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Bangladesh में हिंदू महिलाओं के साथ अत्याचार को Mehbooba Mufti ने हिजाब से जोड़ते हुए दिया आपत्तिजनक बयान

बांग्लादेश में हिंदू महिलाओं के साथ हो रहे भयावह उत्पीड़न पर चिंता जताने के नाम पर पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती ने जिस तरह भारत के लोकतांत्रिक ताने-बाने और कानून-व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की, वह न सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण है, बल्कि आपत्तिजनक भी है। सबसे पहले सच्चाई स्पष्ट कर लेनी चाहिए। भारत में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा कोई खोखला नारा नहीं, बल्कि संवैधानिक दायित्व है। यहां कानून का शासन है, अदालतें स्वतंत्र हैं और राज्य तंत्र जवाबदेह है। किसी भी धर्म, जाति या समुदाय के खिलाफ अपराध होता है तो उसके लिए कानूनी प्रक्रिया मौजूद है, एफआईआर से लेकर न्यायालय तक। छिटपुट घटनाओं को लेकर पूरे देश को “नैतिक दुविधा” में बताना, दरअसल भारत की संस्थाओं और लोकतंत्र पर सीधा हमला है।
इसके उलट, बांग्लादेश की ज़मीनी तस्वीर पर आंख मूंद लेना या उसे भारत के संदर्भ से जोड़कर हल्का करना सरासर बेईमानी है। वहां अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय लंबे समय से भय, हिंसा और सामाजिक बहिष्कार का सामना कर रहा है। मंदिरों पर हमले, घरों की तोड़फोड़ और महिलाओं के खिलाफ लक्षित हिंसा, ये सब कोई अफवाह नहीं, बल्कि बार-बार सामने आई कठोर सच्चाइयां हैं। वहां कट्टरपंथी तत्वों का दबदबा बढ़ा है और अंतरिम सरकार की इच्छाशक्ति बार-बार सवालों के घेरे में आई है। इस पृष्ठभूमि में भारत से वहां की तुलना करना न सिर्फ अनुचित है, बल्कि पीड़ितों के जख्मों पर नमक छिड़कने जैसा है।

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महबूबा मुफ्ती का यह कहना कि भारत का नेतृत्व “नैतिक दुविधा” में है, दरअसल एक राजनीतिक एजेंडे की बू देता है। हम आपको बता दें कि बांग्लादेश में हिंदू महिलाओं के सिंदूर लगाने तक से डरने की खबरें आ रहीं हैं, ऐसे में अपेक्षा थी कि मुख्यमंत्री जैसे संवैधानिक पद पर रह चुकीं महबूबा मुफ्ती कड़े शब्दों में इस बर्बरता की निंदा करेंगी और पीड़ितों के साथ खड़ी होंगी। लेकिन उन्होंने चर्चा को भटकाते हुए भारत के भीतर हिजाब से जुड़ी बहस से जोड़ दिया। यह तुलना न सिर्फ असंगत है, बल्कि एक तरह से बांग्लादेश में हिंदू महिलाओं के साथ हो रहे दुर्व्यवहार को तर्कों की आड़ में जायज़ ठहराने जैसा प्रतीत होती है। महबूबा को याद रखना चाहिए कि भारत में हिजाब या किसी भी धार्मिक प्रतीक को लेकर बहसें न्यायालयों और संवैधानिक दायरे में होती हैं। यहां कानून तोड़ने वालों पर कार्रवाई होती है, चाहे वे किसी भी धर्म से हों। इसके विपरीत, बांग्लादेश में अल्पसंख्यक महिलाओं को उनकी पहचान के कारण डर में जीने पर मजबूर किया जा रहा है। दोनों स्थितियों को एक ही तराजू पर तौलना गलत है।
जहां तक महबूबा के बयान की बात है तो आपको बता दें कि उन्होंने बांग्लादेश में हिंदू महिलाओं के उत्पीड़न को लेकर चिंता जताते हुए कहा कि ये खबरें ‘‘बेहद परेशान करने वाली’’ हैं। जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री ने ‘एक्स’ पर एक पोस्ट में कहा, ‘‘बांग्लादेश से आ रही खबरें बहुत परेशान करने वाली हैं, जिनमें कहा गया है कि हिंदू महिलाएं सिंदूर लगाकर बाहर निकलने से डर रही हैं।’’ महबूबा मुफ्ती ने कहा कि अपने देश का नेतृत्व नैतिक दुविधा में है क्योंकि यहां ‘‘अराजक तत्व मुस्लिम महिलाओं का हिजाब जबरदस्ती उतार रहे हैं।’’ उन्होंने कहा, ‘‘दुख की बात है कि भारतीय नेतृत्व को बांग्लादेशी अधिकारियों के सामने इस गंभीर मुद्दे को उठाने में एक नैतिक दुविधा का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि देश में ही कुछ अराजक तत्व मुस्लिम महिलाओं के हिजाब जबरदस्ती उतारते देखे जा रहे हैं। कट्टरपंथियों से भरी इस दुनिया में महिलाओं के अधिकारों और गरिमा के लिए वास्तव में कौन खड़ा होगा?”
देखा जाये तो महबूबा मुफ्ती का बयान भारत के खिलाफ़ अंतरराष्ट्रीय विमर्श को धार देने और बांग्लादेश के कट्टरपंथी तंत्र की जवाबदेही को धुंधला करने का काम करता है। आज सवाल यह नहीं है कि “कट्टरपंथियों से भरी इस दुनिया में महिलाओं के अधिकारों के लिए कौन खड़ा होगा?”, सवाल यह है कि क्या हम पीड़ितों के साथ ईमानदारी से खड़े होंगे या राजनीतिक संतुलन साधने के लिए उनकी पीड़ा को तुलनाओं में दबा देंगे। भारत का लोकतंत्र मज़बूत है, यहां अल्पसंख्यक सुरक्षित हैं और कानून का राज है। जबकि बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा आज भी एक गंभीर चुनौती बनी हुई है। इस स्पष्ट अंतर को स्वीकार करने के बजाय भ्रम फैलाना, न तो नैतिक है और न ही न्यायसंगत।


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