प्रतिबंध, गिरफ्तारियां, दबाव…कैसे ‘गुरुजी’ ने मुश्किल दौर में संघ का विस्तार करके इतिहास रचा?
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के 100 वर्ष के इतिहास में सरसंघचालक के रूप में माधवराव सदाशिव राव गोलवलकर उपाख्य गुरुजी के नेतृत्व के 33 वर्ष बेहद चुनौतीपूर्ण लेकिन उपलब्धियों से भरपूर रहे. उनके कार्यकाल में गांधी हत्याकांड के बाद संघ ने पहले प्रतिबंध का सफलतापूर्वक सामना किया. सरकार और समाज के विभिन्न हिस्सों के विरोध के बीच भी उन्होंने संघ को न केवल संगठित रखा अपितु व्यापक विस्तार दिया.
प्रारम्भिक हिचक के बाद राजनीतिक दल जनसंघ के गठन को सहमति दी. लेकिन राजनीति का आकर्षण संघ के स्वयंसेवकों को संघ कार्य और विस्तार से विमुख न कर दे, इसकी व्यवस्था की. सेक्युलर ताकतों का संघ से बैर पुराना है. लेकिन आज देश के राजनीतिक-सामाजिक-शैक्षिक-सांस्कृतिक सहित जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां संघ और उसके आनुषंगिक संगठनों की सक्रिय और प्रभावी उपस्थिति तथा सोच की छाप न हो.
संघ की इस सफलता में गुरुजी के सशक्त और प्रेरक नेतृत्व की बड़ी भूमिका रही है. शताब्दी वर्ष के अवसर पर पढ़िए उन गुरुजी के विषय में जिन्होंने संघ से जुड़े लोगों की पीढ़ियों को शिक्षित-संस्कारित और राष्ट्र-समाज के लिए समर्पित होने के लिए प्रेरित किया.
डॉक्टर हेडगेवार की कसौटी पर खरे उतरे
माधवराव सदाशिव राव गोलवरकर ने 1929 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से प्राणिशास्त्र में एम.एस.सी. की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी. वहां उन्होंने अध्यापन भी किया. भैया जी दाणी के माध्यम से विश्वविद्यालय में ही वे संघ के संपर्क में आए. 1933 में नागपुर वापसी हुई. जहां संघ संस्थापक डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार से उनका संपर्क बढ़ा. उन्हीं की प्रेरणा से कानून की पढ़ाई भी की.
गुरुजी की प्रतिभा और क्षमता ने डॉक्टर हेडगेवार को काफी प्रभावित किया. 21 जून 1940 को निधन के एक दिन पूर्व डॉक्टर हेडगेवार ने उन्हें एक पर्ची सौंपी,जिस पर लिखा था, “इससे पहले कि मेरे शरीर को डॉक्टरों के हवाले करो, मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि अब से संगठन को चलाने की पूरी ज़िम्मेदारी तुम्हारी होगी.”

RSS की नींव रखने वाले डॉक्टर हेडगेवार ने माधवराव सदाशिव राव गोलवरकर को अपना उत्तराधिकारी चुना.
निधन के 13 दिनों बाद जब 3 जुलाई 1940 को संघ के वरिष्ठ पदाधिकारियों की बैठक में डॉक्टर हेडगेवार की इच्छा को सार्वजनिक किया गया तो वहां मौजूद लोग इस निर्णय पर चौंके थे. गुरुजी की आयु उस समय सिर्फ 34 वर्ष थी. उनसे अधिक अनुभवी लोग संघ में सक्रिय थे. लेकिन आने वाले दिनों ने प्रमाणित किया कि डॉक्टर हेडगेवार ने उपयुक्त और श्रेष्ठ उत्तराधिकारी का चयन किया था.
किसी विरोध की नहीं की परवाह
संघ के काम को लेकर गुरुजी की सोच स्पष्ट थी. संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार की भांति ही हिंदू समाज को संगठित और शक्तिशाली किए जाने को उन्होंने अपना मुख्य ध्येय निश्चित किया. यद्यपि इस कारण उन्हें निरंतर आलोचनाओं का भी सामना करना पड़ा.
9 अगस्त 1942 से शुरू “अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन” से संघ को दूर रखना ऐसा ही निर्णय था, जिसके लिए विरोधी आज भी उसे घेरते हैं. गुरुजी ने संघ स्वयंसेवकों को व्यक्तिगत रूप से इस आंदोलन में शामिल होने की छूट दी थी. लेकिन किसी भी आंदोलन से संघ के सीधे जुड़ाव की स्थिति में ध्येय से विचलन के लिए वे तैयार नहीं थे. संघ की इस सोच और कार्यपद्धति ने विनायक दामोदर सावरकर और हिंदूमहासभा को भी नाराज किया था.
सावरकर उन दिनों हिंदू महासभा के अध्यक्ष थे. गुरुजी से 1940 में एक भेंट के दौरान सावरकर ने चाहा कि संघ का संगठन महासभा के राजनीतिक कार्यों में सहयोग करे. गुरुजी के इनकार के बाद खिन्न सावरकर ने कहा था कि फिर अपनी ताकत का अचार डालिए.

सावरकर ने गुरुजी से मुलाकात के दौरान कहा था कि संघ का संगठन महासभा के राजनीतिक कार्यों में सहयोग करे.
प्रतिबंध के समय पक्ष में बोलने वाला कोई नहीं
संघ को राजनीति से दूर रखने की गुरु गोलवलकर की कोशिशें आजादी के बाद भी जारी रहीं. संघ विभाजन का प्रबल विरोधी था. खंडित आजादी उसे स्वीकार नहीं थी. लेकिन आजादी के तुरंत बाद भी राजनीतिक गतिविधियों से सीधे जुड़ाव से उसने परहेज किया. 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या के बाद संघ पर पहली बार प्रतिबंध लगा. गुरु गोलवलकर सहित संघ कार्यकर्ताओं की देशव्यापी गिरफ्तारियां हुईं. हालांकि गांधी हत्याकांड के अदालती फैसले में संघ पर कोई आरोप साबित नहीं हुआ.
11 फरवरी 1948 को सरकार ने प्रतिबंध भी वापस ले लिया. लेकिन इस पूरे दौर में खासतौर पर सदन के भीतर संघ को अपने पक्ष में आवाज उठाने वालों की कमी बुरी तरह खली. संघ के भीतर यह चर्चा शुरू हुई कि यदि उनके अनुकूल विचारधारा वाले दल की सदन में उपस्थिति होती तो उन पर एकतरफा प्रहार न होने पाते.

गोलवलकर संघ की शक्ति के जरिए किसी राजनीतिक दल को खड़ा करने के हिमायती नहीं थे.
मंथन के बाद जनसंघ के गठन के लिए सहमति
दिलचस्प है कि इस विपरीत माहौल में भी गुरु गोलवलकर संघ की शक्ति के जरिए किसी राजनीतिक दल को खड़ा करने की हिमायत में नहीं थे. पंडित नेहरू के नेतृत्व की कांग्रेस सरकार और कम्युनिस्ट जिस पैमाने पर संघ पर हमलावर थे , वह संघ के विस्तार में बाधक था. पहला आमचुनाव निकट था. संघ का एक वर्ग सहयोगी राजनीतिक दल के गठन को जरूरी मान रहा था. फिर भी गुरुजी क्यों हिचक रहे थे?
संघ विचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी के अनुसार, “गुरुजी इस बात को अनुभव करते थे कि हिन्दू हितों को एक दल से संबद्ध करने पर वे संकुचित हो जाएंगे. उनकी दबाव क्षमता कम हो जाएगी. उन्हें लगता था कि अखिल भारतीय स्तर पर सत्ता के लिए राजनीतिक दल का निर्माण संघ को हिंदू हितों के मुख्य कार्य से विमुख कर सकता है. वास्तविकता में वे हिंदू संगठन को प्रेशर ग्रुप की भूमिका में चाहते थे. हाथी बनने की जगह हाथी पर अंकुश लगाने की भूमिका में.” काफी मंथन के बाद उन्होंने जनसंघ के गठन की सहमति दी थी.

जनसंघ पार्टी का चुनाव चिह्न दीपक था.
हर वर्ग के बीच संघ की बनाई पैठ
प्रतिबंध हटने के बाद भी स्थितियां संघ के अनुकूल नहीं थीं. केंद्र से राज्यों तक की कांग्रेसी सरकारें उसके प्रतिकूल थीं. लेकिन इसके बाद भी गुरुजी के नेतृत्व में संघ संगठन के विस्तार, उसे सुदृढ़ करने के साथ ही अपनी विचारधारा के प्रसार में सफल रहा. संघ की खामोश लेकिन सकारात्मक गतिविधियों की इसमें बड़ी भूमिका रही. विरोधियों के प्रहारों के मुकाबले में उलझने की जगह संघ ने समाज के हर वर्ग के बीच पैठ बनाने की दिशा में ठोस प्रयास किए.
शिक्षा के लिए शिशु मंदिरों और विद्यामंदिरों की शृंखला शुरू की. कॉलेज और विश्वविद्यालयों में विस्तार के लिए अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का गठन किया और सदस्य विद्यार्थियों को अनुशासित रखने के लिए अध्यक्ष पद शिक्षक के लिए सुरक्षित किया. श्रमिकों के बीच कार्य के लिए भारतीय मजदूर संघ तो जनजातीय क्षेत्रों में मिशनरियों की बढ़ती गतिविधियों और धर्मांतरण की रोकथाम के लिए वनवासी कल्याण के प्रकल्प जैसी बहुआयामी कोशिशों ने संघ की दूरस्थ क्षेत्रों में पहुंच बनाई. हिंदू समाज के जातीय मतभेदों और ऊंच-नीच और छुआ-छूत जैसी बुराइयों से छुटकारे के लिए संघ ने इस बड़े कार्य को अपनी दैनिक गतिविधियों का हिस्सा बना लिया.
हिंदू मन को छूने की कोशिश
स्वतंत्रता और पाकिस्तान निर्माण के बाद संघ के औचित्य पर सवाल उठने के बाद गुरुजी ने कहा था कि संघ किसी मजहब या उसे मानने वालों के विरुद्ध नहीं है. संघ राष्ट्रवादी सोच के साथ समाज को संगठित और समरस देखना चाहता है. इस एकता का उद्देश्य उन कमजोरियों से समाज को मुक्त रखना है, जिनके कारण देश को लंबे समय तक विदेशियों के हमलों और परतंत्रता का सामना करना पड़ा था.
सामाजिक एकता के लिए देश की बहुसंख्य हिन्दू आबादी की कमजोरियों को दूर करना और उसे शक्तिशाली बनाना संघ ने सदैव जरूरी माना. कन्याकुमारी में संघ की पहल पर विवेकानंद स्मारक का निर्माण, विश्व हिंदू परिषद का गठन जैसे प्रयास संघ की इन्हीं कोशिशों का हिस्सा हैं. गोरक्षा आंदोलन और हिन्दू भावनाओं को उद्वेलित करने वाले गोरक्षा जैसे प्रतीकों से जुड़कर संघ ने हिन्दू मन के भीतर तक पहुंच बनाई.
संघ के कार्यक्रमों में गुरुजी हमेशा किए जाते हैं याद
संघ के सरसंघचालको में गुरु गोलवलकर को सबसे लंबा कार्यकाल मिला. आजादी के बाद भी संघ के लिए स्थितियां अनुकूल नहीं रहीं. लेकिन फिर भी गुरुजी के नेतृत्व में सफलता की बड़ी लकीर खिंच सकी तो इसकी बड़ी वजह उनका नेतृत्व कौशल और ध्येय के प्रति समर्पण का भाव था.
संघ ने प्रतिद्वंदियों से टकराव में उलझने की जगह अपने काम पर फोकस किया. किसी भी परिस्थिति में अपनी गतिविधियों को रुकने नहीं दिया. संघ ने आनुषंगिक संगठनों को विभिन्न दिशाओं में सक्रिय किया लेकिन उनकी क्षमता के भरोसे अपने प्रयासों को शिथिल नहीं होने दिया. गुरुजी ने संघ के प्रचारकों और स्वयंसेवकों का ऐसा समर्पित समूह खड़ा किया, जिसे राजनीति का ग्लैमर भ्रमित नहीं कर सका.

आज भी संघ के कार्यक्रमों में गुरुजी उत्साह और आदर के साथ स्मरण किए जाते हैं.
संघ की जड़ से जो शाखाएं विकसित हुईं, उनकी रोजमर्रा की गतिविधियों और प्रत्यक्ष नियंत्रण से संघ ने खुद को सदैव दूर रखा है. लेकिन इन संगठनों को संघ की छाया हमेशा जरूरी लगती है. क्यों? इसकी बड़ी वजह विचारधारा की घुट्टी और संघ की नैतिक शक्ति है. यह बुलाए बिना भी उन्हें मार्गदर्शन के लिए संघ के पास जाने को प्रेरित करती है. इसकी आधारभूमि तैयार करने में गुरुजी की महती भूमिका थी. आज भी संघ के कार्यक्रमों में गुरुजी उत्साह और आदर के साथ स्मरण किए जाते हैं.
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