बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व में नई सरकार का गठन हो गया है। विधानसभा चुनाव के दौरान जनसभा को संबोधित करते हुए नीतीश कुमार ने कई बार कहा था कि उनके शासन में हिंदू-मुस्लिम के बीच कोई झगड़ा नहीं हुआ, जबकि ‘जंगलराज’ के समय ऐसी घटनाएं आम थीं। उन्होंने बिहार को शांति और सद्भाव का प्रतीक बताया। बता दें कि भागलपुर दंगा की चर्चा आज भी होती है। जानिए कहानी भागलपुर दंगे की, जिसमें एक हजार से ज्यादा लोगों का नरसंहार हुआ… 1989 का साल। प्रधानमंत्री थे राजीव गांधी। देश में हिंदुत्व का मुद्दा जोर पकड़ रहा था। शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के बाद राजीव गांधी, अयोध्या में राम मंदिर का ताला खुलवा चुके थे। दूसरी तरफ BJP और विश्व हिंदू परिषद यानी VHP अयोध्या में राम मंदिर बनवाने का ऐलान कर चुके थे। शिलान्यास की तारीख भी तय हो गई थी। कुछ ही दिनों बाद देश में चुनाव भी होने थे। बिहार का भागलपुर, यानी देश का सिल्क सिटी। यहां का तसर सिल्क दुनियाभर में मशहूर है। ताना और बाना, दो धागों को मिलाकर इसकी बुनाई होती है। दो कम्युनिटी अंसारी और तांती मिलकर ये काम करते थे। अंसारी मुस्लिम कम्युनिटी से आते हैं और तांती हिंदू समुदाय से, लेकिन 1989 में ताना-बाना वाला ये शहर एक दूसरे के खून का प्यासा हो गया। 24 अक्टूबर 1989, जगह भागलपुर। VHP ने राम शिला पूजन यात्रा निकाली। भागलपुर के अलग-अलग हिस्सों से पांच यात्राएं निकलने वाली थीं। दोपहर करीब 12 बज रहे होंगे। मुस्लिम बहुल ततारपुर इलाके से शिला पूजन का जुलूस गुजर रहा था। हजारों लोग भजन-कीर्तन करते हुए आगे बढ़ रहे थे। महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग सब। साथ-साथ पुलिस भी चल रही थी। आसपास के ज्यादातर घर, दुकानें, लॉज-हॉस्टल मुसलमानों के थे। थोड़ी देर बाद जुलूस में शामिल कुछ बदमाश नारा लगाने लगे। नारों की लाइनें कुछ ऐसी थीं- ‘जय मां काली, ततारपुर खाली’… अपमान का बदला लेंगे बाबर की संतान से’…बच्चा-बच्चा राम का बाकी सब हराम का’… हिंदू हिंदी हिंदुस्तान, मुसलमान जाओ पाकिस्तान… तब की जांच रिपोर्ट्स में ऐसा ही लिखा है। जुलूस आगे बढ़ रहा था। यहां से होकर गोशाला जाना था।ततारपुर चौक के पास ही मुस्लिम हाईस्कूल है। यहां मुस्लिमों ने जुलूस को रोक दिया। दोनों तरफ से गहमागहमी बढ़ गई। अचानक स्कूल के भीतर से जुलूस पर बम फेंका जाने लगा। पत्थर फेंके जाने लगे। अब भगदड़ मच गई। दुकानों में तोड़-फोड़ मच गई। इसी दौरान पुलिस ने फायरिंग कर दी। इसमें 3 लोग मारे गए। कई जख्मी हुए। पुलिस वालों को भी चोट लगी। अब तक शाम के करीब 4 बज चुके थे। इसी बीच किसी ने भीड़ से आकर कह दिया कि मुस्लिमों के लॉज में रहने वाले 200 से ज्यादा हिंदू छात्र गायब हैं। थोड़ी देर बाद चर्चा चलने लगी कि भागलपुर के परवत्ती चौक के पास एक कुएं में सैकड़ों लाशें पड़ी हैं। मुसलमानों ने हिंदुओं को काटकर कुएं में फेंक दिया है। पुलिस-प्रशासन ने शायद इस खबर को वेरिफाई करने की जरूरत नहीं समझी। जिन-जिन गांवों में बच्चे घर नहीं लौटे थे, उन लोगों ने इसे सच मान लिया। आग की तरह ये चर्चा भागलपुर शहर ही नहीं, बल्कि गांवों में भी फैल गई। लोगों के सिर बदले का भूत सवार हो गया। गांवों में मार-काट मच गई। घर के घर जलाए जाने लगे। तब भागलपुर के एसपी थे केएस द्विवेदी। मुसलमान उन्हें पसंद नहीं करते थे। कुछ महीने पहले ही उन्होंने कुछेक गुंडों का एनकाउंटर किया था। उनमें से ज्यादातर मुसलमान थे। चुनावी राज्य में दंगा… मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा ने 25 अक्टूबर को एसपी द्विवेदी को हटा दिया, लेकिन हिंदू संगठन और पुलिस का एक धड़ा इस फैसले का विरोध करने लगा। तब तक दर्जनभर से ज्यादा लोग मारे जा चुके थे। इसी दिन प्रधानमंत्री राजीव गांधी भागलपुर पहुंचे। वे दंगा प्रभावित इलाकों में गए। लोगों से मिले। अस्पताल जाकर घायलों के आंसू भी पोंछे। पीएम ने एक फैसला किया। फैसला था- राम शिला पूजन पर रोक का। इससे हिंदू संगठन नाराज हो गए। राजीव गांधी जहां भी जा रहे थे, भीड़ एक ही नारा लगा रही थी- ‘एसपी द्विवेदी का ट्रांसफर वापस लो।’ इस मांग में कई पुलिस वाले भी शामिल थे। राजीव गांधी ने एसपी का ट्रांसफर रुकवाने का ऐलान कर दिया। इतना सुनते ही भीड़ नारे लगाने लगी। इधर, राजीव के साथ खड़े मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा हैरान रह गए। पर वे कुछ बोल नहीं पाए। तब के अखबारों में ये किस्सा छपा था। भागलपुर दंगा को लेकर पीएम से पत्रकारों ने सवाल किया तो वे बोल पड़े- ‘जब तक हालात ठीक नहीं होते, तब तक कोई धार्मिक जुलूस नहीं निकलेगा। जब भी चुनाव आता है शिला पूजन, गौ हत्या पर बैन और गंगा पूजन को लेकर बहस छिड़ जाती है। कौन लोग हैं इसके पीछे? विपक्ष को खुद के भीतर झांकने की जरूरत है।’ अब तक भागलपुर में आर्मी कैंप कर चुकी थी। हालात काबू हो गया है। सरकार तो ऐसा ही बता रही थी। पर ऐसा था नहीं… तारीख 27 अक्टूबर 1989, जगह-भागलपुर का चंदेरी गांव। पास में ही राजपुर गांव है, जहां पुरानी मस्जिद थी। दंगे की वजह से चंदेरी के मुसलमान नमाज के लिए वहां जा नहीं पा रहे थे। उन लोगों ने चंदेरी में ही एक मस्जिद बनानी शुरू कर दी थी। उस रोज शुक्रवार था, यानी जुमे का दिन। मुसलमान नमाज अदा करने के लिए मस्जिद पहुंचे ही थे कि सैकड़ों दंगाइयों ने उन पर हमला कर दिया। घरों में आग लगा दी। 5 मुस्लिम मारे गए। किसी का गला काटा, किसी को गोली मार दी। मुसलमान इधर-उधर भागने लगे। इसी गांव में शेख मिन्नत का बड़ा सा घर था। ज्यादातर मुसलमान भागकर शेख के घर में छिप गए। सोचा साथ रहेंगे तो शायद भीड़ को भगा देंगे। शेख के घर में उस रोज मलका बेगम भी छिपी थीं। वो एक इंटरव्यू में बताती हैं- ‘शेख के घर पर करीब 100 मुसलमान छुपे थे। बाहर सैकड़ों की संख्या में लोग नारा लगा रहे थे। उनके पास हथियार थे। हमारी तरफ से भी लोग पत्थर फेंककर दंगाइयों को भगाने की कोशिश कर रहे थे। शाम 4-5 बजे गांव में पुलिस आई। हमें उम्मीद जगी। पुलिस से कहा कि हमें बचा लीजिए। पुलिस वाले कहने लगे कि कुछ पैसे दो तब हम कुछ सोचेंगे। हमने कहा कि अभी तो इन दंगाइयों को भगा दो, फिर पैसे ले लेना। पुलिस वाले नहीं माने और चले गए। रात करीब 10 बजे गांव में आर्मी आई। हमने पहली बार वर्दी में लोगों को देखा। डर गए कि ये हमें मारने आ गए हैं। तब आर्मी वालों ने बताया कि हम तुम्हें मारने नहीं, बचाने आए हैं। डरने की जरूरत नहीं है। हम हैं न, लेकिन एक घंटे बाद वे भी चले गए। अब रात के करीब 2 बज गए थे। गांव के कुछ लोगों ने आकर कहा- यहां तुम लोगों के लिए खतरा है। चलो तुम लोगों को कहीं सुरक्षित पहुंचा देते हैं। हम लोग जैसे ही निकले, भीड़ ने घेर लिया। वे तलवार से काटने लगे। हमारे पास भागने का रास्ता नहीं था। आगे-पीछे हर तरफ भीड़ थी। मलका बेगम बताती हैं- ‘मेरी चाची का 2 साल का इकलौता बेटा था। दंगाइयों ने चाची की गोदी से बच्चे को झपटा और उसके दो टुकड़े कर दिए। मेरी आंखों के सामने उन लोगों ने 3-4 बच्चों को उठा-उठाकर दो-दो टुकड़े कर दिए। लाशों का ढेर लग गया। इसी बीच कुछ लोग भागने लगे। मैं भी भागी। बगल के एक घर में हम घुस गए। कुछ देर बाद घर वाले धक्का मारकर हमें बाहर निकालने लगे। शोर मचाने लगे कि इधर भी मुसलमान छिपे हैं। भीड़ में से 5-7 लड़के आए और हम लोगों को खींचकर ले जाने लगे। बलि देने वाले तलवार से काटने लगे। मेरे पैर पर तलवार लगी। आधा पैर कट गया। जैसे-तैसे मैं पास के एक छोटे से तालाब में कूद गई। उसमें जलकुंभी लगी थी। उसके भीतर मैं छुप गई। अब तक सुबह के 8-9 बज चुके थे। अचानक आर्मी वालों की गाड़ी आई। मैंने हिम्मत करके आवाज लगाई- गाड़ी रोकिए। वे रुक गए। उन लोगों ने मुझे बाहर निकाला। मुझे आज भी याद है मेजर विर्क ने मेरी जान बचाई थी। मेरे खून की वजह से उनकी वर्दी लाल हो गई थी। आर्मी वाले मुझे मरा समझ लिए थे, लेकिन उन्होंने कहा- ‘इसे अस्पताल ले जाओ, जब तक सांस है तब तक आस है।’ मलका बेगम के गांव चंदेरी में कम से कम 74 लोग मारे गए। एक ही गांव के 116 मुस्लिमों का कत्ल, लाश खेत में गाड़कर गोभी बो दी 27 अक्टूबर को ही भागलपुर के एक और गांव लौगाय में भी मौत कहर बनकर टूटी थी। एक घर के भीतर 29 बरस की जमीला बीवी सुबह-सुबह की भागदौड़ में उलझी थीं। रसोई में चूल्हा सुलग चुका था। बर्तन मांजना था, झाड़ू-पोंछा बाकी था। ऊपर से दो नन्हें बच्चे-तीन साल की बेटी और दो साल का बेटा, लगातार रोए जा रहे थे। तभी अचानक दरवाजा खुला। उनके शौहर, मुहम्मद मुर्तजा, हांफते हुए भीतर दाखिल हुए। जमीला कुछ पूछ पातीं, बदहवास मुर्तजा बोल पड़े- दंगे हो गए हैं… फौरन निकलो यहाँ से। जमीला सन्न रह गईं। उन्होंने बिना एक पल गंवाए बच्चों को गोद में समेटा, और तेज कदमों से पति के साथ बाहर निकल पड़ीं। गहने, बर्तन, बिस्तर सब कुछ पीछे छूट गया। जमीला, उनके पति और बच्चे तो बच गए, लेकिन उनके सगे संबंधी मारे गए। सैकड़ों दंगाइयों ने गांव पर धावा बोल दिया। चुन-चुनकर एक समुदाय के लोगों को घरों से बाहर निकाला और बेरहमी से मार डाला। कहा गया कि ASI रामचंद्र सिंह भीड़ को भड़का रहे थे। बाद में उन्हें जेल भी हुई। लेखक हर्ष मंदर अपनी किताब ‘अनसुनी आवाजें’ में लिखते हैं- ‘भीड़ ने लाशों छुपाने के लिए एक तालाब में फेंक दिया। बाद में लाशें ऊपर तैरने लगीं, तो उन लोगों ने लाशों को तालाब से निकालकर कुएं में फेंक दिया। पर कुछ दिन बाद वहां से भी बदबू आने लगी। अब दंगाइयों को लगा कि कुछ करना चाहिए। उन लोगों ने लाश निकालकर धान के खेत में दफना दी। किसी को शक न हो, इसलिए उसके ऊपर गोभी बो दी। IAS एके सिंह, तब भागलपुर में स्पेशल एडीएम थे। वे पास के बबुआरा गांव से गुजर रहे थे। लोगों ने बताया कि लौगाय में कत्लेआम करके लाशें छुपा दी गई हैं। वे फौरन लौगाय गांव चल पड़े। वे जब मुस्लिम बस्ती में गए, तो उन्हें दुर्गंध जैसा कुछ महसूस हुआ। एक कुआं भर दिया गया था। वे कुएं की खुदाई करवाना चाहते थे, पर ASI रामचंद्र सिंह ने कह दिया कि ये तो मजिस्ट्रेट के आदेश के बाद ही किया जा सकता है। 8 दिसंबर को डीआईजी अजीत दत्त लौगाय गांव पहुंचे। उन्होंने खेत जाकर गड्ढे खुदवाए। तब खेत के नीचे से 116 लाशें मिलीं। भागलपुर में 2 महीने तक लगातार नरसंहार होता रहा। करीब 250 गांव इसकी चपेट में आए। तब के अखबारों में छपी खबरों के मुताबिक भागलपुर के कई गांव भुतहा गांव बन गए थे। मुस्लिम कम्युनिटी के लोग गांव छोड़कर भाग चुके थे। दर्जनों रिलीफ कैंप बनाए गए थे। जिसमें पुलिस की देखरेख में मुसलमानों को रखा गया था। 1070 मौतें, इनमें 93% मुस्लिम, 50 हजार लोग घर छोड़कर भाग गए सरकारी आंकड़ों के मुताबिक कुल 1070 लोग मारे गए। हालांकि कई लोगों का दावा है कि ये आंकड़ा 2000 से ज्यादा था। करीब 12 हजार घर जला दिए गए। 50 हजार लोग पलायन कर गए। 2 हजार से ज्यादा पावर लूम और हैंडलूम कारखाने जला दिए गए। 68 मस्जिदें और 20 मजार तहस-नहस कर दिए गए। ऐसा नहीं है कि भागलपुर नरसंहार में मुसलमान ही मरे, कई हिंदुओं की भी जानें गईं। हालांकि PUDR People’s Union for Democratic Rights के मुताबिक मरने वालों में 93% मुस्लिम थे। दिसंबर 1989 में भागलपुर नरसंहार की जांच के लिए एक कमीशन बना। जस्टिस रामनंदन प्रसाद अध्यक्ष, जस्टिस रामचंद्र प्रसाद सिन्हा और जस्टिस एस शमसुल हसन इसके मेंबर थे। जांच के करीब पांच साल बाद यानी मार्च 1995 में कमीशन ने 323 पन्नों की रिपोर्ट पब्लिश की। कमीशन ने हजारों गवाहों के बयानों के आधार पर बताया कि शिला पूजन जुलूस में विवादास्पद नारे लगे थे। कुछ लोग देसी हथियार और लाठी डंडे लिए जुलूस का हिस्सा बने थे। मुस्लिम लॉज में रहने वाले सैकड़ों हिंदू छात्रों की हत्या और उन्हें मारकर कुएं में डालने की बात अफवाह थी। रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि अगर मुस्लिम जुलूस पर रिएक्ट नहीं करते, तो ये नरसंहार रोका जा सकता था। इस कमीशन ने पुलिस पर भी गंभीर सवाल उठाए। भागलपुर के तत्कालीन एसपी केएस द्विवेदी और कुछ पुलिस अफसरों को कमीशन ने दंगे के लिए जिम्मेदार माना था। इसके बाद एसपी द्विवेदी ने हाईकोर्ट में अपील कर दी। तब कोर्ट ने रिपोर्ट में से उन कमेंट्स को हटाने का आदेश दिया था। नेशनल आर्काइव ऑफ इंडिया के मुताबिक- ‘जिन 200 हिंदू छात्रों के मारने का दावा किया गया था, असल में उन छात्रों को मुस्लिमों ने अपने हॉस्टल में छुपा रखा था, ताकि वे दंगे की चपेट में न आएं। इसलिए वे वक्त पर अपने घर नहीं पहुंच सके। जिसके बाद घर वालों ने सच मान लिया कि उनके बच्चे मार दिए गए हैं। पर वे बच्चे जिंदा थे।’ भागलपुर नरसंहार में सिर्फ खून नहीं बहा, सियासत भी जमकर हुई। और ये सब अचानक नहीं हुआ। भले ही दंगा फैलाना किसी का मकसद नहीं रहा हो और हो भी नहीं सकता, पर यह भी सच है कि इसे रोकने में प्रशासन नाकाम रहा। तो ये सब हुआ कैसे… चलते हैं बैकग्राउंड में… साल 1975, इंदौर की शाहबानो को उनके पति मुहम्मद ने पांच बच्चों सहित घर से निकाल दिया। 1978 में शाहबानो ने इंदौर की अदालत में CrPC की धारा 125 के तहत केस दर्ज कराते हुए 500 रुपए प्रति महीने गुजारा भत्ते की मांग की। कोर्ट का फैसला आता, उससे पहले ही शाहबानो के पति ने तलाक दे दिया। अगस्त 1979 में अदालत ने शाहबानो को हर महीने 25 रुपए गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया। शाहबानो मध्य प्रदेश हाईकोर्ट पहुंच गई। कोर्ट ने गुजारे भत्ते की रकम 179.20 रुपए कर दी। इस पर शाहबानो के पति सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। 23 अप्रैल 1985 को सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो के हक में फैसला सुनाया। मुस्लिम उलेमाओं ने फैसले को अपने पर्सनल लॉ में दखल माना। वे कहने लगे कि ‘इस्लाम खतरे में है।’ देश में विरोध प्रदर्शन होने लगे। राजीव गांधी सरकार में अल्पसंख्यक आयोग का काम देखने वाले वजाहत हबीबुल्लाह अपनी किताब ‘माय इयर्स विद राजीव’ में लिखते हैं- ‘एक दिन मैं प्रधानमंत्री के चैंबर में पहुंचा। एमजे अकबर राजीव गांधी के पास ही बैठे थे। वे उन्हें समझा रहे थे कि सरकार ने शाहबानो केस में कोर्ट के जजमेंट के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया, तो मुसलमानों को लगेगा कि प्रधानमंत्री उन्हें अपना नहीं मानते।’ द टेलीग्राफ के संपादक रहे एमजे अकबर तब राजीव गांधी के बेहद करीबी थे। मुस्लिम बहुल इलाके में कांग्रेस 40 सीटें हार गई, राजीव ने सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटा शाहबानो केस पर सियासी गहमागहमी के बीच 1985 में कुछ राज्यों में विधानसभा और लोकसभा के उपचुनाव हुए। असम चुनाव में कांग्रेस को 66 सीटों का नुकसान हुआ। किशनगंज लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस हार गई। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 40 सीटें गंवा दीं। ये वो सीटें थीं, जहां मुस्लिम आबादी करीब 40% थी। फरवरी 1986 में राजीव गांधी ने सदन में द मुस्लिम वुमन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन डायवोर्स) एक्ट पेश कर दिया। 5 मई को सदन से कानून पास भी हो गया। नए कानून के तहत मुस्लिम महिलाएं गुजारे भत्ते का हक नहीं मांग सकती थीं। यानी, सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलट दिया गया। नई नवेली BJP ने इसे मौके के रूप में लिया। BJP नेता कहने लगे कि हिंदू पर्सनल लॉ में तो कांग्रेस ने रिफॉर्म कर दिया, लेकिन वोट बैंक के चक्कर में सरकार मुस्लिम पर्सनल लॉ को छूने से डर रही। ये तो मुस्लिम तुष्टिकरण है। विरोध में कई हिंदू संगठन भी सड़कों पर उतर गए। 1989 चुनावी साल था। कांग्रेस चौतरफा घिरी थी। एक तरफ उस पर मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप लग रहे थे। दूसरी तरफ राजीव के खास रहे पूर्व रक्षा मंत्री वीपी सिंह ने बगावत कर दी थी। सिर्फ बगावत ही नहीं, बोफोर्स घोटाले का नया जिन्न भी उछाल दिया था। हर मंच से वीपी सिंह, राजीव गांधी को घेर रहे थे। जन मोर्चा, लोकदल और कांग्रेस के एक धड़े को मिलाकर उन्होंने जनता दल बना ली थी। चुनावी समर में ताल भी ठोक दी थी। प्रयागराज कुंभ मेले में शिला पूजन का ऐलान इसी बीच प्रयाग में कुंभ लगा। 1 फरवरी को विश्व हिंदू परिषद यानी VHP ने धर्म संसद में राम मंदिर शिलान्यास और शिला पूजन का ऐलान कर दिया। इसके लिए संतों ने 9 नवंबर 1989 की तारीख तय कर दी। दरअसल, उस दिन देवोत्थान एकादशी थी। वो दिन जब लाखों लोग अयोध्या में जुटते हैं। VHP ने काफी सोच समझकर तारीख तय की थी। ये भी विडंबना है कि 9 नवंबर ही वो तारीख है, जब बर्लिन की दीवार गिराई गई थी। VHP के इस ऐलान से सियासी गलियारों में तूफान खड़ा हो गया क्योंकि नवंबर में ही लोकसभा चुनाव होने थे। ऐसे में कांग्रेस को लगा कि कुछ करना चाहिए। वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी अपनी किताब ‘हाउ प्राइम मिनिस्टर्स डिसाइड’ में लिखती हैं- ‘राजीव के करीबी रहे अरुण नेहरू ने प्रधानमंत्री को सलाह दी कि बाबरी मस्जिद का ताला खोल दीजिए। इससे हिंदुओं की नाराजगी बैलेंस हो जाएगी।’ अगले ही दिन यानी 2 फरवरी 1989 को राम मंदिर का ताला खोल दिया गया। यानी कांग्रेस भी हिंदुत्व कार्ड में पीछे नहीं रहना चाहती थी। 8 महीने बाद यानी 17 अक्टूबर 1989 को केंद्रीय गृहमंत्री बूटा सिंह ने विश्व हिंदू परिषद को शिला पूजन की इजाजत दे दी। इसके बाद VHP ने देशभर में शिलापूजन के लिए जुलूस निकालना शुरू कर दिया। इन जुलूसों के जरिए देशभर से राम मंदिर बनाने के लिए ईंटें इकट्ठा की जानी थी। फिर 9 नवंबर को अयोध्या में शिला पूजन होना था। भागलपुर में शिलापूजन जुलूस के लिए 24 अक्टूबर की तारीख तय की गई थी। जिसके बाद हिंसा भड़क गई और भागलपुर में नरसंहार हो गया। मुस्लिमों को खुश करने के लिए CM बदले गए, पर कांग्रेस बुरी तरह हार गई नरसंहार की वजह से मुस्लिम कांग्रेस से नाराज थे। मुस्लिमों का आरोप था कि भागलपुर के एसपी केएस द्विवेदी ने दंगाइयों की मदद की है। मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा ने केएस द्विवेदी का ट्रांसफर कर दिया था, लेकिन राजीव गांधी ने एसपी का ट्रांसफर रुकवा दिया था। 3 नवंबर 1989, राजीव गांधी ने कांग्रेस की कैंपेनिंग की शुरुआत की और जगह चुनी अयोध्या। इससे मुस्लिमों को और धक्का लगा। लेखक आनंद वर्धन सिंह अपनी किताब ‘हे राम से जय श्री राम तक’ में लिखते हैं- ‘राजीव गांधी ने अयोध्या से कैंपेनिंग करके यह मैसेज दिया कि राम लला को कांग्रेस ने मुक्त करवाया है, तो कांग्रेस ही हिंदू वोटों की एकमात्र अधिकारी है। राजीव ने रैली में यह घोषणा भी कर दी कि कांग्रेस भारत में राम राज्य की स्थापना करेगी। कांग्रेस के इस दृष्टिकोण को नरम हिंदुत्व का नाम दिया गया, लेकिन कांग्रेस को यह एहसास ही नहीं हुआ कि BJP इस मुद्दे को पहले ही अपनी झोली में डाल चुकी है।’ 22 और 26 नवंबर को लोकसभा चुनाव हुए। 1 दिसंबर को वोटों की गिनती हुई तो कांग्रेस दिल्ली की सत्ता से कोसों दूर रह गई। पिछले चुनाव में 425 सीटें जीतने वाली कांग्रेस 197 पर अटक गई। जनता दल के वीपी सिंह प्रधानमंत्री बन गए। बिहार में तो कांग्रेस का लगभग सफाया ही हो गया। 1984 में 48 सीटें जीतने वाली कांग्रेस सिर्फ 4 सीटें ही जीत पाई। तब अविभाजित बिहार में 54 सीटें थीं। वहीं BJP ने बिहार में 8 सीटें जीत लीं। जिस भागलपुर में दंगा हुआ, वहां कांग्रेस न सिर्फ हारी बल्कि इस सीट से पांच बार सांसद रहे पूर्व सीएम भागवत झा आजाद भी हार गए। ये हार कोई छोटी मोटी हार नहीं थी। 4 लाख से ज्यादा वोटों से जनता दल के चुनचुन प्रसाद यादव ने उन्हें हरा दिया। जीत का मार्जिन 63% से ज्यादा था। इतना ही नहीं 1989 के बाद भागलपुर की गंगा में न जाने कितना पानी बह गया, पर कांग्रेस यहां कभी नहीं जीत सकी। हार का ठीकरा मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा पर फूटा और 5 दिन बाद ही इस्तीफा ले लिया गया। जगन्नाथ मिश्रा को एक बार फिर से मुख्यमंत्री बनाया गया। जगन्नाथ मिश्रा ने ही 1980 में उर्दू को राजकीय भाषा का दर्जा दिया था। कांग्रेस को लगा कि इससे नाराज मुस्लिमों पर कुछ मरहम लग जाएगा, पर जख्म और गहरा ही होता गया। फिर कभी बिहार में कांग्रेस का CM नहीं बना मार्च 1990 में बिहार में चुनाव हुए। 1985 में 196 सीटें जीतने वाली कांग्रेस महज 71 सीटों पर सिमट गई। यानी कांग्रेस अपनी 64% सीटें हार गई। भागलपुर जिले में तो कांग्रेस का खाता ही नहीं खुला। जबकि पिछले चुनाव में उसने यहां की 7 में से 5 सीटें जीत ली थीं। दरअसल, आजादी के बाद से ही ब्राह्मण, मुस्लिम और दलित कांग्रेस के कोर वोटर्स माने जाते थे। सियासी भाषा में इसे कांग्रेस की सोशल इंजीनियरिंग कहा जाता था। इसी के बल पर कांग्रेस ने बिहार में लगभग 40 साल राज किया। अक्टूबर 1990 में लालू ने BJP नेता लालकृष्ण आडवाणी की बिहार में रथयात्रा रोक दी और गिरफ्तार भी करवा दिया। यहां से मुस्लिम, लालू की तरफ शिफ्ट हो गए। 90 के दशक में बिहार में जातीय नरसंहार भी खूब हुए। इनमें ज्यादातर नरसंहारों में दलित मारे गए। ऐसे में दलित भी लालू की तरफ आ गए। इधर, मंडल कमीशन के बाद BJP खुलकर हिंदुत्व कार्ड खेल रही थी। रथ यात्रा निकाल चुकी थी। फिर बाबरी मस्जिद का विवादित ढांचा भी गिरा दिया गया। इससे सवर्ण वोटर्स BJP की तरफ शिफ्ट हो गए। इस तरह कांग्रेस के तीनों कोर वोटर्स छिटकते चले गए। कांग्रेस बिहार में फिर कभी मुख्य विपक्षी पार्टी भी नहीं बन पाई। आंकड़े इसकी गवाही भी देते हैं। 1990 के बाद बिहार में 7 चुनाव हो चुके हैं। कांग्रेस का बेस्ट परफॉर्मेंस है 29 सीट का, वो भी उसने 1995 में जीती थी, तब बिहार में 354 सीटें हुआ करती थीं। 1200 से ज्यादा आरोपी, 142 मामले, मुख्य आरोपी 10 साल जेल में रहने के बाद बरी भागलपुर नरसंहार में अलग-अलग मामलों में कुल 142 FIR हुईं। 1200 से ज्यादा आरोपी बनाए गए। 2005 में एक मामले में 10 लोगों को उम्रकैद की सजा सुनाई गई। इसी साल सत्ता में आने के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कुछ बंद पड़ीं फाइलें खुलवाईं। 2005 में ही सरकार ने जस्टिस एन एन सिंह की अगुआई में एक जांच कमीशन बनाया। 2007 में लौगाय हिंसा मामले में 14 लोगों को उम्रकैद की सजा हुई। इसी साल नवंबर में दंगे के मुख्य आरोपी कामेश्वर यादव को भी उम्रकैद की सजा सुनाई गई। कामेश्वर हिंदू महासभा से जुड़े थे। 2015 में जस्टिस एन एन सिंह कमीशन ने 1000 पन्नों की रिपोर्ट पेश की। इसमें तब की कांग्रेस सरकार और पुलिस को दंगा रोकने में नाकामी लिए जिम्मेदार ठहराया गया था। तब बिहार में महागठबंधन की सरकार थी। कांग्रेस भी उसका हिस्सा थी। इसको लेकर BJP ने नीतीश कुमार को घेरा था। 2017 में पटना हाईकोर्ट ने सबूतों के अभाव में कामेश्वर यादव को बरी कर दिया। 2024 में उनकी मौत हो गई। (यह सच्ची कहानी पुलिस चार्जशीट, कोर्ट जजमेंट, गांव वालों के बयान, अलग-अलग किताबें और इंटरनेशनल रिपोर्ट्स पर आधारित है। रेफरेंस :
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