इंदिरा गांधी सरकार को हिला देने वाले जेपी नारायण राजनीति से दूर क्यों रहे? पढ़ें किस्से
इंदिरा गांधी सरकार को हिलाकर रख देने वाले जयप्रकाश नारायण की आज, 11 अक्टूबर को जयंती है. वह भारतीय स्वतंत्रता सेनानी और राजनेता थे. उन्हें 1970 में इंदिरा गांधी के विरुद्ध विपक्ष का नेतृत्व करने के लिए जाना जाता है. इंदिरा गांधी को पद से हटाने के लिए उन्होंने ‘सम्पूर्ण क्रांति’ नामक आंदोलन चलाया था. उन्हें ‘लोकनायक’ के नाम से भी जाना जाता है. 1999 में उन्हें मरणोपरान्त भारत रत्न से सम्मनित किया गया था. ऐसे में आइए जानते हैं कि वह राजनीति से दूर क्यों रहे? जन्मदिन के मौके पर पढ़िए जेपी के संघर्ष और त्यागमय जीवन के किस्से.
यह संपूर्ण क्रांति का आंदोलन था. व्यवस्था परिवर्तन का नारा था और जेपी की अगुवाई थी. छात्रों-नौजवानों का सैलाब उनके पीछे था. बिहार इस आंदोलन की प्रयोगशाला था. जल्दी ही लपटें देश के बाकी हिस्सों में भी उठीं और फिर इमरजेंसी. 1977 का चुनाव. जेपी के आभामंडल और नैतिक सत्ता के आगे बिखरा विपक्ष नतमस्तक था और जनता पार्टी बनी. केंद्र की सत्ता मिली, लेकिन चंद महीनों के भीतर जेपी कह रहे थे कि यह सरकार भी कांग्रेस के रास्ते है. पार्टी बिखरी और सरकार गिर गई, लेकिन जेपी की उंगलियां पकड़ और बूढ़े कंधों पर सवार युवाओं की एक टोली संसद से विधानसभाओं तक प्रवेश पा चुकी थी.
जेपी आंदोलन से निकले नीतीश और लालू
आंदोलन में बिहार के छात्र -नौजवान आगे थे. सबसे ज्यादा राजनीतिक फायदा भी उन्हीं के हिस्से में आया. लालू, नीतीश सहित बिहार की राजनीति के अनेक चर्चित नाम जेपी आंदोलन की उपज हैं. इस बार जेपी के जन्मदिन के पूर्व बिहार में चुनाव की तारीखों का ऐलान हो चुका है. नीतीश फिर से सत्ता पाने तो बीमार लालू पुत्र तेजस्वी के जरिए वापसी के लिए सब जतन कर रहे हैं.
उधर जेपी के एक अन्य प्रिय राम विलास पासवान तो अब नहीं हैं, लेकिन उनके पुत्र चिराग एनडीए गठबंधन में ज्यादा सीटों के लिए जूझ रहे हैं. जातीय जोड़-घटाव, वोटरों को लुभाने के लिए वायदों की बरसात और परस्पर आरोप-प्रत्यारोप बीच उन जेपी का कहीं जिक्र नहीं है, जिनसे व्यवस्था परिवर्तन के वायदे के साथ बिहार की राजनीति के अनेक चर्चित चेहरों ने तरक्की की सीढ़ियां चढ़ीं.
बीमार जेपी से आंदोलन की कमान संभालने की अपील
गुजरात से शुरू हुआ छात्र आंदोलन बिहार तक पहुंच चुका था. 18 मार्च 1974 को पटना में विधानभवन के आगे छात्रों ने अपनी 12 सूत्री मांगों के समर्थन में धरना दिया. राज्यपाल अपना अभिभाषण भी नहीं कर पाए. छात्रों और पुलिस के बीच जमकर संघर्ष हुआ. आंसू गैस के गोले छोड़े गए. पुलिस ने गोली भी चलाई और कर्फ्यू लागू हुआ. अगले दिन बिहार के अनेक हिस्सों में हिंसा फैल गई. पुलिस की गोली से दस लोगों के मरने की खबर से और सनसनी फैल गई.
19 मार्च को लालू यादव, नीतीश कुमार, सुशील मोदी, राम बहादुर राय, नरेंद्र सिंह आदि छात्र नेताओं ने जेपी से भेंट कर आंदोलन का नेतृत्व करने का एक बार फिर अनुरोध किया. जेपी ने कहा कि मेरा नैतिक समर्थन तुम्हारे साथ है. लेकिन मैं अस्वस्थ हूं, कैसे नेतृत्व करूं? 12 अप्रैल 1974 को पुलिस की गोलीबारी में पांच छात्रों की मौत और 25 के घायल होने की खबर ने जेपी को विचलित कर दिया. इस बीच इलाज के सिलसिले में जेपी को बेल्लूर जाना पड़ा.
फिर संपूर्ण क्रांति के लिए संघर्ष पथ पर
बीमारी के बाद भी जेपी अब खामोश रहने को तैयार नहीं थे. 5 जून 1974 को बिहार विधानसभा भंग करने की मांग को लेकर कई किलोमीटर लंबे पटना के राजभवन की ओर बढ़ते जुलूस की वह अगुवाई कर रहे थे. उसी शाम गांधी मैदान में वह बोल रहे थे, ” मेरे मुंह से आप हुंकार नहीं सुनेंगे, लेकिन जो विचार आपसे कहूंगा, वह विचार हुंकारों से भरे होंगे. इन पर अमल करना आसान नहीं होगा. इसके लिए बलिदान करने होंगे. जेलों को भरना और कष्ट सहने होंगे. गोलियां-लाठियां बरसेंगी और कुर्कियां होंगी. यह क्रांति है दोस्तों, सम्पूर्ण क्रांति है’. यह कोई विधानसभा के भंग किए जाने का ही आंदोलन नहीं है.
यह तो रास्ते की एक मंजिल है. अभी न जाने कितनी दूर जाना है. उस स्वराज को प्राप्त करने के लिए, जिसके लिए देश के हजारों-लाखों नौजवानों ने कुर्बानियां दीं, लेकिन आज आजादी के 27- 28 सालों बाद जो स्वराज है, उसमें जनता कराह रही है. हर तरफ भूख, महंगाई और भ्रष्टाचार है. कोई काम रिश्वत के बगैर नहीं होता. शिक्षा संस्थाएं भ्रष्ट हो गई हैं. गुलामी की शिक्षा दी जा रही है. नौजवानों का भविष्य अंधेरे में है. हमें संपूर्ण क्रांति चाहिए… इससे कम नहीं.
इंदिरा गांधी से बढ़ती दूरियां
बिहार का आंदोलन विस्तार पाता गया. जेपी की हर ओर मांग थी. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से उनकी दूरियां बढ़ती गईं. 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा इंदिरा के रायबरेली से लोकसभा के निर्वाचन को रद्द करने के बाद प्रधानमंत्री पद से उनके इस्तीफे का दबाव काफी बढ़ गया. 25 जून 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में विपक्ष की एक विशाल सभा में जेपी ने सुरक्षा बलों और सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों से सरकार के गैरकानूनी आदेशों को न मानने की अपील की. उसी रात केंद्र सरकार ने आंतरिक आपातकाल की घोषणा की.
जेपी सहित विपक्ष के तमाम बड़े-छोटे नेता, कार्यकर्ता और छात्रों- नौजवानों की गिरफ्तारियों हुईं. आगे के 21 महीने समूचा देश खुली जेल था. लिखने-बोलने पर पाबंदी थी. अदालतें पंगु कर दी गईं. हर तरफ जुल्म-ज्यादती का सिलसिला था. लोकसभा का कार्यकाल एक साल बढ़ा दिया गया. जेल में जेपी की बीमारी और बढ़ गई. उनकी किडनियों ने काम करना बंद कर दिया.
जेपी सबकी जरूरत, लेकिन उनके रास्ते से बहुत दूर
1977 के चुनावों की घोषणा के समय जेपी भले बीमार थे, लेकिन 1942 के संघर्ष के नायक जेपी पर ही दूसरी आजादी की जंग जिताने की भी जिम्मेदारी थी. उन्होंने बिखरे विपक्ष को एकजुट किया और जनता पार्टी का गठन कराया. जीत के बाद प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए मची खींचतान के बीच किसी तरह मोरारजी के नाम पर आपस में लड़ते नेताओं को रजामंद किया. जल्दी ही बीमार जेपी एक बार फिर जसलोक अस्पताल में भर्ती हो गए.
अस्पताल के बेड पर उन्हें उन सरकारों और नेताओं की कारगुजारियां पता चल रही थीं, जिन्हें सम्पूर्ण क्रांति और व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर उन्होंने सत्ता में पहुंचाया था. निराश जेपी ने 5 जून 1978 को एक बयान में कहा, ” जनता पार्टी की सरकार भी कांग्रेस सरकारों के रास्ते पर चल रही है. लोग उम्मीद खो रहे हैं’. उनका स्वास्थ्य दिनों-दिन बिगड़ रहा था. सत्ता-सुख के लिए जनता पार्टी और उसकी सरकार के झगड़े बढ़ रहे थे. जेपी एक बार फिर जनता के बीच पहुंचने को व्याकुल थे. लेकिन उनकी सेहत अब इसके काबिल नहीं थी.
हमेशा सत्ता से रहे दूर
जेपी ने कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा, किसी सरकार का हिस्सा नहीं बने. पंडित नेहरू के बाद प्रधानमंत्री के लिए उनके नाम की भी चर्चा हुई थी. 1957 का लोकसभा का चुनाव आने तक उन्होंने दलीय राजनीति से खुद को विलग कर लिया. आगे सर्वोदय, हिन्द-पाक एका, पूर्वोत्तर में शांति उपायों, डाकुओं के आत्मसमर्पण और रचनात्मक निर्माण के प्रयासों में वह सक्रिय रहे. आजादी के बाद कुछ वर्षों तक जेपी और लोहिया के बीच वैचारिक मतभेद रहे, लेकिन लोहिया बार-बार दोहराते रहे कि जेपी ही अकेले व्यक्ति हैं, जो देश को हिला सकते हैं. 1967 में दोनों की भेंट हुई.
लोहिया ने एक बार फिर जेपी से आगे आने को कहा. अस्पताल में अपने अंतिम समय में भी लोहिया दोहराते रहे कि जेपी ही देश को हिला सकते हैं. तुरंत तो नहीं लेकिन सात साल बाद 1974 में जेपी एक बार फिर सड़कों पर उतरे थे. उन्होंने साबित किया था कि इस उम्र में भी नौजवानों में उनके प्रति अपार आस्था और उत्साह है. इसकी वजह भी थी. जीवन पर्यन्त वह देश समाज की भलाई के लिए लड़ते-जूझते रहे. वह आजादी के संघर्ष के उन योद्धाओं में थे, जिन्हें किसी भी सत्ता से टकराने में भय नहीं था और जीत के बाद खुद के लिए कुछ चाहत नहीं थी.
भूमिगत आंदोलन को लेकर गांधी से मतभेद
8 नवम्बर 1942 को अमावस की निपट अंधेरी रात में बिहार की हजारीबाग जेल से फरार होकर जयप्रकाश नारायण और उनके पांच साथियों शालिग्राम सिंह, योगेंद्र शुक्ल, सूरज नारायण सिंह, राम नंदन मिश्र और चंद्रगुप्त उर्फ गुलाली सुनार ने फरार होकर ब्रिटिश सत्ता को सीधी चुनौती दी थी. रास्ते की तमाम तकलीफें झेलते हुए उन्होंने नेपाल को ठिकाना बनाया और अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया. रिहाई के बाद गांधी ने जेपी की बहादुरी और देशभक्ति की सराहना की थी, लेकिन उनके भूमिगत आंदोलन की गतिविधियों से असहमति व्यक्त की थी.
अपनी अगुवाई में चले भूमिगत आंदोलन और हिंसा की आलोचना पर जेपी ने कहा था, ‘अगर हमसे गलतियां हुईं हैं, तो सुधारेंगे लेकिन 1942 के बड़े आंदोलन में साथ कोई निश्चित कार्यक्रम न दिया जाना क्या उससे जुड़े नेताओं की गलती नहीं थी’ ?
महात्मा गांधी के सामने मेरा सिर झुकता है, लेकिन उनके जैसा आत्मबल मेरे पास नहीं है. इसलिए बंदूक की मदद से लड़ लेना आसान लगता है. गांधी की बात अलग है. उन्हें छोड़कर कांग्रेस के अन्य नेताओं का हिंसा अथवा अहिंसा में जितना विश्वास है, उतना ही मुझे भी है. क्या स्वराज कभी बातचीत से आ सकता है? उसके लिए जनता को तैयार करना पड़ता है. मेरी समझ में देश ने अभी वह ताकत नहीं हासिल की है.
जयप्रकाश जो नहीं मरण से डरता है !
हजारीबाग जेल से फरारी और अगले दो वर्षों तक जबरदस्त भूमिगत आंदोलन ने जेपी को 1942 के आंदोलन का एक बड़ा नायक बनाया. एक बार फिर गिरफ्तारी के बाद उन्हें अंग्रेजों ने अमानुषिक यातनाएं दीं, लेकिन वह अविचलित रहे. रिहाई के 15 दिन बाद 11 अप्रैल 1946 को पटना के बांकीपुर मैदान (अब गांधी मैदान) में उन्हें देखने-सुनने के लिए लोग उमड़ पड़े. भीड़ उन्हें निहार रही थी और वहां राष्ट्रकवि दिनकर की हुंकार गूंज रही थी,
झंझा सोई तूफान रुका, प्लावन जा रहा कगारों में
जीवित है सबका तेज किंतु, अब भी तेरी हुंकारों में
दो दिन पर्वत का मूल हिला, उतर सिंधु का ज्वार गया
पर सौंप देश के हाथों में, वह एक नई तलवार गया.
जय हो भारत के नए खड्ग, जय तरुण देश के सेनानी
जय नई आग जय नई ज्योति, जय नए लक्ष्य अभियानी
स्वागत है आओ काल सर्प के, फण पर चढ़ चलने वाले
स्वागत है, आओ, हवनकुंड में, कूद स्वयं जलने वाले.
कहते हैं उसको जयप्रकाश जो नहीं मरण से डरता है
ज्वाला को बुझते देख कुंड में, स्वयं कूद जो पड़ता है
है जयप्रकाश वह जो न कभी, सीमित रह सकता घेरे में
अपनी मशाल जो जला, बांटता फिरता ज्योति अंधेरे में.
है जयप्रकाश वह, जो पंगु का चरण, मूक की भाषा है
है जयप्रकाश वह टिकी जिस पर स्वदेश की आशा है
हां जयप्रकाश है नाम समय की करवट का अंगड़ाई का
भूचाल बवंडर के दावों से, भरी हुई तरुणाई का .
है जयप्रकाश वह नाम जिसे, इतिहास समादर देता है
बढ़कर जिसके पदचिन्हों को उर पर अंकित कर लेता है
ज्ञानी करते जिसको प्रणाम, बलिदानी प्राण चढ़ाते हैं
वाणी को आग बढ़ाने को, गायक जिसका गुण गाते हैं.
आते ही जिसका ध्यान दीप्त को प्रतिभा पंख लगाती है
कल्पना ज्वार से उद्वेलित, मानस तट पर थर्राती है
वह सुनो,भविष्य पुकार रहा, वह दलित देश का त्राता है
स्वप्नों का द्रष्टा जयप्रकाश भारत का भाग्यविधाता है.
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