छठ पर्व के समय बिहार में विधानसभा चुनाव और SIR से किसे फायदा, क्या कहता है पिछला रिकॉर्ड?
बिहार में एसआईआर (SIR) का सियासी संग्राम थमा तो अब चुनावी शोर शुरू हो गया. चुनाव आयोग ने सोमवार को मतदान की तारीखों का ऐलान कर दिया. 6 और 11 नवंबर को दो चरणों में मतदान होंगे. तारीखों पर गौर करें तो छठ पर्व के कुछ दिनों के बाद ये मतदान होंगे. पहले चरण का मतदान करीब एक हफ्ते के बाद होगा तो दूसरे चरण का मतदान दो हफ्ते के बाद है. जबकि चार दिनों तक चलने वाला छठ महापर्व अक्टूबर के आखिरी हफ्ते में है और उससे पहले 20 अक्टूबर को दिवाली है. बिहार का आलम विख्यात है कि यहां दिवाली बीतते ही लोग छठ महापर्व की तैयारियों में मशगूल हो जाते हैं. प्रवासी बिहार लौटने लगते हैं. कम दिनों की छुट्टी पर गए लोग भले ही जल्दी लौट आएं लेकिन रोजाना कमाने-खाने वाले लाखों लोग चुनाव में हिस्सा लेकर ही अपने-अपने काम पर वापस होते हैं.
एक अनुमान के मुताबिक बिहार से बाहर देश के दूसरे भागों में रहने वाले मतदाताओं में ज्यादातर एनडीए समर्थक होते हैं. यही वजह है कि अक्टूबर 2005 में छठ के समय हुए विधानसभा चुनाव के बाद लगातार वोट प्रतिशत बढ़ता गया है. इसका सबसे ज्यादा फायदा एनडीए को मिलता रहा है. इसका सीधा गणित ये है कि जो लोग बिहार से पलायन कर गए, वे बिहार में भी बदलाव और विकास देखना चाहते हैं. इसके लिए वे उन राष्ट्रीय दलों के प्रचार अभियान के साथ जुड़ते हैं जो क्षेत्रीय दलों के मुकाबले अधिक व्यापक नजर आते हैं. अब जबकि इस बार एसआईआर में बड़े पैमाने पर मतदाता सूची में संशोधन किया गया है तो अंदाजा लगाना मुश्किल है बाहर वालों के वोट का कितना असर दिखेगा.
मतदान की तारीखें और पिछला वोटिंग पैटर्न
वैसे बिहार के लोगों का अपना मिजाज है. यह देश भर में जाना जाता है. यहां लोग जितना त्योहार का आनंद उठाते हैं, उतना ही राजनीति और चुनाव का भी. लिहाजा चुनाव आयोग के ऐलान के बाद बिहार के लोगों के लिए एक बार फिर से यह सोने पे सुहागा वाला समय है. चुनाव आयोग इस बार बिहार चुनाव में कई परिवर्तन का आगाज करने जा रहा है. लेकिन मतदान की तारीखें बताती हैं यह पिछले पैटर्न से अलग नहीं है. छठ पूजा के आस-पास वोटिंग से किस-किस को फायदा होता रहा है, इसे पिछले आंकड़ों में देखा जा सकता है. ऊपर से एसआईआर की प्रक्रिया ने एक अलग ही बहस छेड़ रखी है. एसआईआर का ऊंट नतीजों में किस करवट बैठेगा, यह अनुमान से परे है. हालांकि बिहार में सत्तारूढ़ एनडीए के नेताओं ने इसे निष्पक्ष मतदान से जोड़ कर अभियान चलाया है. और अपने लिए लाभकारी मान कर चल रहे हैं. लेकिन जो बाहरी लोग सूची में नाम कटने से मतदान नहीं कर सकेंगे, उसका आकलन नहीं किया गया है.
2005 के विधानसभा चुनाव से बदला रिवाज
बिहार के विधानसभा चुनाव के इतिहास के पन्ने पलटें तो साल 2005 में अक्टूबर-नवंबर में हुए मतदान परिवर्तनकारी साबित हुए. यह सत्ता परिवर्तन की लहर का भी साल था. इसकी कई वजहें थीं. उसकी विशद चर्चा हम किसी दूसरी रिपोर्ट में करेंगे. साल 2000 और इससे पहले बिहार में फरवरी में वोटिंग होती रही है. लेकिन 2005 में अक्टूबर-नवंबर का मतदान इसलिए महत्वपूर्ण हो गया क्योंकि ये समय बिहार के विख्यात पर्व छठ पूजा के लिए जाना जाता है. इस त्योहार पर हर साल प्रवासी बिहारियों की बड़े पैमाने पर घर वापसी होती है. तब एसआईआर नहीं हुआ था. जब मतदान का समय आया तो धार्मिक त्योहार के साथ-साथ लोकतंत्र के त्योहार का भी खास रंग देखने को मिला.
बिहार में भारी मतदान की परंपरा
छठ के आस-पास बिहार में भारी मतदान की परंपरा साल 2005 में दूसरी बार हुए विधानसभा चुनाव के समय से शुरू होती है. इस साल पहली बार मतदान पहले की तरह फरवरी में तीन चरणों में 3, 15 और 23 तारीख को हुए थे जबकि दूसरी बार अक्टूबर में चार चरणों में 18 और 26 अक्टूबर के अलावा 9 और 13 नवंबर को मतदान हुए थे. वहीं साल 2010 में यहां 6 चरणों में 21, 24 और 28 अक्टूबर के अलावा 1, 9 और 20 नवंबर को मत डाले गए थे. इस साल छठ पूजा 9 नवंबर से 12 नवंबर के बीच हुई. इसका नतीजा भी अलग देखने को मिला. मत फीसदी बढ़ा, एनडीए की बंपर जीत हुई.
इसके बाद 2015 में बिहार में पांच चरणों में 12, 16, 18 अक्टूबर के अलावा 1 और 5 नवंबर को वोटिंग हुई थी. इस साल भी छठ पूजा 15 नवंबर से 18 नवंबर के बीच हुई थी. जबकि साल 2020 में छठ त्योहार 18 नवंबर से 21 नवंबर तक मनाया गया था. इस साल हुए विधानसभा चुनाव के लिए मतदान तीन चरणों में हुए थे. पहला चरण 28 अक्टूबर को, दूसरा चरण 3 नवंबर को और तीसरा 7 नवंबर को हुआ था. अब 2025 में एक बार फिर उसी पैटर्न पर छठ पूजा के बाद 6 और 11 नवंबर को मतदान होंगे. हालांकि इस बार एसआईआर के अलावा मतदान की प्रक्रियाओं में भी बड़े बदलाव किए गए हैं. लिहाजा नतीजे पर सबकी नजर रहेगी.
छठ पूजा के समय मतदानों का सियासी गणित
छठ पूजा के आस-पास हुए मतदानों का सियासी गणित भी समझना चाहिए. फरवरी 2005 में हुए चुनाव में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिल सका इसलिए उस साल दोबारा अक्टूबर में चुनाव कराए गए थे. फरवरी में आरजेडी को 75, जेडीयू को 55, बीजेपी को 37 जबकि लोक जनशक्ति पार्टी को 29 सीटें मिली थीं. लेकिन जब अक्टूबर-नवंबर में हुए मतदान में यही आंकड़ा बदल गया. जेडीयू को 88, बीजेपी को 55 सीटें मिलीं जबकि आरजेडी 54 सीटों पर सिमट गई. यानी छठ पर्व के समय का मतदान जेडीयू-बीजेपी के लिए फायदेमंद रहा. अगले विधानसभा चुनावों में भी यही मिजाज देखने को मिला.
छठ त्योहार में प्रवासी बिहारियों की घर वापसी रंग लाई. 2005 में करीब 45 फीसदी मतदान दर्ज किया गया था लेकिन 2010 में करीब 7 फीसदी वोट शेयर बढ़कर 52 फीसदी हो गया. जेडीयू के खाते में 115, भारतीय जनता पार्टी को 102, राष्ट्रीय जनता दल को 168 सीटें मिलीं. नतीजतन एनडीए की सरकार बनी. इसी तरह 2015 में त्योहारी चुनाव होने पर फिर 4 फीसदी वोट शेयर बढ़ा तो 2020 में वोट शेयर बढ़कर 57 फीसदी हो गया. इस साल एनडीए को 125 सीटें मिलीं और महागठबंधन को 110 सीटें मिल सकीं. 243 सीटों वाली बिहार विधानसभा में बहुमत के लिए 122 सीटों की जरूरत होती है.
2005 के बाद हर चुनाव में वोट शेयर बढ़ा
साल 2005 से अब तक बिहार में जितने भी चुनाव हुए हैं, उनमें सीटें चाहे जिस दल को जितनी मिली हों- लेकिन इतना तय है कि हर बार वोट शेयर बढ़ता गया है. छठ पर्व के दौरान हुए बिहार में चुनाव से किस दल को सबसे ज्यादा फायदा हुआ है, इससे यहां मिलने वाली सत्ता के समीकरण से सहज ही समझा जा सकता है. अब साल 2025 विधानसभा चुनाव में मामला केवल छठ पर निखरने वाली सियासी छटा भर नहीं है. इस बार बिहार में मतदान के लिए चुनाव आयोग बड़े परिवर्तन की मुनादी कर चुका है.
विपक्षी दलों के नेताओं में तेजस्वी यादव, राहुल गांधी ने एसआईआर को लेकर वोट चोरी का बड़ा मुद्दा बनाया है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले का असर दिखा. आधार मान्य हुआ. नई सूची में 21 लाख नए मतदाता जोड़े गए. ये मतदाता क्या गुल खिलाते हैं, जानना दिलचस्प रहेगा. देखना होगा कि इस बार छठ त्योहार और एसआईआर दोनों का बिहार चुनाव पर कैसा प्रभाव पड़ेगा है.
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