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मधेपुरा में राजकीय महोत्सवों के गिरते स्तर पर मंथन:IPTA ने संस्कृत गिरावट पर जताई चिंता, गायक रौशन को शोकॉज नोटिस को बताया दुर्भाग्यपूर्ण

भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) मधेपुरा की एक महत्वपूर्ण बैठक शुक्रवार को आयोजित की गई, जिसमें जिले समेत कोसी–सीमांचल क्षेत्र में हो रहे राजकीय महोत्सवों के उद्देश्य, गुणवत्ता और वर्तमान स्वरूप पर गंभीर मंथन हुआ। बैठक की अध्यक्षता इप्टा के जिलाध्यक्ष डॉ. नरेश कुमार ने की। वक्ताओं ने एक स्वर में कहा कि जिन उद्देश्यों से इन महोत्सवों की शुरुआत हुई थी, वे अब कमजोर पड़ते जा रहे हैं और आयोजन धीरे-धीरे केवल औपचारिकता और मनोरंजन तक सीमित हो गए हैं। कोसी–सीमांचल में महोत्सव परंपरा की शुरुआत बैठक को संबोधित करते हुए इप्टा अध्यक्ष डॉ. नरेश कुमार ने कहा कि कोसी और सीमांचल क्षेत्र में सांस्कृतिक महोत्सवों की परंपरा की नींव इप्टा ने ही रखी थी। वर्ष 1997 में कटिहार में आयोजित पहला कोसी महोत्सव इसका उदाहरण है। उस समय उद्देश्य था—स्थानीय लोककला, संस्कृति और कलाकारों को मंच प्रदान करना तथा क्षेत्रीय पहचान को मजबूती देना। शुरुआती वर्षों में यह महोत्सव कोसी और सीमांचल के विभिन्न जिलों में घूम-घूमकर आयोजित होता रहा। राजकीय स्वरूप मिलने के बाद बदली दिशा डॉ. नरेश कुमार ने बताया कि बाद में तत्कालीन कला एवं संस्कृति मंत्री अशोक सिंह के सहयोग से इन महोत्सवों को राजकीय स्वरूप मिला। वर्ष 2003-04 से इसका आयोजन नियमित रूप से सहरसा में होने लगा। उन्होंने कहा कि शुरुआती दौर में मधेपुरा, सहरसा और सुपौल के स्थापित लोक एवं शास्त्रीय कलाकारों को प्रमुखता दी जाती थी, लेकिन वर्तमान में स्थिति बदल चुकी है। अब स्थानीय कलाकारों की भागीदारी घटती जा रही है और आयोजन महज भीड़ जुटाने तक सीमित हो गए हैं। कलाकारों के सम्मान पर सवाल बैठक में गोपाष्टमी महोत्सव के दौरान भावुक होने पर युवा कलाकार रौशन कुमार को दिए गए शोकॉज नोटिस को दुर्भाग्यपूर्ण बताया गया। वक्ताओं ने कहा कि कलाकार का भावनात्मक होना उसकी संवेदनशीलता और कला से जुड़ाव को दर्शाता है, न कि कोई अनुशासनहीनता। इप्टा संरक्षक एवं पूर्व अध्यक्ष आलोक कुमार ने कहा कि कलाकारों की अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाना कला के मूल स्वरूप के खिलाफ है। भारी खर्च, लेकिन सांस्कृतिक लाभ शून्य आलोक कुमार ने महोत्सवों पर हो रहे भारी खर्च पर भी सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि प्रति घंटे लाखों रुपये खर्च किए जा रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद न तो स्थानीय कला को बढ़ावा मिल रहा है और न ही नई पीढ़ी को संस्कृति से जोड़ा जा पा रहा है। इप्टा संरक्षक डॉ. रीता कुमारी ने कहा कि इन आयोजनों से मौलिक और शास्त्रीय कलाकार धीरे-धीरे गायब होते जा रहे हैं और महोत्सव सस्ते मनोरंजन का साधन बनते जा रहे हैं। प्रशासन से ठोस पहल की मांग इप्टा संरक्षक डॉ. बीएन विवेका ने कलाकारों और दर्शकों के सम्मान से जुड़े मुद्दों पर चिंता जताई। वहीं प्रभारी सचिव तुरबसु ने जिला प्रशासन से जिला ऑडिटोरियम को शीघ्र चालू करने, खेल एवं सांस्कृतिक कैलेंडर तैयार करने और एक स्थायी कला-संस्कृति समिति के पुनर्गठन की मांग की। उन्होंने कहा कि यदि प्रशासन गंभीर पहल करे तो महोत्सवों को फिर से सांस्कृतिक आंदोलन का रूप दिया जा सकता है।


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