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भक्ति रस में डूबी गीता वाटिका:कथा व्यास ने सुनाई गुरु के प्रति शिष्य के समर्पण की कथा, भाव विभोर हुए भक्त

गोरखपुर के गीता वाटिका में राधाबाबा की 114वें जन्म महोत्सव के अवसर पर आयोजित भक्तमाल कथा के दौरान चौथे दिन कथाव्यास ने नाभादास के गुरु के प्रति समर्पण का वर्णन किया। उन्होंने बताया कि किस तरह जब नाभादास के गुरु साधना में लीन थे और उनके भक्त ने मदद के लिए उन्हें पुकारा, उस समय उनका ध्यान बस टूटने ही वाला था। लेकिन नाभादास ने खुद अपने गुरु के भक्त की मदद की और उनका ध्यान भंग नहीं होने दिया। कथा को सुनने के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु मौजूद रहे। वहीं रासलीला के समय हर तरफ भक्तिमय माहौल नजर आया। श्रद्धालु बड़े ही लगन कथा का आनंद लिया और भक्ति में लीन नजर आएं। भक्तमाल भक्ति साहित्य भगवान को परम प्रिय कथा के माध्यम से उन्होंने श्रद्धालुओं को समझाया कि भक्तमाल भक्ति साहित्य का अनूठा अनमोल रत्न है। यह ग्रन्थ भक्तों के साथ ही भगवान को भी परम प्रिय है। भक्तमाल कथा के सुनने वाले खुद भगवान ही हैैं। जैसे भक्तों को भगवान का चरित्र अति प्रिय है, वैसे ही भगवान को भी भक्तों का चरित्र अति प्रिय है। सत्य तो यह है कि भगवान अपने से अधिक भक्तों को आदर देते है। वे उनकी भक्ति से इतने भावविभोर हो जाते है कि उनके चरण रज को माथे से लगाने के लिए भक्त के पीछे-पीछे चल पड़ते हैं। साधना में लीन गुरु की नहीं टूटने दिया ध्यान
प्रिया दास महाराज बताते है कि ‘‘एक बार की बात है नाभा दास के पूज्य गुरुवर अग्र दास महाराज भगवान सीता राम की मानसी उपासना में लीन थे और उनके शिष्य नाभा दास धीरे-धीरे उनको पंखा झल रहे थे। उसी समय अग्र दास का एक शिष्य जहाज से समुद्र की यात्रा कर रहा था। उसका जहाज एकाएक समुद्री तूफान में फंस गया। संकट से मुक्ति पाने के लिए शिष्य ने पूज्य गुरुदेव को याद किया। परिणाम यह हुआ कि गुरुजी का ध्यान शिष्य की ओर चला गया। उनकी मानसी अराधना का ध्यान भंग हो गया। ध्यान भंग होने की बात नाभा दास समझ गए। तब उन्होंने अपने पंखें की वायु से रूके हुए जहाज को भंवर के संकट से पार कर दिया। तब नाभा दास पूज्य गुरुदेव से बोले-प्रभु वह जहाज फिर चल पड़ा है। अब पहले के समान ही भगवान के ध्यान में लग जाइए। यह सुनकर अग्र देव ने आंखें खोली और कहा-कौन बोला? नाभा दास हाथ जोड़कर बोले-वहीं आपका दास जिसे आपने अपना चरणामृत और शीत प्रसाद देकर पाला है। नाभा दास की इस बात को सुनकर अग्र देवा के आश्चर्य का ठीकाना नहीं रहा। गुरु ने दिया संतों के गुणगान का आदेश
वे मन-ही-मन सोचने लगे कि आज मेरे शिष्य की ऐसी ऊंची स्थिति हो गयी है कि यह मेरी मानसी सेवा तक पहुंच गया। फिर विचार करते ही उनके मन में बड़ी प्रसन्नता हुई। वे जान गए कि संतों की सेवा और उनसे मिला प्रसाद ग्रहण करने की ही यह महिमा है। उसी समय अग्रदेवाचार्य ने नाभा दास को आज्ञा देते हुए कहा-‘‘यह भई तोपै साधु कृपा उनहीं को रूप गुन कहो हिये भाव को’’ मतलब वत्स, तुम्हारें ऊपर यह साधु-संतों की कृपा हुई है। अब तुम उन्हीं साधु-संतों के गुण स्वरूप और उनके हृदय के भावों का गान करों। इस प्रकार नाभा दास ने गुरुदेव अग्रदेवाचार्य की कृपा से ‘‘भक्तमाल’’ ग्रन्थ की रचना की। चरणामृत लेना भी एक प्रकार की भक्ति
कथा में पूज्य महाराज जी ने बताया कि चरणामृत लेना भी एक प्रकार की भक्ति है। चौंसठ प्रकार की भक्तियों में चरणामृत ग्रहण करने की बड़ी भारी महिमा है। भगवत चरणामृत से बढ़कर संत चरणामृत का महत्व है। भगवान ने भक्त के घर पधार कर दी दर्शन
अनेक उदाहरणों के माध्यम से उन्होंने शीत प्रसाद और चरणामृत की महिमा का बखान किया। इसके साथ ही भक्त हरपाल की भी कथा बड़े ही भावपूर्ण ढंग से सुनायी। कथा में भक्तों को बताया कि भक्त हरपाल की भक्ति से भगवान इतने प्रसन्न हुए कि वे स्वयं रूक्मणी के साथ उनके घर पधारकर उनको साक्षात दर्शन दिया। राधामाधव की मनमोहक झांकी ने किया आकर्षित वहीं रासलीला राधामाधव की आरती से प्रारम्भ हुई। उसके बाद यमुना के तट पर भगवान श्रीकृष्ण ने राधा और गोपियों के साथ रास रचाई। इस पावन बेला में राधामाधव की मनमोहक झांकी की भी प्रस्तुत की गयी। जब राधा रानी ने किया मोर भगवान का दर्शन
एक दृश्य में दिखाया गया कि राधा, गोपियों के साथ मोर भगवान का दर्शन करने के लिए वन में पहुंचती हैं, जहां उन्हें गोपियों के साथ मोर भगवान के दर्शन होते हैं। रासलीला में सुप्रसिद्ध कृष्ण काव्य परंपरा के महान भक्त नन्ददास के पावन चरित का प्रस्तुतिकरण किया गया। महान भक्त नन्ददास को भी किया चरितार्थ
नन्ददास अष्टछाप के प्रमुख कवियों में से एक थे। उन्होंने भंवरगीत, रासपंचाध्यायी, नन्ददास पदावली, नाम चिंतामणी और योग लीला संबंधी अनेक ग्रन्थों की रचना की। ये विट्ठलदास के शिष्य थे। इनकी भक्ति से प्रभावित होकर भगवान ने स्वयं इनको दर्शन दिया था। नन्ददास के विषय में कहा गया है कि-‘‘और कवि गढ़िया नन्ददास जड़िया’’।


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