बदायूं में ड्यूटी निभाते हुए लहूलुहान हुए वन दरोगा शिवम प्रताप सिंह की हालत किसी एक हादसे की कहानी नहीं, बल्कि वन विभाग के जिम्मेदार अफसरों की संवेदनहीन और लापरवाह कार्यशैली का आईना है। सवाल सिर्फ इतना नहीं है कि दरोगा पर जंगली सुअर ने हमला किया, सवाल यह है कि आखिर उन्हें किस भरोसे, किस तैयारी और किस संसाधन के साथ ऐसे खतरनाक हालात में झोंक दिया गया। जंगली सुअर पकड़ने की सूचना पर न तो विभाग के पास पिंजरा था, न ट्रैंकुलाइजर, न सुरक्षा जैकेट और न ही प्रशिक्षित रेस्क्यू टीम। फिर भी आदेश हुआ और फील्ड में उतर गए वन दरोगा शिवम प्रताप सिंह, साथ में एक सिपाही। मजबूरी में गांव वालों से मदद ली गई, जाल तक ग्रामीणों से मंगवाया गया। नतीजा वही हुआ, जिसकी आशंका थी। हालात बेकाबू हुए और जंगली सुअर ने दरोगा पर जानलेवा हमला कर दिया। प्राइवेट पार्ट समेत शरीर के सात हिस्सों में गंभीर चोटें आईं और उन्हें बरेली के निजी अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। यहां सवाल यह भी है कि क्या बदायूं में वन विभाग केवल घटनास्थल पर पहुंचकर फोटो खिंचवाने और कोरम पूरा करने के लिए है। तेंदुआ दिखने की सूचना मिलती है तो वनकर्मी लाठी लेकर ग्रामीणों के साथ निकल पड़ते हैं। न विशेषज्ञ टीम, न आधुनिक उपकरण। सांप निकलने पर भी विभाग खुद जिम्मेदारी लेने के बजाय सर्पमित्रों को फोन घुमा देता है। हर जोखिम फील्ड स्टाफ के हिस्से, हर जवाबदेही अफसरों से दूर। दरोगा शिवम प्रताप सिंह ने कोई गलती नहीं की। उन्होंने वही किया, जो सिस्टम उनसे करवाता है—बिना सवाल किए आदेश का पालन। असली कसूर उन अधिकारियों का है, जो फील्ड स्टाफ को बिना तैयारी, बिना सुरक्षा और बिना संसाधन जंगल के कानून से लड़ने भेज देते हैं, लेकिन हादसा होने पर फाइलों में उलझकर चुप्पी साध लेते हैं। डीएफओ निधी चौहान भी इस मामले में फिलहाल कुछ भी कहने से बचती दिख रही हैं।
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