स्मृति शेष: शास्त्रीय गायकी का सबसे सरल और सहज चेहरा…:किराना-बनारस घराने के मजबूत स्तंभ थे पंडित छन्नूलाल मिश्र

भारतीय शास्त्रीय संगीत के दिग्गज गायक पंडित छन्नूलाल मिश्रा का गुरुवार सुबह 4:15 बजे 89 साल की उम्र में यूपी के मिर्जापुर में निधन हो गया। वह पिछले कुछ समय से बीमार थे। आजमगढ़ में जन्मे पंडित जी को अद्वितीय योगद के लिए वर्ष 2000 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 2010 में पद्म भूषण और 2020 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया था। पंडित मिश्र 2014 लोकसभा चुनाव में वाराणसी सीट से नरेंद्र मोदी के प्रस्तावक भी थे। पंडित छन्नूलाल मिश्र। शास्त्रीय गायकी को जन-जन तक पहुंचाने वाली एक शख्सियत से पहले ऐसे गायक थे जिन्होंने सुर, शास्त्रीयता और गायकी की गंभीरता के साथ श्रोताओं की कर्णप्रियता को भी उतनी ही प्रमुखता दी। उन्हें सुनने वाला कोई व्यक्ति राग या सुर का ज्ञान भले ही नहीं रखता हो, लेकिन सुनना फिर भी अच्छा लगता था। वे बड़ा खयाल गाएं या छोटा, चूंकि बहुत ज्यादा टेक्निकल नहीं होते थे, यानी सरगम को ज्यादा लम्बा नहीं खींचते थे इसलिए, श्रोता को वो खयाल गायकी भी विलंबित या द्रुत लय के भजन की तरह ही लगती थी। उन्होंने शास्त्रीय गायकी को लोकगीत की तरह प्रस्तुत करने में ज्यादा ध्यान दिया। यही वजह थी कि जिस शास्त्रीय मायकी को सुनने वाले कभी दस-पचास होते थे, उन्हीं संगीत सभाओं में बाद में 50 हजार तक श्रोता आने लगे। ये गायन के बीच में चीजों को सरल-सहज भाषा में समझाते थे। बड़े रस के साथ सुरों की उत्पत्ति समझाते थे। कहते थे- एक बार गांव में बच्चा पैदा हुआ तो माताएं सोहर गा रही थीं- मोरे पिछवाचार, चंदन गाहे अवरो से चंदन हो. रामा सुपर बडैया मारे हां, लालन जी के पालन हो। भारद्वाज ऋषि जब वहां से गुजरे ती सोहर सुनकर उन्होंने कहा- हमें ती वेद के तीन सुर मिल गए। बड़े खुश हुए। क्योंकि पहले वेद गाया नहीं जाता था। पढ़ा जाता था। वेद पढ़ें जब बटु समुदायी…। अब देखिए रामा सुयर बड़ेया मारे. रेगरेसा रेगरेसा रे
सामवेद की पहली ऋचा क्या है- अम्न आ पाहि वीतये, विजानी हव्यदात्ये
इसे ऐसे समझिए अन आ याहि वीतये रेखोला रेगरेसा रे.. कुल मिलाकर पंडितजी को सुनने से संगीत न जानने वाले के मन में भी बात भीतर तक उतर जाती थी। वैसे उन्हें गायकी के सभी अंग में महारत हासिल थी। खयाल, डुमरी, कजरी, चैती, टप्पा, होरी, धमार… पर उन्हें ठुमरी के लिए ज्यादा जाना गया। वे हर तरह की ठुमरी गाते थे। विलंबित लय की तुमरी, मध्य लय की तुमरी, श्रृंगार रस दुमरी, भाष नृत्य तुमरी, बोल बनाव तुमरी और बोल बांट ठुमरी। ये सब कैसे अलग-अलग हैं, यह भी समझाते चलते थे। ठुमरी में जो चार चीजें प्रधान होती हैं- खटका, मुकीं, किटगिरी और पुकार एक ही शब्द में इन चारों चीजों को अलग-अलग गाकर भेद बताते थे। खटके में खटका लगता था, मुर्की में हल्की तान मुर्की की तरह ही प्रतीत होती है और पुकार तो पुकारने की तरह ही होती थी। उस्ताद बिस्मिल्ला खां साहब जो शहनाई में खीचते थे वो पुकार ही होती थी। पंडितजी ने हर मंच से हमेशा कहा कि जो श्रोता के कानों को भाए, वही अच्छी गायकी। लंबी-लंबी तानों और सरगम को बहुत देर तक आप खींचेंगे तो श्रोता खुद ही लंबी तान लेने लगता है। कुल मिलाकर आपकी शास्त्रीयता सरल व सहज होनी चाहिए। कम ही लोग जानते होंगे कि पंडित जी मूर्धन्य गायक होने के साथ बड़े अच्छे तबला वादक भी थे। लेकिन ताल के इस ज्ञान के बावजूद उन्होंने अपनी गायकी को टेक्निकल नहीं होने दिया। ज्यादातर उनकी ठुमरी दीपचंदी, दादरा, अद्धा और रूपक ताल पर ही चलती रही। ठुमरी के पूरब अंग (बनारस) को उन्होंने आजीवन बड़ी खूबी के साथ निभाया।

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