सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को कहा कि कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट की शक्ति न तो जजों की निजी सुरक्षा का कवच है और न ही आलोचना को दबाने का हथियार। अदालत ने कहा- न्याय में दया और क्षमा भी उतनी ही अहम है, खासकर तब जब व्यक्ति अपनी गलती स्वीकार कर ले। यह टिप्पणी जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की बेंच ने बॉम्बे हाईकोर्ट के एक आदेश को पलटते हुए दी। इस फैसले में एक महिला को स्वतः संज्ञान लेते हुए क्रिमिनल कंटेम्प्ट मामले में एक हफ्ते की जेल और ₹2,000 जुर्माने की सजा दी गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि महिला ने अपनी गलती स्वीकार कर माफी मांगी थी, इसलिए सजा को माफ किया जाता है। महिला सीवुड्स एस्टेट्स लिमिटेड हाउसिंग सोसाइटी की पूर्व निदेशक थीं। उनपर आरोप था कि उन्होंने जनवरी 2025 में एक नोटिस जारी किया था, जिसमें डॉग माफिया जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया। यह टिप्पणी उस समय अदालत में चल रहे एनिमल बर्थ कंट्रोल रूल्स, 2023 के खिलाफ मुकदमे के दौरान आई थी। हाईकोर्ट ने इसे अदालत की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाने वाला बताया और अवमानना माना। महिला ने सशर्त माफी मांगी महिला ने बाद में अदालत में बिना शर्त माफी मांगी और बताया कि यह सर्कुलर सोसाइटी निवासियों के दबाव में जारी हुआ था। लेकिन बॉम्बे हाईकोर्ट ने माफी को असली पश्चाताप नहीं मानते हुए सजा दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा- कंटेम्प्ट कानून सजा देने के साथ-साथ माफ करने की शक्ति भी देता है, और एक सच्ची माफी को सिर्फ इसलिए खारिज नहीं किया जा सकता कि वह सशर्त है। ‘बॉम्बे हाईकोर्ट ने सजा सुनाते समय विवेक से काम नहीं लिया’ कोर्ट ने माना कि बॉम्बे हाईकोर्ट ने सजा सुनाते समय विवेक से काम नहीं लिया और सही तरीके से कानून का अर्थ नहीं समझा। बेंच ने कहा कि गलती स्वीकारने के लिए साहस चाहिए और माफ करने के लिए उससे भी ज्यादा बड़ा दिल। अदालत ने अंत में कहा कि यह मामला सजा का नहीं, बल्कि पश्चाताप स्वीकारने और न्याय में मानवीय नजरिया अपनाने का उदाहरण है। —————————-
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