सीवान के हुसैनगंज प्रखंड का जमालहाता गांव जिसे कभी “बिहार का मैनचेस्टर” कहा जाता था, आज अपने शानदार इतिहास को बचाने की जद्दोजहद में जुटा हुआ है। 80 और 90 के दशक में यह गांव सूती वस्त्र उत्पादन का अहम केंद्र माना जाता था। गांव के लगभग हर घर में करघों की लगातार गूंजती ‘खट-खट’ की आवाज इसकी पहचान हुआ करती थी। यहां तैयार होने वाली साड़ियां, चादरें, लुंगी और गमछे न सिर्फ बिहार बल्कि देश के कई राज्यों तक भेजे जाते थे। ऐतिहासिक रूप से भी जमालहाता की पहचान खास रही है। बताया जाता है कि देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को यहां के बुनकरों के हाथों तैयार सूती वस्त्र बेहद पसंद थे। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जीरादेई में महात्मा गांधी से मुलाकात के समय उन्होंने बापू को जमालहाता निर्मित वस्त्र भेंट किए थे। कारीगरों के लिए उपलब्ध कराई थी वैन राष्ट्रपति बनने के बाद भी डॉ. प्रसाद इन्हीं कपड़ों का इस्तेमाल करते थे। यही वजह थी कि बुनकरों के उत्थान हेतु उन्होंने तीन मोबाइल वैन उपलब्ध कराई थीं, ताकि कारीगरों को बाजारों में सामान ढोकर बेचने की कठिनाई न झेलनी पड़े। लेकिन समय बदला और जमालहाता की रौनक धीरे-धीरे फीकी पड़ने लगी। संसाधनों का अभाव, पावरलूम की कमी, महंगा पड़ता सूत, कम मजदूरी और सरकारी उपेक्षा ने इस पुरखों की कला को गर्त में धकेल दिया है। दो दशक पहले जहां हर घर में करघे चलते थे, वहीं अब कुछ चुनिंदा घरों से ही काम की आहट सुनाई देती है। बुनकरों के लिए परिवार चलाना मुश्किल स्थानीय बुनकर मो. शाहिद अंसारी बताते हैं कि आज न तो वह योजना बची, न ही बुनकरों के भविष्य की कोई ठोस पहल। उनका कहना है कि मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं, जबकि सहायता नगण्य है। युवा बुनकर इरफान अंसारी का कहना है कि नई पीढ़ी इस पेशे को अपनाना नहीं चाहती। “सूत महंगा, मजदूरी कम… ऐसे में परिवार चलाना मुश्किल है। कई लोग विदेशों में मेहनत-मजदूरी को मजबूर हैं,” वे कहते हैं। खुर्शीद अहमद चेतावनी देते हैं कि यदि समय रहते कदम नहीं उठाए गए, तो जमालहाता की पहचान इतिहास में सिमटकर रह जाएगी। गांव में कभी साड़ी प्रिंटिंग फैक्ट्री भी थी, जो आज खंडहर बन चुकी है। सरकारी योजनाओं से वंचित हैं कारीगर वास्तविकता यह है कि कृषि के बाद सबसे अधिक रोजगार हस्तकरघा उद्योग देता है, फिर भी कारीगर सरकारी योजनाओं से वंचित हैं। कभी जिसकी साड़ियों और वस्त्रों की मांग पंजाब, मेरठ, मऊ, देवरिया और भटनी तक थी, आज वही उत्पाद स्थानीय बाजारों से भी गायब होते जा रहे हैं। जमालहाता को पुनर्जीवित करने के लिए जरूरी है कि सरकार प्रशिक्षण, तकनीकी सहायता और बेहतर बाजार उपलब्ध कराए। यदि ऐसा हुआ, तो यह गांव एक बार फिर “बिहार का मैनचेस्टर” कहलाने की अपनी खोई हुई पहचान हासिल कर सकता है।
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