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भोजन खाने से मानवीय और प्रसाद खाने से दैवी वुद्धि का संवर्धन होता है : आचार्य धर्मेंद्र

ब्रह्मपुर| मानव जीवन को जीवन शैली प्रभावित करती है। जीवनशैली केवल वस्त्र नहीं,आहार नहीं वरन शब्द से भी प्रभावित होती है। शब्द ब्रह्म है। असीमित शक्तियां है, उर्जा है उसमें। हीरा का मोल हो सकता , होता भी है,पर शब्द का मोल नहीं हो सकता। शब्द माखन भी खिला सकता है और जूता भी। अतः सनातन का निदेश है वचन सदा संययमय होना चाहिए। संयमित , मृदु वचन बोलने वाले को भी आनंदित करते और सुनने वाले को भी। अतः वाणी, वचन सदा संययमय होना ही चाहिए। आज का संकट शब्द का नपा-तुला , संयमित नहीं बोलना है। शब्द देखने में पर्यायवाची लगते हैं,पर उनका वजन पृथक पृथक होता है।जैसे खाना, भोजन , प्रसाद एक जैसे हैं,पर अर्थ और प्रभाव देखिए खाना का अर्थ है भूख मिटाने हेतु बिना हाथ पांव धोये, खड़ा खड़ा खाया जाता। भोजन वह है जो हाथ पांव धोकर ,एक आसन में नारायण को निवेदित कर खाया जाय।और प्रसाद वह है जो भगवान को तुलसी दल के साथ निवेदित किया गया हो।


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