नालंदा की धरती पर एक बार फिर ज्ञान की गंगा प्रवाहित हुई। नालंदा विश्वविद्यालय में शुक्रवार को “धर्म और वैश्विक नैतिकता: भारतीय शास्त्र-परंपरा के आलोक में” विषय पर आयोजित अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में नौ देशों के विद्वानों ने एक स्वर में यह माना कि आज की वैश्विक चुनौतियों का समाधान भारतीय ज्ञान परंपरा में निहित है। थाईलैंड के सुप्रसिद्ध संस्कृत विद्वान और पद्मश्री सम्मानित प्रो. चिरापत प्रपांद्विद्या ने अपने उद्बोधन में कहा कि भारतीय शास्त्रीय परंपराएं केवल भारत की ही नहीं, बल्कि संपूर्ण एशिया की सांस्कृतिक एकता की आधारशिला हैं। संस्कृत-पाली ग्रंथों के गहन अध्ययन के आधार पर उन्होंने यह रेखांकित किया कि एशियाई देशों की साझा सभ्यतागत विरासत इन्हीं परंपराओं से जुड़ी है। प्रो. प्रपांद्विद्या ने कहा कि ये शास्त्रीय परंपराएं धर्म को एक सार्वभौमिक नैतिक सिद्धांत के रूप में प्रस्तुत करती हैं। भारतीय और एशियाई मूल्यों में आज भी एक मजबूत वैश्विक नैतिक आधार तैयार करने की पूरी क्षमता विद्यमान है। वैश्विक अस्थिरता के बीच भारतीय चिंतन की प्रासंगिकता नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. सचिन चतुर्वेदी ने वर्तमान वैश्विक परिदृश्य पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि दुनिया को ऐसे चिंतकों और नेताओं की सख्त जरूरत है जो करुणा, पारस्परिकता और कालातीत ज्ञान पर आधारित नेतृत्व प्रदान कर सकें। हमारा दायित्व है कि हम एक ऐसा वैश्विक समुदाय निर्मित करें जहां शांति, अहिंसा और संतोष हमारे सामूहिक आचरण में फिर से प्रतिष्ठित हो सकें। उन्होंने इस बात पर विशेष बल दिया कि धर्म के मूल मूल्य—करुणा, संयम, संवाद और सहअस्तित्व—आज की वैश्विक चुनौतियों का समाधान प्रदान कर सकते हैं। भगवद्गीता के मंत्रोच्चार से हुआ शुभारंभ कार्यक्रम की शुरुआत नालंदा विश्वविद्यालय के छात्रों की ओर से भगवद्गीता के ध्यान-श्लोकों के सामूहिक पाठ से हुई। इस मंत्रोच्चार ने पूरे परिसर को एक आध्यात्मिक ऊर्जा से आप्लावित कर दिया और सम्मेलन के लिए एक उपयुक्त वातावरण तैयार किया। डीन सह सम्मेलन संयोजक प्रो. गोदावरिश मिश्रा ने कहा कि भारतीय ज्ञान परंपरा अब केवल अकादमिक रिसर्च का विषय नहीं रह गई है। यह आधुनिक चुनौतियों का समाधान तलाशने का एक महत्वपूर्ण और सशक्त रास्ता बन चुकी है। चार सत्रों में हुई व्यापक चर्चा सम्मेलन में चार प्रमुख सत्रों का आयोजन किया गया—धर्म और संस्कृति, धर्म और दर्शन, धर्म और अर्थ, तथा धर्म और पर्यावरण। इन सत्रों में भारत, नेपाल, रूस, बेलारूस, मलेशिया, थाईलैंड, कजाकिस्तान, चीन, इथियोपिया, हंगरी और फिजी के विद्वानों, नीति-निर्माताओं, आध्यात्मिक साधकों और शोधकर्ताओं ने हिस्सा लिया। विशेष रूप से आयोजित सार्वजनिक सत्र “लोकसंग्रह और समकालीन विश्व” में वक्ताओं ने नैतिक नेतृत्व, वैश्विक उत्तरदायित्व और सभ्यतागत संवाद की आवश्यकता पर गहन विमर्श किया। केवल आध्यात्मिकता नहीं, व्यावहारिक जीवन का मार्गदर्शक विद्वानों ने इस बात पर सहमति जताई कि भारतीय शास्त्र-परंपरा केवल आध्यात्मिकता तक सीमित नहीं है। यह आर्थिक नीति निर्धारण, पर्यावरण संरक्षण और सामाजिक संतुलन स्थापित करने के लिए भी महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश प्रदान करती है। सम्मेलन में यह स्पष्ट रूप से रेखांकित किया गया कि जलवायु संकट, नैतिक असंतुलन, सांस्कृतिक असहिष्णुता और राजनीतिक-आर्थिक अस्थिरता जैसी समकालीन वैश्विक समस्याओं का समाधान भारतीय ज्ञान परंपरा में निहित है। वैश्विक नेटवर्क की स्थापना की दिशा में कदम नालंदा विश्वविद्यालय का यह प्रयास न केवल भारतीय चिंतन को अंतरराष्ट्रीय विमर्श में सुदृढ़ करता है, बल्कि एक ऐसे वैश्विक नेटवर्क के निर्माण की दिशा में भी महत्वपूर्ण कदम है जो ज्ञान, नैतिकता और स्थिरता पर आधारित भविष्य की रूपरेखा तैयार करेगा। वंदे मातरम् की 150वीं वर्षगांठ पर विशेष प्रस्तुति समापन सत्र में नालंदा विश्वविद्यालय के छात्रों ने वंदे मातरम् की भावपूर्ण प्रस्तुति दी। इसे राष्ट्रगीत वंदे मातरम् की 150वीं वर्षगांठ के अवसर पर विशेष रूप से कार्यक्रम में शामिल किया गया था। इस प्रस्तुति ने सम्मेलन को एक राष्ट्रीय गौरव के भाव के साथ संपन्न किया।
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