सीटों का बंटवारा, पैसों का लालच और धोखा…आजादी से पहले चुनाव जीतने के लिए कैसे पार हुईं हदें?
प्रेम और युद्ध में कोई कायदे-कानून नहीं होते. लेकिन चुनाव भी इससे अलग नहीं. उसमें भी जीत पक्की करने के लिए तीन-तिकड़म और हर हथकंडा जायज मान लिया जाता है. गलतफहमी है कि भारत के चुनाव सिस्टम में इस रोग की शुरुआत आजादी के बाद हुई. असलियत में यह सिलसिला आजादी के पहले अंग्रेजों की सरपरस्ती में होने वाले चुनावों के वक्त से ही शुरू हो गया.
आजादी के लिए लड़ने और बार-बार जेल यात्राएं करने वाले सेनानियों के सामने भी जब चुनाव में जीतने की चुनौती आई तो उन्होंने इसके लिए हर मुमकिन रास्ता अख्तियार किया. आजादी के संघर्ष में ग्यारह साल जेल में बिताने वाले महावीर त्यागी कई बार सांसद और विधायक रहे. पंडित नेहरू के मंत्रिमंडल में भी शामिल रहे. ऐसे तेज-तर्रार सांसद थे कि 1962 के युद्ध में अक्साई चीन का इलाका चीन के कब्जे में चले जाने के बाद पंडित नेहरू ने जब संसद में कहा कि “इस इलाके में घास का एक तिनका भी नहीं उग सकता ” तो त्यागी ने अपने केश विहीन सिर से टोपी उतारी और कहा, “इस पर भी कुछ नहीं उगता, क्या इसे काट देना चाहिए या किसी और को दे देना चाहिए?”
पढ़िए त्यागी ने अपनी किताब, “वे क्रांति के दिन” में पंडित मदन मोहन मालवीय और रफी अहमद किदवई से माफी मांगते हुए 1936 के यूपी असेंबली के चुनाव के सिलसिले में क्या लिखा है
अंग्रेज गवर्नर चाहते थे कांग्रेस हारे
चुनाव में अंग्रेज गवर्नर काफी दिलचस्पी ले रहे थे. उनकी शह पर राजे-महाराजाओं-ताल्लुकदारों की एग्रीकल्चरिस्ट पार्टी बन गई थी. इस पार्टी का काफी जोर था. जिलों के कलेक्टरों का भी उसे सहयोग था. पंडित मदन मोहन मालवीय की इंडिपेंडेंट कांग्रेस पार्टी भी मैदान में थी. रफी अहमद किदवई कांग्रेस के यूनाइटेड प्रॉविंस (उत्तर प्रदेश) के अध्यक्ष थे. कांग्रेस के प्रभावशाली नेता राज्य स्तर के चुनाव में उम्मीदवारी के इच्छुक नहीं थे. कांग्रेस के सामने पैसे का भी संकट था. अंग्रेज चाहते थे कि कांग्रेस जीतने न पाए. इधर मालवीय की पार्टी की वजह से भी कांग्रेस का नुकसान तय माना जा रहा था. उन दिनों मालवीय देहरादून में थे. वहां के निवासी महावीर त्यागी उनका कुशल क्षेम पूछने के लिए जाते रहते थे. किदवई को इसकी जानकारी थी.

रफी अहमद किदवई.
कांग्रेस और मालवीय का समझौता
किदवई ने त्यागी पर जिम्मेदारी डाली कि वे मालवीय को कांग्रेस से गठबन्धन में लड़ने को राजी करें. कांग्रेस से सिर्फ कम्युनल एवॉर्ड पर उनका मतभेद है. बाकी उनके और कांग्रेस के वसूल एक हैं. अलग चुनाव लड़ेंगे. खुद जीतेंगे नहीं. कांग्रेस को भी हराएंगे. जीत जाएगी एग्रीकल्चरिस्ट पार्टी. अंग्रेजों की चाहत पूरी हो जाएगी. कांग्रेस से समझौता कर लें. कुछ सीटें उनके लिए छोड़ देंगे. इसके बाद त्यागी ने मालवीय से भेंट की. उन्हें भी समझ में आया. अगले ही दिन किदवई देहरादून पहुंच गए. बात आगे बढ़ी.
मालवीय ने पूछा कि हमारी पार्टी को कितनी सीटें दोगे? किदवई ने कहा कि जितनी आप चाहें ले लें! मालवीय को आश्चर्य हुआ. कहा सच? मालवीय ने कहा पंद्रह सीटें दे दो. जवाब में किदवई ने 25 की पेशकश करके उन्हें फिर चौंकाया! फिर 20 के लिए राजी हुआ. मालवीय ने लिख कर मांगा. किदवई ने दे दिया. फिर आगे खुला राज कि मालवीय की मांग से ज्यादा सीटें देने को क्यों किदवई हुए थे तैयार?
ज्यादा सीटें देने को कांग्रेस क्यों हुई तैयार?
किदवई ने लखनऊ से दो-तीन दिन बाद त्यागी को फिर फोन किया. समस्या बताई कि सभी सीटों पर तो कांग्रेस के उम्मीदवारों के नामों की घोषणा कर दी. अब मालवीय 20 उम्मीदवारों के लिए किसे हटाऊं? तुम कुछ ऐसी होशियारी करो कि कुछ कांग्रेस के उम्मीदवार मालवीय की पार्टी की ओर खिसका दो लेकिन उन्हें यह पता न लगने पाए. त्यागी को फिक्र हुई कि मालवीय को पता लग गया तो क्या कहेंगे?
किदवई ने हौसला दिया कि मेरे-तुम्हारे बीच की बात है. उन्हें कैसे पता चलेगा? फिर त्यागी ने कहा कि कल सरदार पटेल और महात्मा गांधी तक बात पहुंचेगी तो क्या मुंह दिखाएंगे? किदवई ने फिजूल की बातों को न सोचने की नसीहत दी. त्यागी की हिम्मत फिर भी नहीं पड़ रही थी. तुरंत ही लखनऊ रवाना हुए. ऊंच-नीच समझने के लिए.

पंडित मदन मोहन मालवीय.
चुनाव यानी हर दलील जायज!
देहरादून की वापसी में त्यागी तय कर चुके थे कि मालवीय को कैसे राजी करना है? मालवीय को बताया कि कांग्रेस से मिलकर लड़ने के उनके फैसले की हर ओर तारीफ हो रही है. उनके कद का कोई नेता नहीं है. सभी कांग्रेसी कह रहे हैं कि आपके कांग्रेस से कुछ मतभेद हो सकते हैं लेकिन जहां देश का सवाल है, वहां देश सबसे आगे है.
फिर भी कांग्रेसियों के बीच कुछ खुसुर-पुसुर है. क्या? मालवीय ने कहा वह भी बताओ. त्यागी ने कहा कि बंबई कांग्रेस में कम्युनल एवॉर्ड का आपने विरोध किया. बहुत से कांग्रेसियों ने आपका साथ दिया. लेकिन सरदार पटेल के पक्ष में बहुमत गया. आपका साथ देने वाले कई कांग्रेसियों का कहना है कि काश वे आपका साथ नहीं देते! क्योंकि इसी वजह से सरदार पटेल उनसे बदला ले रहे हैं. आपका समर्थन करने वालों को बीन-बीन कर टिकट से वंचित किया जा रहा है. उन्हें यह रंज है कि पटेल तो बदला ले रहे हैं और दूसरी ओर मालवीय भी अपने हिस्से की सीटों में उनके नाम शामिल नहीं कर रहे हैं. मालवीय ने कहा, ” हरे हरे हरे हरे – ऐसा है तो उनके नाम दो. मैं उनको जरूर खड़ा करूंगा.”
अपनों को धोखा जायज!
सरल मालवीय ने त्यागी से कहा कि नाम बताओ. त्यागी ने कहा कि बहुत हैं. कितने नाम बताऊं? मालवीय ने कहा हरि जी (हृदय नाथ कुंजरू), सी.वाई. चिंतामणि, चौधरी मुख्तार सिंह आदि का मेरे लिए छोड़ दो. बाकी 14-15 के नाम दे दो. त्यागी ने लखनऊ पहुंच किदवई से कहा कि किसके नाम दूं? किदवई ने कहा कि कुछ पूरब कुछ पश्चिम के. जो समझ में आएं वे नाम दे दो. त्यागी ने कहा कि क्या सारी जालसाजी मेरे हिस्से ही आएगी? आप तो कुर्ता झाड़ कर किनारे हो जाएगे. पटेल और गांधी के दरबार में तो मेरीे ही खबर ली जाएगी. त्यागी पिछड़ रहे थे. किदवई ने कहा, “अरे क्या बेवकूफी की बात करते हो. जरा हिम्मत से काम लो. किसी गैर को धोखा नहीं दे रहे हो !”

महावीर त्यागी.
उम्मीदवार कांग्रेस के, पैसा मालवीय से
त्यागी ने मालवीय को नाम सौंप दिए. मालवीय ने कहा कि जिनके नाम दे रहे हो उनसे पहले पूछ लो. ऐसा न हो कि उनकी उम्मीदवारी का ऐलान करूं और वे इनकार कर दें.त्यागी ने आश्वस्त किया. असलियत में नाम देने के पहले ही त्यागी ऐसे साथियों को चिठ्ठी लिख चुके थे, “मालवीय को मत बताना. असल में आप कांग्रेस के उम्मीदवार हो लेकिन मालवीय का टिकट ले लेना. पांच-दस हजार रुपए भी मिल जाएंगे और मालवीय की पार्टी से मुकाबला भी नहीं करना होगा. बिना मुकाबले चुन लिए जाओगे.” त्यागी ने जो नाम दिए थे, उनमें एक घनिष्ठ मित्र अलीगढ़ के ठाकुर टोडर सिंह भी थे. मेरठ जेल में वे साथ रहे थे.
बेच दिया गया कांग्रेसी बकीमत दस हजार
आखिर वही हुआ, जिसका त्यागी को डर था. ठाकुर टोडर सिंह ने महात्मा गांधी को उर्दू में एक खत में लिखा, “एक रास मवेशी (बैल) मुसम्मी टोडर सिंह को महाबीर त्यागी ने बकीमत दस हजार रुपए फरोख्त कर दिया मालवीय के हाथ और उसका रस्सा आपके खूंटे से खोलकर मालवीय के खूंटे में बांध दिया. और उस पर हिदायत यह है कि किसी से कहना मत. इसके बदले चुनाव लड़ने के लिए दस हजार रुपए दिए जा रहे हैं. इस हैसियत पर उतर आई है आपकी कांग्रेस! “
महात्मा गांधी ने चिठ्ठी केंद्रीय पार्लियामेंट्री बोर्ड के प्रधान सरदार पटेल को भेज दी. उन्होंने तुरंत ही बनारस में बोर्ड की बैठक बुलाई. पटेल, नेहरू, टंडन और संपूर्णानंद सभी इस समझौते के खिलाफ थे. पटेल तो ज्यादा ही नाराज थे. वे तो चाहते थे कि मालवीय के उम्मीदवार हर जगह हराए जाएं. बोर्ड जानना चाहता था कि किसकी इजाज़त से मालवीय जी से समझौता हुआ?
पटेल की डांट भी बेअसर
परेशान त्यागी ने किदवई से पूछा कि टोडर सिंह की चिठ्ठी पर क्या सफाई दूं? किदवई ने कहा कि कह दो मैंने नहीं लिखी. त्यागी ने कहा मेरी दस्तखत है. जवाब मिला कि फिर भी इंकार करो. त्यागी हर कदम में रफी के साथ थे. तो पटेल के मित्र थे. फिर रफी को भरोसे में लेकर पटेल के सामने पूरा किस्सा बयान कर दिया.
रफी को पटेल से बहुत कुछ सुनना पड़ा. त्यागी ने लिखा, “रफी अहमद किदवई और प्रोविंशियल कांग्रेस कमेटी की वो खबर ली गई कि उम्र भर याद रखेंगे.” लेकिन त्यागी, रफी को आंक नहीं पाए. रफी ने सुन भले लिया हो लेकिन आगे भी की मन की ही. चुनाव में मालवीय की पार्टी से समझौता बदस्तूर कायम रहा. बाहर निकलते ही रफी कांग्रेस की जीत के लिए जो जरूरी समझते थे, उसमें फिर जुट गए. त्यागी के जरिए मालवीय से एक बार फिर कुछ मदद लेने की उनकी तैयारी थी.
मालवीय से रुपए हासिल करने के लिए फिर फैलाया जाल
बनारस की पेशी से लौटे त्यागी के पास रफी का फोन आया कि रुपए की बहुत जरूरत है. मालवीय जी से पंद्रह- बीस हजार दिलाओ. त्यागी ने कहा कि भाई रफी परसों ही सरदार पटेल से तौबा करके आया हूं. फिर फंसा रहे हो. रफी ने कहा, “जरा होशियारी से काम लो. सीधे रुपया न मांगो. कहना कि बनारस में लोग चर्चा कर रहे हैं कि मालवीय हिंदुओं के बड़े रक्षक बनते हैं. हरिजनों की तरक्की की बात करते हैं लेकिन एक भी हरिजन को अपनी पार्टी का टिकट नहीं दिया. “
त्यागी ने कहा, यह तो कह दूंगा लेकिन इससे रुपए का क्या ताल्लुक? रफी ने कहा पहले कहो, फिर देखना. एक बार फिर मालवीय के समक्ष त्यागी उपस्थित थे. रफी साहब के पाठ को शब्दशः दोहरा दिया. सुनकर मालवीय को इतना धक्का लगा कि तकिए पर टिक गए. बोले अनर्थ हो गया. भयंकर भूल हुई. अब क्या हो सकता है? त्यागी तुम तुरंत लखनऊ जाओ और रफी से कहो कि हमारी लाज रखने के लिए दो और सीटें हमें दे दे और अपने हरिजन उम्मीदवारों को हमारे टिकट स्वीकार करने के लिए तैयार कर दें. त्यागी चकित थे. सोच रहे थे कि क्या रफी कोई औलिया हैं जो दूसरा आगे क्या करेगा, यह पहले ही जान लेते हैं.
इस बार हरिजन उम्मीदवारों के नाम पर!
मालवीय ने अपने पुत्र गोविंद मालवीय को त्यागी को तुरंत लखनऊ भेजने की व्यवस्था का निर्देश दिया. फर्स्ट क्लास का रिजर्वेशन हुआ. मालवीय ने सौ रुपए अलग से दिए. त्यागी के अनुसार यह रुपए उन्होंने वैसे ही उत्साह-प्यार से स्वीकार किए, जैसे बाप से बेटा पाता है. रफी ने लखनऊ से मालवीय को फोन किया, ” दो नहीं चार हरिजन आपको दूंगा. पर उन्हें दूंगा जिनके जीतने की उम्मीद नहीं है, क्योंकि हमारे पास रुपए की कमी है और उनकी जीत के लिए कम से कम पचास हजार खर्च करने होंगे.” मालवीय को खर्च से एतराज नहीं था. जवाब दिया, “मुझे चार हरिजन दे दो. पार्टी का कल्याण हो जाएगा. खर्च और जिताने की जिम्मेदारी मेरी. “त्यागी ने आगे लिखा, “फिर चार नाम मालवीय को दे दिए और उनका चुनाव खर्च लिया. जितना भी रुपया आया-सब उन हरिजन उम्मीदवारों पर तो खर्च हुआ नहीं. बाकी औरों पर हुआ.” चुनाव में कांग्रेस को बहुमत मिला और उसकी सरकार बनी.
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