संघ के किस फैसले से नेहरू प्रभावित हुए, इंदिरा-राजीव ने कैसे RSS की मांग का मान रखा?
संघ अपने सकारात्मक प्रयासों से वैचारिक विरोधियों को भी आकर्षित करने में सफल रहा है. संघ विश्वास करता है कि असहमत लोग भी जब नजदीक आएंगे, तो उनके बहुत से भ्रम दूर होंगे. मतभिन्नता के सच को वह स्वीकारता है लेकिन संवाद के जरिए समाधान के प्रति सदैव आशान्वित रहता है. राष्ट्रीय संकट या आपदाओं के समय संघ स्वयंसेवकों के भेदभाव रहित अनवरत सेवा-सहयोग प्रयासों को संघ के विरोधियों की भी सराहना प्राप्त होती रही है. संघ के शताब्दी वर्ष के अवसर पर पढ़िए ऐसे ही कुछ प्रसंग
यह 1962 का दुर्भाग्यपूर्ण वर्ष था. चीनी फौजें भारत की सीमाओं में लगातार आगे बढ़ती जा रही थीं. सैन्य सामग्री और युद्धक तैयारियों के अभाव में वीर भारतीय सैनिक अपनी जान की बाजी लगाने के बाद भी आक्रमणकारी चीनियों को रोक नहीं पा रहे थे. सेना और समूचे देश का मनोबल गिरा हुआ था. पंडित नेहरू और उनकी सरकार खुद को बेबस पा रहे थे.
1963 की गणतंत्र परेड में संघ की हिस्सेदारी
राष्ट्रीय संकट की इस घड़ी में समूचा देश एकजुट था. तमाम संगठन और नागरिक अपने स्तर पर सरकार और सेना के सहयोग में जुटे हुए थे. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ऐसे प्रयासों में अग्रणी भूमिका निभा रहा था. संघ की इस शानदार भूमिका ने पंडित नेहरू के मन को भी छुआ.
पंडित नेहरू का संघ विरोध जगजाहिर रहा है. लेकिन अगले ही साल 1963 की गणतंत्र दिवस की परेड में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को सम्मिलित होने का निमंत्रण दिया. संघ के तीन हजार गणवेशधारी स्वयंसेवकों ने परेड में कदम से कदम मिला आगे बढ़ते हुए संदेश दिया कि जहां सवाल देश का है, वहां कोई मतभेद नहीं. समूचा देश एकजुट-एकसाथ है.
1965 के युद्ध के समय सर्वदलीय बैठक में संघ भी शामिल
जल्दी ही 1965 में पाकिस्तान की चुनौती से देश रुबरु था. प्रधानमंत्री की कुर्सी पर छोटे कद लेकिन बड़े हौसले वाले लाल बहादुर शास्त्री थे. 1962 में चीन के हाथों भारत की हार के कारण पाकिस्तान गलतफहमी में था. इस समय तक पिछली गलतियों से सबक ले भारत उठ खड़ा हुआ था. सेना और सरकार मुकाबले को तैयार थे.
देश का जनमानस हौसला बढ़ाते हुए उन्हें मजबूती दे रहा था. संघ ने सहयोग की पेशकश की. उसके स्वयंसेवकों ने दिल्ली की ट्रैफिक व्यवस्था नियंत्रण की जिम्मेदारी लेकर पुलिस बल को अन्य बड़ी जिम्मेदारियों के लिए मुक्त किया. लाल बहादुर शास्त्री ने सर्वदलीय बैठक में विचार-विमर्श के लिए सरसंघचालक गुरु गोलवलकर को भी आमंत्रित किया. वैसे भी दोनों में संवाद होता रहता था. लाल बहादुर शास्त्री ने इस युद्ध के दौरान जय जवान-जय किसान का नारा दिया था. इस नारे को आचरण में उतारने के लिए संघ ने राष्ट्रव्यापी प्रयास किए.
इंदिरा गांधी ने दी विवेकानंद शिला स्मारक को मंजूरी
कन्याकुमारी में विवेकानंद शिला स्मारक का निर्माण संघ के प्रयासों से हुआ. एकनाथ रानाडे ने इसकी अगुवाई की. निर्माण प्रस्ताव को तत्कालीन शिक्षा – संस्कृति मंत्री हुमायूं कबीर ने अस्वीकार कर दिया था. रानाडे ने तीन दिन के भीतर स्मारक के निर्माण के समर्थन में अनेक दलों के 323 सांसदों के हस्ताक्षर जुटाए. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने प्रस्ताव को स्वीकृति प्रदान करके निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया. निर्माण में सबकी भागीदारी के लिए रानाडे ज्योति बसु, फारुख अब्दुल्ला और देवी लाल सहित भिन्न सोच और दलों के अनेक नेताओं से मिले. अधिकांश ने सहयोग किया.

इंदिरा गांधी.
1963 में स्वामी विवेकानंद की जन्मशती के अवसर पर संघ ने सभी राजनीतिक दलों एवं सामाजिक संगठनों के प्रमुख व्यक्तियों को आमंत्रित किया था. 1970 में शिला स्मारक का उद्घाटन राष्ट्रपति वीवी गिरी ने किया था. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी इस कार्यक्रम में सम्मिलित हुई थीं. इंदिरा रानाडे के काम से काफी प्रभावित थीं. आगे भी दोनों का संपर्क रहा. इमरजेंसी के दौरान जब पी.सी. सेठी और विद्याचरण शुक्ल ने संघ की फंडिंग के नाम पर रानडे को घेरने की कोशिश की तो इंदिरा गांधी ने उन्हें सिर्फ रोका ही नहीं अपितु रानडे को इंडियन काउंसिल ऑफ कल्चरल रिलेशंस का सदस्य नियुक्त कर पुरस्कृत किया.
के.गोविंदाचार्य के अनुसार इंदिरा की संघ से यह संपर्क कड़ी रानडे से आगे मोरोपंत पिंगले से होते बाला साहब देवरस तक पहुंचती थी. यहां तक कि संघ से गहरा जुड़ाव रखने वाले सर्वोदय नेता रमाकांत पाटिल को भी इंदिरा गांधी संपर्क में रखती थीं.

राजीव गांधी ऐसे पीएम थे जो हमेशा संवाद करने में भरोसा रखते. फोटो: INC
राजीव गांधी ने भाऊराव के आग्रह पर रामायण प्रसारण की अनुमति दी
राजीव गांधी और भाऊराव देवरस के संबंध तो और भी मधुर थे. उन दिनों भाऊराव संघ की ओर से भाजपा का कार्य देखते थे. इंदिरा गांधी के जीवन काल में ही राजीव गांधी और भाऊराव की कम से कम तीन मुलाकातें हुईं. ये सम्बन्ध राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने और फिर कुर्सी से हटने के बाद भी जारी रहे. दोनों के बीच की मुलाकातों और इनमें हुई चर्चा की एक अलग कथा है.
भाऊराव से राजीव गांधी कितना प्रभावित थे, इसका अनुमान दूरदर्शन पर रामायण के प्रसारण प्रसंग से पता चलता है. कांग्रेस नेता एच.के. एल.भगत जो बाद में सूचना प्रसारण मंत्री भी बने, इस प्रसारण के खिलाफ थे.
उन्हें लगता था कि इससे संघ, विहिप जैसे हिंदू संगठनों को ताकत मिलेगी. भाऊराव देवरस ने राजीव गांधी को चिरंजीव राजीव के आत्मीय संबोधन के साथ पत्र लिखा और पूछा रामायण भारत में नहीं दिखाई जाएगी तो क्या न्यूयार्क में दिखाई जाएगी? जवाब में राजीव गांधी ने आपत्तियों को दरकिनार करके दूरदर्शन पर रामायण के प्रसारण की अनुमति दी थी. 25 जनवरी1987 से 31 जुलाई 1988 के बीच इसे लगभग पैंसठ करोड़ लोगों ने देखा. रविवार को सुबह रामायण के प्रसारण के समय सड़कें सूनी हो जाती थीं.

पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी.
प्रणव मुखर्जी संघ के मंच पर
बेशक संघ अपने काम खामोशी से करता है. उसके कार्यक्रम भी काफी अनुशासित और समयबद्ध होते हैं. लेकिन अपने मंच पर वह ऐसी शख्सियतों को लाने में सफल रहता है, जिनसे उसकी वैचारिक साम्यता नहीं होती है. जाहिर है कि संघ के कार्यक्रम में ऐसे लोगों की भागीदारी की गूंज दूर तक सुनाई देती है. 2018 में नागपुर के रेशीमबाग में संघ शिक्षा वर्ग-तृतीय वर्ष के समापन समारोह में पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के शामिल होने पर बहस छिड़ गई थी . प्रणब दा को रोकने के लिए पत्र लिखे गए. उनकी आलोचना हुई . लेकिन प्रणब मुखर्जी अडिग रहे.
समारोह में शामिल हुए. आद्य सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार के घर भी गए. (संग्रहालय) भी गए और विजिटर बुक में लिखा- मैं आज भारत मां के महान सपूत डॉ. केबी हेडगेवार के प्रति सम्मान और श्रद्धांजलि अर्पित करने आया हूं. ” इंदिरा गांधी और नरसिंहा राव की सरकार में मंत्री रहे अरविंद नेताम ने जब संघ के एक कार्यक्रम में सम्मिलित होने का निर्णय किया तो विरोध के स्वरों को दरकिनार करते हुए उन्होंने कहा कि, “वनवासी समाज की समस्याओं और चुनौतियों को संघ कार्यक्रम के माध्यम से उठाने का मुझे अवसर मिला है. मैं संघ के कार्यक्रम में शामिल होने जा रहा हूं.”
उन्होंने संघ के संबंध में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी यह भी की कि इस संगठन में चिंतन-मंथन की गहरी परंपरा है. भविष्य में जनजातीय समाज के सामने जो चुनौतियां आने वाली हैं, उसमें आदिवासी समाज को जो संभालने वाले और मदद करने वाले लोग और संगठन हैं, उनमें हम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को शामिल मानतेहैं.”
असहमति के स्वरों से भी संवाद
असहमति रखने वालों से संवाद की संघ की परम्परा उसकी स्थापना के समय से ही चली आ रही है. महात्मा गांधी और डॉक्टर भीम राव आंबेडकर भी उसके कार्यक्रमों में शामिल हुए. महात्मा गांधी की हत्या के बाद संघ के विरुद्ध प्रदर्शन करने वाले जयप्रकाश नारायण 1974 में संपूर्ण क्रांति आंदोलन के दौरान संघ के निकट हो गए. डॉक्टर राम मनोहर लोहिया और संघ के पदाधिकारियों के मध्य सतत् संवाद चलता रहा
आचार्य विनोबा भावे ने कहा था, मैं संघ का विधिवत सदस्य नहीं हूं, फिर भी स्वभाव से, परिकल्पना से मैं स्वयंसेवक हूं.” दलाई लामा संघ के अनेक कार्यक्रमों में शामिल हुए और संघ कार्य ने उन्हें प्रभावित किया. 1977 में आंध्रप्रदेश में आए चक्रवात के समय स्वयंसेवकों के सेवा कार्यों को देखकर वहां के सर्वोदयी नेता प्रभाकर राव ने तो संघ को नया नाम दे दिया था.
उनके अनुसार, RSS अर्थात् रेडी फॉर सेल्फलेस रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया के नेता दादासाहेब रामकृष्ण सूर्यभान गवई तथा वाम धारा के जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर, हाल के वर्षों में नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी, डीआरडीओ के पूर्व डायरेक्टर जनरल विजय सारस्वत, एचसीएल के प्रमुख शिव नाडर, नेपाल के पूर्व सैन्य प्रमुख रुकमंगुड कटवाल जैसे अनेक प्रमुख नाम हैं , जिनकी संघ के विजयादशमी कार्यक्रमों में उपस्थिति के जरिए संघ ने संदेश दिया कि भिन्न विचारों का भी वह स्वागत करता है.
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