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ख़ालिदा ज़िया के निधन से बांग्लादेश की राजनीति में एक युग का अंत, शेख़ हसीना के शोक संदेश से हलचल, भविष्य पर सवाल

बांग्लादेश की राजनीति में वर्षों तक एक-दूसरे की कट्टर प्रतिद्वंद्वी रहीं शेख़ हसीना और बेगम ख़ालिदा ज़िया के बीच चली आ रही ‘बेगमों की जंग’ का अंत अब एक तरह से हो गया है। पूर्व प्रधानमंत्री ख़ालिदा ज़िया के निधन के साथ ही वह अध्याय भी बंद हो गया, जिसने दशकों तक बांग्लादेश की राजनीति की दिशा तय की थी।
बता दें कि मंगलवार को ख़ालिदा ज़िया के निधन पर भारत में निर्वासन में रह रहीं पूर्व प्रधानमंत्री शेख़ हसीना ने शोक संदेश जारी करते हुए लोकतंत्र की स्थापना में उनके योगदान को याद किया। यह वही दोनों नेता हैं, जिन्होंने 1980 के दशक के अंत में तानाशाह राष्ट्रपति हुसैन मोहम्मद इरशाद के खिलाफ एकजुट होकर आंदोलन किया था। उस दौर में दोनों ने मिलकर सैन्य शासन के खिलाफ मोर्चा खोला था, लेकिन बाद के वर्षों में यही साझेदारी तीखे राजनीतिक संघर्ष में बदल गई।
गौरतलब है कि शेख़ हसीना बांग्लादेश के संस्थापक शेख़ मुजीबुर रहमान की पुत्री हैं, जबकि ख़ालिदा ज़िया देश के पूर्व राष्ट्रपति जिया-उर-रहमान की पत्नी थीं। दोनों नेताओं ने अपने-अपने राजनीतिक सफर में निजी त्रासदियों को झेला, लेकिन सत्ता की राजनीति ने उन्हें लगातार आमने-सामने रखा। 1991 में ख़ालिदा ज़िया देश की पहली महिला प्रधानमंत्री बनीं, जबकि शेख़ हसीना विपक्ष की नेता रहीं। बाद में सत्ता का यह चक्र बार-बार बदला कभी हसीना सत्ता में आईं, तो कभी ज़िया।
मौजूद जानकारी के अनुसार, ख़ालिदा ज़िया के कार्यकाल में बांग्लादेश की राजनीति में धार्मिक दलों की भूमिका बढ़ी, जिससे भारत-बांग्लादेश संबंधों में भी खटास आई। वहीं, शेख़ हसीना के दौर में विपक्ष पर सख्ती बढ़ी और कई मामलों में ख़ालिदा ज़िया और उनके परिवार को जेल का सामना करना पड़ा। उनके दोनों बेटे निर्वासन में चले गए और राजनीतिक दूरी और गहरी हो गई।
यह भी उल्लेखनीय है कि 2010 के बाद दोनों नेताओं के बीच व्यक्तिगत कटुता इतनी बढ़ गई कि संवाद लगभग समाप्त हो गया। जब ख़ालिदा ज़िया के बेटे की मृत्यु हुई, तब शेख़ हसीना के शोक जताने जाने पर भी उन्हें लौटा दिया गया। इसके बावजूद, शेख़ हसीना ने सार्वजनिक रूप से कहा था कि राजनीति से ऊपर मानवता होनी चाहिए।
अब जब ख़ालिदा ज़िया का निधन हो चुका है और शेख़ हसीना स्वयं निर्वासन में हैं, तो बांग्लादेश एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहां दोनों ‘बेगमों’ के बिना चुनाव होने जा रहे हैं। विश्लेषकों का मानना है कि इससे कट्टरपंथी और कट्टर इस्लामी ताकतों को जगह मिल सकती है, जो लंबे समय से मुख्यधारा की राजनीति को चुनौती देती रही हैं।


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