गढ़वाल और कुमाऊं की सीमा पर स्थित प्राचीन कालिंका माता मंदिर में शनिवार को पारंपरिक जतोड़ मेला आयोजित हुआ। हर तीन साल में आयोजित होने वाले इस मेले में हजारों की संख्या में भक्त शामिल हुए। ठंडे मौसम के बावजूद सुबह से ही मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ी। यह मेला न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि बड़ियारी वंशजों और उनके गांवों की सांस्कृतिक पहचान का जीवंत उत्सव भी माना जाता है। मंदिर प्रशासनिक रूप से पौड़ी गढ़वाल जिले के बीरोंखाल ब्लॉक में आता है, जबकि अल्मोड़ा जिले की सीमा इसके बिल्कुल पास है। यही स्थिति इसे गढ़वाल और कुमाऊं के दोनों क्षेत्रों के लिए समान रूप से पवित्र और महत्वपूर्ण बनाती है। जतोड़ मेले की एक खास पहचान ‘न्याजा’ परंपरा है, जिसमें प्रमुख रूप से 14 गांवों के लोग देवी का ध्वज लेकर गांव-गांव भ्रमण करते हैं। मेले के अंतिम दिन, न्याजा दल ढोल-दमाऊ की थाप के साथ कालिंका धाम पहुंचते हैं और मंदिर परिसर में प्रवेश कर भक्तों को दर्शन प्रदान करते हैं। न्याजा यात्रा और बड़ियारी वंशज
उत्तराखण्ड के दो जिलों, पौड़ी गढ़वाल और अल्मोड़ा के 14 गांवों में बड़ियारी रावत वंशज अपनी कुल देवी मां काली के रूप में मां भगवती न्याजा की सामूहिक पूजा और यात्रा आयोजित करते हैं। यह यात्रा इस साल सिर्फ 6 दिनों की हुई, 1 दिसंबर को माता के स्वरूप में न्याजा यात्रा कोठा तल्ला गांव में निकली, इस बीच कई गांवों से हजारों श्रद्धालु इसमें शामिल हुए। यात्रा का प्रारंभ हर साल कोठा गांव से ही होता है और विभिन्न गांवों से होते हुए न्याजा मंदिर में पहुंचती है। यात्रा के दौरान लाल और सफेद रंग का ऊंचा ध्वज और अखंड जोत साथ रहती है, जो सभी श्रद्धालुओं के लिए आस्था का प्रतीक है। बड़ियारी वंशज अल्मोड़ा के मवाण बाखली, तल्लीसैंण, बाखली रानी, मल्ला लखोरा, मठखानी और बंदरकोट मल्ला तथा पौड़ी गढ़वाल के बीरोंखाल क्षेत्र के कोठा, धोबीघाट, मरखोली और थबरिया तल्ला गांवों में रहते हैं। यात्रा में लगभग 150 लोग न्याजा के साथ रहते हैं, पुजारी और जगरिए यात्रा की देखरेख करते हैं और धर्मिक अनुष्ठानों को पूरा करते हैं। ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व
पौराणिक लोक कथाओं के अनुसार बड़ियारी वंशजों के पूर्वज लैली बूबा 17वीं शताब्दी में टिहरी जिले के वडियार गढ़ में पैदा हुए। गोरखा आक्रमण के दौरान उन्होंने अपने परिवार की रक्षा के लिए पहाड़ों में गुफा बनाई। स्वप्न में मां काली के दर्शन के बाद उन्होंने वर्तमान मंदिर के आसपास पहला थान स्थापित किया, जिसे आज बंदरकोट गांव के नाम से जाना जाता है। बूबा जी की अगुवाई में बड़ियारी रावतों ने इस क्षेत्र की रक्षा करते हुए अपनी संस्कृति और पूजा की परंपरा को जीवित रखा। पूजा और यात्रा का आयोजन
यात्रा से पहले कोठा गांव में बड़ियारी वंशज बैठक करते हैं और सभी को अलग-अलग जिम्मेदारियां सौंपी जाती हैं। मंमगाईं पंडित शुभ मुहूर्त निकालते हैं और ढोल-दमाऊ बजाकर औजी वादकों को आमंत्रित करते हैं। रात्रि में देव नृत्य और कौथिग का आयोजन होता है, जिसमें देवी-देवताओं का प्रादुर्भाव दर्शाया जाता है। अगले दिन सूर्योदय के साथ न्याजा का प्रादुर्भाव होता है और श्रद्धालु मां भगवती के दर्शन कर अपनी मनोकामनाओं के लिए प्रार्थना करते हैं। यात्रा का मार्ग और प्राकृतिक दृश्य
मां भगवती न्याजा की यात्रा बिनसर, जोगिमणी, बीरोंखाल, घोड़ियाना, मैठाणा, बंवासा, सीली, जमरिया, मंगरोखाल और इकूखेत सहित कई गांवों से गुजरती है। यात्रा के मार्ग में भक्त रात्रि विश्राम करते हैं और उस समय देव नृत्य का आयोजन होता है। मंदिर समुद्र तल से लगभग 2100 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है, जहां चारों ओर हरे-भरे जंगल और हिमाच्छादित पर्वतों का दृश्य दिखाई देता है। सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व
मां भगवती की पूजा और न्याजा यात्रा उत्तराखंड की संस्कृति और धर्मिक परंपराओं का अद्भुत मिश्रण है। यात्रा के दौरान ढोल-दमाऊ, भंकोर और शुभ गीतों के साथ देव नृत्य और कौथिग आयोजित होते हैं। यह आयोजन श्रद्धालुओं के लिए अत्यंत दिव्य अनुभव प्रदान करता है और बड़ियारी वंशजों की सांस्कृतिक पहचान को जीवित रखता है। न्याजा के मंदिर में प्रवेश करने के बाद और सभी भक्तों की भेंट लगने के बाद सूर्याअस्त से पहले माता फिर से अपने मूल स्थान कोठा के लिए रवाना हो जाती हैं।
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