ट्रंप को छोड़िए, जानिए हिटलर को नोबेल के लिए किसने नॉमिनेट करके बवाल मचाया

ट्रंप को छोड़िए, जानिए हिटलर को नोबेल के लिए किसने नॉमिनेट करके बवाल मचाया

तमाम कोशिशों के बाद भी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को शांति का नोबेल पुरस्कार नहीं मिल पाया. नॉर्वे की नोबेल कमेटी ने वेनेजुएला की राजनेता मारिया को शांति का नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा की है. दिलचस्प बात है कि ट्रंप को नोबेल पुरस्कार के लिए दुनिया के 8 देशों ने नॉमिट किया था. डोनाल्ड ट्रंप की चर्चा के बीच एक पुराना और चौंकाने वाला प्रसंग बार-बार याद आता है, वह है एडॉल्फ हिटलर के नामांकन का. इन्हें नोबेल के शांति पुरस्कार के लिए नॉमिनेट किया गया था.

हिटलर के नाम पर शांति का नोबेल, किसी को सहज भरोसा नहीं हो सकता. क्योंकि उनके क्रूर होने के किस्सों से इतिहास की किताबें भरी पड़ी हैं. ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या वास्तव में हिटलर का नाम कभी इस पुरस्कार के लिए प्रस्तावित हुआ था? अगर हां, तो क्यों और उस नामांकन के तर्कों में कितना था दम? फिर उसके परिणाम क्या हुए?

हिटलर का नॉमिनेशन

एडॉल्फ हिटलर का नाम 1939 में नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामित किया गया था, पर यह नामांकन एक गंभीर समर्थन के रूप में नहीं, बल्कि तीखी व्यंग्यात्मक आलोचना के रूप में था. यह प्रस्ताव स्वीडिश संसद के एक सदस्य, एरिक ब्रांट (Erik Brandt), ने 27 जनवरी 1939 को नॉर्वेजियन नोबेल समिति को भेजा था. ब्रांट एक समाज-लोकतांत्रिक राजनेता थे और उनके पत्र का उद्देश्य उन स्वीडिश राजनीतिज्ञों की प्रवृत्ति का कटाक्ष करना था जो उस समय ब्रिटिश प्रधानमंत्री नेविल चेम्बरलेन की शांति-नीति की अति-प्रशंसा कर रहे थे.

ब्रांट ने व्यंग्य में कहा कि यदि चेम्बरलेन की शांति के लिए इतनी स्तुति हो सकती है, तो फिर हिटलर जिसके कदमों ने यूरोप में युद्ध का खतरा पैदा कर दिया उन्हें भी नामांकित कर दीजिए. कुछ दिनों के भीतर ही, सार्वजनिक प्रतिक्रिया और गलतफहमियों को देखकर ब्रांट ने अपना नामांकन औपचारिक रूप से वापस भी ले लिया. इसलिए, हिटलर का नामांकन न तो प्रशंसा थी, न ही वास्तविक समर्थन, वह एक राजनीतिक-व्यंग्यात्मक हस्तक्षेप था, जो गलत अर्थों में व्यापक रूप से समय-समय पर सामने पर आता है.

यहां एक दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु भी ध्यान रखने योग्य है. साल 1930 के दशक में जो शांति-वार्ता और समझौतावादी नीतियां थीं (जैसे म्यूनिख समझौता, 1938), उन्हें भी एक समय युद्ध टालने की कोशिश के तौर पर देखा जाता था. इसी माहौल में ब्रांट का व्यंग्य जन्मा कि यदि कूटनीतिक तुष्टिकरण को शांति का नाम देकर पुरस्कृत किया जा रहा है, तो फिर उस तर्क के अतिशय तक जाने पर हिटलर तक का नाम उठ सकता है. यानी ब्रांट का मकसद नोबेल की गरिमा गिराना नहीं, अपने समय की राजनीतिक नैरेटिव पर एक तीखा सवाल उठाना था.

Adolf Hitler

स्वीडिश संसद के सदस्य एरिक ब्रांट ने नॉर्वेजियन नोबेल समिति को हिटलर के लिए नॉमिनेशन भेजा था. फोटो: Getty Images

क्या हिटलर पर गंभीरता से विचार किया गया?

ऐतिहासिक प्रमाण बताते हैं कि हिटलर को पुरस्कार देने के लिए नोबेल समिति ने गंभीरता से विचार नहीं किया. साल 1939 का नोबेल शांति पुरस्कार अंततः द्वितीय विश्व युद्ध के शुरू होने की पृष्ठभूमि में किसी को भी नहीं दिया गया. साल 1935 में एक जर्मन शांति-कार्यकर्ता और नाज़ी-विरोधी पत्रकार कार्ल वॉन ओसिएत्स्की को शांति का नोबेल मिला था, जो हिटलर शासन के लिए अपमानजनक माना गया.

ओसिएत्स्की को पुरस्कार देने के बाद नाज़ी जर्मनी ने अपने नागरिकों को नोबेल पुरस्कार स्वीकार करने पर पाबंदी जैसी प्रतिक्रियात्मक नीतियां अपनाईं. इस संदर्भ में यह मानना कि हिटलर को कभी नोबेल के लिए गंभीरता से देखा गया, ऐतिहासिक तथ्यों के प्रतिकूल है.

क्या कहती हैं किताबें?

नोबेल समिति के अभिलेखों और शोध-आधारित किताबों में इस प्रसंग के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं. नोबेल फाउंडेशन के ऐतिहासिक दस्तावेज और वार्षिक रिपोर्टों में 1939 के शांति पुरस्कार के संदर्भ दर्ज हैं. एरिक ब्रांट का नामांकन पत्र, उसके बाद की वापसी, और समिति की प्रक्रिया पर बाद में कई शोध-लेख प्रकाशित हो चुके हैं.

नोबेल-सम्बंधित शोध लेखों में यह स्पष्ट किया गया है कि ब्रांट का नामांकन व्यंग्य था और शीघ्र वापस ले लिया गया था अर्थात यह किसी वैचारिक समर्थन की श्रेणी में नहीं आता. इन सभी स्रोतों का सम्मिलित संकेत यही है कि हिटलर के नोबेल नामांकन की कथा को सन्दर्भ से काटकर दोहराना भ्रामक है; उसका मूल स्वर, व्यंग्यात्मक विरोध और राजनीतिक आलोचना था.

इसकी पुष्टि इतिहासकार इयान केर्शॉ (Ian Kershaw) की एडॉल्फ हिटलर पर लिखी विस्तृत जीवनी-श्रृंखला—Hitler: 18891936 Hubris और Hitler: 19361945 Nemesis से भी होती है. इन किताबों में उस दौर की यूरोपीय राजनीति, तुष्टिकरण की नीतियों और हिटलर की कूटनीतिक-आक्रामक चालों का व्यापक विश्लेषण मिलता है लेकिन नोबेल नामांकन का नहीं. अगर इसमें तनिक गंभीरता होती तो उसका उल्लेख महत्वपूर्ण तरीके से होता. एक और इतिहासकार विलियम एल. शिरर की किताब The Rise and Fall of the Third Reich नाज़ी जर्मनी के उदय-पतन का क्लासिक वृत्तांत है, जो 1930 के दशक के यूरोपीय कूटनीतिक संदर्भों और हिटलर की नीति-चालों की पृष्ठभूमि देता है लेकिन नोबेल नामांकन के बारे में नहीं.

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हिटलर को पुरस्कार देने के लिए नोबेल समिति ने गंभीरता से विचार नहीं किया.

नामांकन की वैधता बनाम नैतिकता

अब प्रश्न यह है कि उस नामांकन के पीछे जो तर्क थे, मान लें, कि तुष्टिकरण को शांति कहा जा रहा था तो उनमें कितना दम था? इसे तीन अलग-अलग नजरिए से देखना उचित होगा.

  • प्रक्रियात्मक वैधता: नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकन करने के अधिकार कुछ विशिष्ट वर्गों, सांसदों, प्रोफेसरों, पूर्व पुरस्कार विजेताओं, आदि को होते हैं. इस लिहाज़ से ब्रांट, एक सांसद होते हुए, औपचारिक रूप से नामांकन भेजने के अधिकार में थे. यानी, प्रक्रिया की दृष्टि से उनका पत्र वैध था, पर यह वैधता किसी नैतिक समर्थन का पर्याय नहीं थी.
  • नैरेटिव पर चोट: ब्रांट का व्यंग्य उस समय की लोकप्रिय राजनीतिक कथा पर तेज प्रहार था—कि कूटनीति की हर कीमत पर युद्ध टाल देने को, भले ही वह आक्रामकता को बढ़ावा दे, शांति कह देना खतरनाक भ्रम है. इस तरह, उनका पत्र एक नैतिक-राजनीतिक तर्क प्रस्तुत करता है. वह यह कि यदि आप शांति को केवल तात्कालिक युद्ध-टालने तक सीमित कर देंगे तो अंततः हिंसा और बड़ा युद्ध ही आमंत्रित होगा—जो 1939 के बाद सच भी साबित हुआ.
  • नैतिक असंगति: शांति पुरस्कार का मूल उद्देश्य मानवता, अधिकारों और दीर्घकालिक शांति-विकास के हित में कार्य को मान्यता देना है. हिटलर की नीतियाँ—यहूदियों और अन्य समुदायों का दमन, विस्तारवादी युद्ध नीति, लोकतांत्रिक संस्थाओं का विनाश—इनके प्रतिकूल थीं. इसलिए किसी भी शांति तर्क के नाम पर हिटलर का नाम लेना नैतिक रूप से विडंबनापूर्ण और अस्वीकार्य था. ब्रांट का संदेश भी यही था—एक नैतिक दर्पण दिखाना, न कि हिटलर का महिमामंडन करना.

ट्रंप को लेकर बहस क्यों?

आज जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के संभावित नोबेल पर चर्चा होती है, समर्थक अक्सर किसी एक कूटनीतिक कदम—जैसे मध्य-पूर्व में सामान्यीकरण समझौते, या उत्तर कोरिया से वार्ता को शांति-सृजन का संकेत बताकर पुरस्कार की दावेदारी का तर्क देते हैं. आलोचक इसके उलट, घरेलू ध्रुवीकरण, बयानों की तीव्रता, अथवा अन्य नीतिगत परिणामों को आधार बनाकर दावेदारी पर सवाल उठाते हैं.

कंबोडिया-थाईलैंड के बीच हालिया संघर्ष, भारत के ऑपरेशन सिंदूर तक को समर्थकों ने ट्रम्प के खाते में लिख रखा है. खुद ट्रम्प ने भी भारत-पाकिस्तान के बीच चल रहे कथित युद्ध को रोकवाने के अनेक दावे किये हैं. यह और बात है कि भारत सरकार ने उनके दावे को हमेशा खारिज किया है. हिटलर वाले प्रसंग से यह स्पष्ट है कि शांति की संज्ञा अगर संदर्भ, मूल्यों और परिणामों से काट दी जाए, तो वह वैचारिक भ्रम बन सकती है.

गलतफहमियां क्यों फैलती हैं?

असल में नामांकन और पुरस्कार में फर्क है. बहुत-से लोग नामित होने को ही योग्य मान लेते हैं, जबकि नामांकन भेजना कई पात्र व्यक्तियों, संस्थाओं के लिए संभव है. यह पुरस्कार मिलने की गारंटी नहीं है. हिटलर के नामांकन को प्रसंग से काटकर सोशल मीडिया में सनसनी के लिए दुहराया जाता है, पर व्यंग्यात्मक नामांकन और उसकी वापसी का उल्लेख छोड़ दिया जाता है.

इस तरह अर्ध सत्य परोसकर भ्रम की स्थिति पैदा की जा जाती रही है. जब समकालीन नेताओं पर नोबेल चर्चा गर्म होती है, तब पुराने असंगत उदाहरणों को लोग बरबस उछाल देते हैं. जैसे ट्रम्प की चर्चा के बीच हिटलर का नामांकन इन दिनों सुर्खियां बटोर रहा है.

हिटलर का नामांकन एक चेतावनी है कि शांति शब्द का दुरुपयोग, चाहे जान-बूझकर हो या अज्ञानतावश, कितना भ्रामक हो सकता है. शांति पुरस्कार का उद्देश्य केवल युद्ध-टालने का तात्कालिक श्रेय देना नहीं, बल्कि न्यायपूर्ण, टिकाऊ, मानवाधिकार-सम्मत शांति-व्यवस्था की ओर बढ़ने वाले कार्यों को मान्यता देना है. समकालीन ट्रंप-बहस के संदर्भ में भी यही कसौटी लागू होती है. किसी भी नेता के लिए नोबेल शांति पुरस्कार का मूल्यांकन उसके कदमों के दीर्घकालिक, व्यापक, और मानवाधिकार-समर्थ प्रभाव से होना चाहिए न कि केवल किसी एक समझौते या तात्कालिक तनाव-शमन से.

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