट दिखाओ। कोई ऐसा अफसर लगाओ, जो डर पैदा करे। जो इनको बताए कि सरकार किसकी है।” कुछ पल के लिए खामोशी छा गई। फिर DGP ने धीरे से कहा- “सर, एक नाम है… नवनीत सिकेरा। 96 बैच का नौजवान IPS, तेजतर्रार अफसर।” मुलायम ने भौंहें उठाईं- “सिकेरा… नाम सुना है मैंने। बुलाइए लखनऊ।” दो दिन बाद, लखनऊ के नए SSP नवनीत सिकेरा अपनी कुर्सी पर बैठे थे। कड़क अफसर, सधा हुआ चेहरा, सामने टेबल पर रमेश कालिया की फाइल पड़ी थी। सिकेरा ने फाइल बंद की। उन्हें DGP की बात याद आ गई। “कालिया का आतंक खत्म करना है।” सिकेरा मुस्कुरा दिए। MLC अजीत सिंह की मौत के बाद कालिया की तलाश जारी थी। फोन टेपिंग, मुखबिरों का जाल, दबिश- सब कुछ चल रहा था, लेकिन हर कोशिश नाकाम साबित हो रही थी। इसी बीच, एक लीड ने पूरे ऑपरेशन को नई दिशा दी। 10 फरवरी, 2005 लखनऊ के प्रॉपर्टी डीलर इम्तियाज को एक फोन आया। दूसरी तरफ से रौबदार आवाज आई- “पांच लाख तैयार रखो, नहीं तो अंजाम बुरा होगा।” इम्तियाज की आवाज थरथरा गई- “मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं, भइया” कालिया ने हंसकर कहा- “लगता है तुम्हें अपनी जान प्यारी नहीं है। कल फोन करके जगह बताएंगे। हमें ना सुनना पसंद नहीं।” इम्तियाज को लगा जैसे मौत ने पीछा करना शुरू कर दिया है। वे सीधे SSP ऑफिस भागे। SSP सिकेरा ने उन्हें समझा-बुझाकर शांत कराया। “घबराइए मत इम्तियाज भाई, आप अकेले नहीं हैं। बस हमारे साथ रहिए हम कालिया तक पहुंचेंगे।” इम्तियाज ने सिर हिलाया- “सर, आप जैसा बताएंगे, हम वैसा करेंगे। बस हमें बचा लीजिए।” अगले दिन इम्तियाज का फोन फिर बजा। उधर से आवाज आई- “कल शाम 4 बजे, नीलमथा में मिलना।” लखनऊ कैंट के पास सुनसान इलाका, आसपास खेत, गांव और जंगल। कालिया ने अपना ठिकाना सोच-समझकर चुना था, ताकि दूर से ही पुलिस की आहट मिल जाए। ऑपरेशन कालिया में बाराती बने पुलिसवाले नवनीत सिकेरा के सामने बड़ी चुनौती थी। क्योंकि, इलाके में छिपने की ठीक जगह नहीं थी। एक गलती और कालिया फिर गायब हो जाता। कई घंटे मंथन चलता रहा, लेकिन हर प्लान में खतरा था। तभी एक सिपाही बोला- “सर, शादियों का सीजन है। बारात का स्वांग रचा जाए तो कैसा रहेगा?” कमरे में कुछ पल सन्नाटा रहा, फिर SSP सिकेरा मुस्कुरा दिए। 12 फरवरी 2005, शाम 4:00 बजे नीलमथा इलाके में गाजे-बाजे के साथ बारात निकल रही थी। बाराती नाच रहे थे। दूल्हा बने दरोगा प्रताप सिंह फूलों से सजी कार में बैठे थे। वर्दी की जगह क्रीम कलर का सूट पहने थे और जूतों में रिवॉल्वर छिपा रखी थी। इसी तरह हर बाराती के स्वेटर-शेरवानी में हथियार छुपा था। कुछ ही दूर गली के एक घर में रमेश कालिया अपने साथी विश्वनाथ और राजेश के साथ बैठा था। “इम्तियाज आ रहा होगा पैसे लेकर, अगर कम लाया तो साले को यहीं गाड़ देंगे।” बारात धीरे-धीरे उसी गली में मुड़ रही थी। बारात के ठीक आगे कुछ दूरी पर इम्तियाज चल रहा था। हाथ में झोला, फरवरी की ठंड में चेहरे पर पसीना। घर के दरवाजे तक पहुंचा तो अंदर से आवाज आई- “अंदर आओ, देर कैसे हुई?” इम्तियाज घबराते हुए अंदर आ पहुंचा। कालिया बोला- “रुपए लाया?” इम्तियाज ने झोला थमा दिया। कालिया ने झोला खोलकर नोटों की गड्डी निकाली और घूरकर इम्तियाज को देखा। इम्तियाज घिघियाते हुए बोला- “भइया… साठ हजार का ही इंतजाम हो पाया, बाकी दो-चार दिन में दे देंगे।” “साठ हजार? भिखारी समझा है। साले यहीं जिंदा गाड़ दूंगा।” कालिया की आवाज गूंजी। इम्तियाज हाथ जोड़कर बोला- “थोड़ा टाइम दे दो भइया, जल्दी-जल्दी में इतना ही हो पाया।” इस बार विश्वनाथ गुर्राया- “भाग यहां से… अगली बार पूरे पैसे लेकर आना।” इम्तियाज जी-जी करते हुए तुरंत बाहर निकल आया। अब तक बारात भी घर के नजदीक पहुंच चुकी थी। इम्तियाज ने बाराती बने SSP सिकेरा की ओर देख कर हल्का-सा सिर झुकाया। इशारा मिल चुका था। बैंड-बाजे की आवाज थोड़ी धीमी पड़ी। सिकेरा की आवाज वायरलेस पर गूंजी- “सभी यूनिट्स तैयार रहें… कोई गलती नहीं होनी चाहिए।” सूट-बूट पहने पुलिसवालों ने एक झटके में पूरा मकान घेर लिया। SSP सिकेरा ने लाउडस्पीकर से चेतावनी दी- “कालिया पुलिस ने तुम्हें चारों तरफ से घेर लिया है। सरेंडर कर दो, बाहर आ जाओ।” ये सुनते ही कालिया, विश्वजीत और राजेश से बोला- “भाग साले, पुलिस आ गई…” और फिर, तड़तड़तड़तड़… दोनों तरफ से गोलियों की बौछार शुरू हो गई। पूरी गली बारूद की गंध से भर गई। 25 मिनट तक लगातार फायरिंग हुई। इंस्पेक्टर एसके प्रताप और आदेश शर्मा को तीन-तीन गोलियां लगीं, लेकिन बुलेटप्रूफ जैकेट ने जान बचा ली। एक गोली कॉन्स्टेबल चंद्रपाल के पैर में लगी, दो गोलियां जैकेट से टकराकर उछल गईं। मकान के अंदर विश्वनाथ, राजेश और कालिया ने मोर्चा संभाल रखा था। चेहरे पर पसीना था, लेकिन आंखों में वही घमंड। कालिया चिल्लाया- “मेरे लिए जाल बिछाया था सिकेरा, लेकिन जान लो तुम में से कोई जिंदा बचके नहीं जाएगा।” सिकेरा ने जवाब दिया- “अभी भी वक्त है, सरेंडर कर दे कालिया। कानून से बड़ा कोई नहीं।” कालिया ने ठहाका लगाया- “कानून… कानून मेरे जूते के नीचे है।” इतना कहकर उसने फिर ट्रिगर दबाया- धांय, धांय, धांय… पुलिस भी जवाबी फायर करती रही। गोलियां दीवारें छेद रही थीं। किसी को नहीं पता था कि अगली गोली कहां लगेगी। फिर अचानक अंदर से फायरिंग रुक गई, सन्नाटा छा गया। पुलिस धीरे-धीरे अंदर दाखिल हुई। पीछे की दीवार पर खून के छीटे, जमीन पर गोलियों के खोखे। विश्वनाथ और राजेश एक कोने में घायल पड़े थे। और फर्श पर पड़ा था वो नाम, जिसने यूपी को बरसों तक डराया था- रमेश कालिया। *** स्टोरी एडिट- कृष्ण गोपाल *** रेफरेंस जर्नलिस्ट- डॉ गोविंद पंत राजू, विष्णु मोहन, सूर्य प्रकाश शुक्ला। भास्कर टीम ने पुलिस, पीड़ितों और जानकारों से बात करने के बाद सभी कड़ियों को जोड़कर ये स्टोरी लिखी है। फिर भी घटनाओं के क्रम में कुछ अंतर हो सकता है। कहानी को रोचक बनाने के लिए क्रिएटिव लिबर्टी ली गई है। ————————————— ‘एनकाउंटर’ की ये स्टोरीज भी पढ़ें… 50 मर्डर करने वाला वेस्टर्न यूपी का ‘फौजी’; बहन का दुपट्टा खींचने वालों को ठोका, पहले चेयरमैन फिर विधायक को मारा 80 का दशक। ये वो दौर था जब गांव का गुंडा, नेता और दलाल सब एक ही धंधे में लगे थे। जमीन हड़पो, बेचो और पैसा कमाओ। इसी दौर में उपजा एक अपराधी था, महेंद्र सिंह गुर्जर। बेहद सनकी, जरा-जरा सी बात पर मरने-मारने पर उतर आता। साल 1982 में जुलाई की एक दोपहर, तभी उसकी बहन महेंद्री आती दिखी। पूरी स्टोरी पढ़ें… लखनऊ में बाहुबली को बीच सड़क 126 गोलियां मारीं, जान बचाने के लिए पुलिसवालों को जनेऊ की दुहाई दे रहा था श्रीप्रकाश लखनऊ के पॉश इलाकों में से एक इंदिरानगर। शांत और साफ-सुथरी सड़कें। स्प्रिंगडेल स्कूल के आसपास काफी चहल-पहल थी। तभी ठांय… ठांय… ठां…ठां…ठां… अचानक कान फोड़ देने वाली आवाज आने लगी। लगा जैसे किसी ने पटाखे की लड़ी चला दी हो, लेकिन आवाज पटाखों की नहीं, गोलियों की थी। पूरी स्टोरी पढ़ें…
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