50 पैसे किलो बिक रहा था गन्ना, किसान बोला- आग लगा दूंगा, लेकिन कम दाम में नहीं बेचूंगा। पत्नी ने कहा- आग लगाने से पहले थोड़ा गन्ना निकाल लेना, सिरका बनाना है। ‘भाग्यवान’ के जुगाड़ ने ‘भाग्य’ खोल दिया। सड़क किनारे से शुरू हुआ बिजनेस एक करोड़ के टर्नओवर तक पहुंच गया और मुनाफा 45 लाख से ऊपर… 1980, बस्ती का केशवपुर। सभापति शुक्ला का परिवार गांव के संपन्न घरों में गिना जाता था। दो भाई सरकारी नौकरी में थे, इसलिए जिम्मेदारियों का बोझ बंटा हुआ था। बस सभापति के काम-धंधे का जुगाड़ कुछ सेट नहीं हो रहा था। घाट-घाट से पानी भरने के बाद सभापति ठेकेदारी करने लगे। किस्मत का सिक्का चल निकला, काम जम गया। आसपास के इलाकों में पहचान बनने लगी। काम बढ़ा तो पैसे भी आने लगे। सभापति की हालत सुधरने लगी थी। फिर जिंदगी ने अचानक करवट ली। एक दिन वे काम के सिलसिले में घर से निकले और रात तक वापस नहीं आए। खबर मिली कि रास्ते में उनका भयानक एक्सीडेंट हो गया है। शरीर का पिछला हिस्सा बुरी तरह छिल चुका था। इलाज लंबा और तकलीफदेह था। कई महीनों तक पीठ के बल सो भी नहीं पाए। मजबूरी में पेट के बल सोना पड़ता था। रात में नींद के दौरान करवट बदली तो कपड़े घाव से चिपक जाते। उसे हटाने की कोशिश में ऐसा भीषण दर्द उठता कि जान ही निकल जाए। समय बीता, जख्म भर गए, शरीर ने साथ देना शुरू कर दिया। लेकिन जिंदगी वहां से आगे नहीं बढ़ी, जहां रुकी थी। उनका पूरा धंधा बिखर चुका था। ठेकेदारी हाथ से निकल गई थी। जिन लोगों के सहारे काम चलता था, वो संपर्क भी टूट चुके थे। घर की जिम्मेदारियां कम होने के बजाय और बढ़ गई थीं। बच्चे बड़े हो रहे थे, उनकी पढ़ाई और भविष्य की चिंता सिर उठाने लगी थी। जिंदगी उन्हें फिर उसी मोड़ पर ले आई थी, जहां से बाहर आने में कई साल लगे थे। उस शाम सभापति बहुत उदास बैठे थे, दिन ढल चुका था। उन्होंने चुपचाप खाना खाया और बिस्तर पर जाकर लेट गए। मन में चल रही उथल-पुथल चेहरे से साफ झलक रही थी। पत्नी शकुंतला लोटे में पानी लेकर आईं और उनके पास बैठ गईं। धीरे से पूछा- “क्या हुआ, मुंह क्यों लटका है?” सभापति ने भारी आवाज में कहा- “जो कुछ जमा-बचत थी, सब दवाई में चली गई… और इस शरीर के साथ अब ठेकेदारी भी नहीं होगी। समझ नहीं आ रहा नइया कैसे पार होगी।” शकुंतला कुछ देर चुप रहीं। फिर शांत आवाज में बोलीं- “रामजी ने कुछ तो सोचा ही होगा। जब वो सोचेंगे तो कुछ अच्छा ही होगा।” कमरे में कुछ देर तक खामोशी पसरी रही। फिर सभापति बोले- “खेतीबाड़ी ही देखी जाए क्या… गन्ना तो खूब होता है अपनी तरफ।” पत्नी ने बस इतना कहा- “भगवान का नाम लेकर शुरू कीजिए, जो होगा देखा जाएगा।” पत्नी की इस बात ने सभापति को हौसला मिला। साल था 1984, सभापति ने गन्ने की खेती शुरू कर दी। खूब मेहनत की, मजदूरों के साथ खुद भी जुटे रहे। फसल बेचने का वक्त आया तो निराशा हाथ लगती। लागत के हिसाब से मुनाफा बहुत कम था। मेहनत, वक्त और उम्मीद सब जैसे मिट्टी हो मालूम होता था। एक दिन सभापति बाजार से घर लौटे। गमछा एक तरफ फेंकते हुए बोले- “पचास रुपए क्विंटल गन्ना खरीद रहे हैं। मैं नहीं बेचूंगा।” शकुंतला चूल्हे पर खाना बना रही थीं। उन्होंने पलटकर देखा और बोलीं- “बेचेंगे नहीं तो क्या करेंगे?” सभापति- “मेहनत की कोई कीमत ही नहीं रह गई। बीज, खाद, पानी सब महंगा और दाम कौड़ियों के।” शकुंतला- “गुस्से से पेट नहीं भरता। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, घर के खर्चे सब कैसे चलेगा। इस बार बेच दो, अगली बार से कुछ और सोचेंगे।” सभापति ने जवाब नहीं दिया। उनका चेहरा तना हुआ था। वो बिना कुछ बोले बाहर चले गए। शकुंतला बुदबुदाईं- “किसान होना ही सबसे बड़ी सजा है।” सभापति शाम को घर लौटे। चुपचाप आकर आंगन में बैठ गए। शकुंतला पानी लेकर आईं और बैठ गईं। सभापति ने लोटे से पानी पीया, लेकिन नजरें जमीन में गड़ी थीं। शकुंतला धीरे से बोलीं- “गुस्सा न हों तो एक बात कहें।” सभापति ने कोई जवाब नहीं दिया। “आपकी बात सही है। इतनी मेहनत का इतना दाम तो मजाक है, लेकिन इतना गन्ना घर में रखकर क्या करेंगे?” सभापति भड़क गए- “तो क्या औने-पौने में बेच दूं? महीनों खेत में खपाया है खुद को।” शकुंतला बोली- “मैं ये नहीं कह रही हूं। बस रास्ता सोच रही हूं।” सभापति ने कहा- “गन्ना धूप में सुखाकर घर में रखेंगे और ठंड में अलाव तापेंगे।” शकुंतला चुप हो गईं। उनकी आंखें भर आई थीं- “अलाव तापेंगे तो पेट कैसे भरेगा? बच्चों की पढ़ाई-लिखाई…” सभापति सिर पकड़कर बैठ गए, बोले- “सब पता है लेकिन इस दाम पर बेचकर क्या मिलेगा?” शकुंतला बोलीं- “फसल जला दी तब तो कुछ भी नहीं बचेगा।” सभापति की आवाज भारी हो गई- “तो क्या करें शकुंतला? किसान होना ही गुनाह हो गया है।” सभापति ने आंगन की तरफ देखा, जहां गन्ने के ढेर लगे थे। आंखों में नमी थी और आवाज में थकान- “इतनी मेहनत का ये अंजाम होगा, कभी सोचा नहीं था।” पत्नी और बच्चों का मुंह देखकर सभापति शुक्ला ने एक बार फिर हिम्मत जुटाई। गन्ना बेचने के बजाय उसके रस से गुड़ बनाने का सोचा। जो कुछ भी पूंजी बची थी, उसे लगाकर गुड़ की भट्ठी लगाई। खेत से गन्ने की कटाई होती। गन्नों को छीलकर कोल्हू में डाला जाता। जैसे ही कोल्हू घूमता, हरे रंग का रस नीचे रखे बर्तनों में इकट्ठा होने लगता। उस रस को देखकर सभापति को थोड़ी उम्मीद बंध रही थी। लेकिन रस से गुड़ बनने तक का सफर आसान नहीं था। पहले रस साफ करके बड़ी-सी कढ़ाही में धीमी आंच पर चढ़ाया जाता। धीरे-धीरे उबाल आने लगता और मैल ऊपर आकर जमने लगता। उसे छन्ने से लगातार निकाला जाता। घंटों की मेहनत के बाद रस कुछ चाशनी जैसा बनने लगता। सही गाढ़ापन आने पर कढ़ाही को उतार लिया जाता। थोड़ा ठंडा होने पर कलछी से फेंटा जाता, तब जाकर कहीं रस से गुड़ बन पाता। उस पल सभापति को लगता कि शायद ये रास्ता उन्हें मुश्किलों से बाहर निकाल लेगा। इतनी मेहनत के बावजूद तकदीर का पहिया नहीं घूमा। आसपास के इलाकों में पहले से ही कई लोग गुड़ बना रहे थे। उनका तरीका भी वही था। बाजार में ग्राहक पुराने भरोसेमंद लोगों के पास ही जाते थे। नया होने के कारण सभापति को खरीदार नहीं मिलते थे। खेतीबाड़ी की बदौलत ही किसी तरह घर चल रहा था। शकुंतला अपने पति के साथ जिम्मेदारियों का बोझ बराबर से उठा रही थीं। साल 2001 की बात है। एक दिन शकुंतला बोलीं- “मुझे गन्ने का रस चाहिए, एक काम है।” सभापति ने सवाल किया- “कौन-सा काम?” शकुंतला- “सिरका बनाऊंगी…” सभापति कुछ पल चुप रहे, फिर बोले- “सिरका बनाकर क्या करोगी?” शकुंतला बोली- “अरे, घर में काम आएगा। अचार में डालते हैं, सत्तू के साथ खाया जाएगा।” सभापति ने माथा खुजाते हुए कहा- “कितना लाऊं?”
“पचास किलो…” सभापति हंस पड़े- “पचास किलो में क्या होगा?” शकुंतला- “पचास किलो नहीं और ज्यादा लाइएगा…।” ये सुनकर सभापति को हैरानी तो हुई, लेकिन पत्नी के लहजे ने उन्हें कुछ कहने से रोक दिया। अगले ही दिन सभापति गन्ने का 70-80 किलो रस लेकर घर पहुंचे। शकुंतला ने बड़ा सा ड्रम धो-पोंछकर तैयार कर लिया था। सारा का सारा रस उसी में उड़ेल दिया गया। शकुंतला पूरे मन से काम में जुट गईं। सिरका बनाना उनके लिए कोई नया प्रयोग नहीं था। ये उन्होंने अपनी मां से सीखा था। रस को संभालकर रखा गया, दिन के साथ महीने गुजरते गए। समय के साथ रस का रंग, स्वाद और गंध बदलने लगा। रस सिरके में बदल रहा था। करीब 5 महीने बाद सिरका तैयार था। अब एक नया सवाल सामने था। इतना सिरका आखिर किया क्या जाए? शकुंतला ने सहजता से कहा- “थोड़ा घर में रख लेते हैं और कुछ आस-पड़ोस में दे देते हैं।” सभापति कुछ बोतलें लेकर आसपास के लोगों में बांट आए। लोगों ने चखा, स्वाद की तारीफ हुई। किसी ने कहा “सिरका बढ़िया बना है”, तो कोई बोला “बाजार वाले सिरके से अच्छा है।” कुछ लोगों ने ताने भी मारे। लोग कहते- “कोई काम इसके बस का नहीं है। ठेकेदारी कर ली, खेती कर ली, गुड़ बना लिया, अब सिरका बेचेंगे…” गांव के आदमी तो एक तरफ औरतें भी पीछे नहीं थीं। कहतीं- “सिरका कौन खरीदेगा। सबके घर में लीटर-दो लीटर निकल आएगा।” बात भी सही थी। गांव में लोग घरेलू इस्तेमाल के लिए सिरका खुद ही बना लेते हैं। फिर भी सभापति चुपचाप सब सुन लेते। रास्ता साफ नहीं था, लेकिन भीतर कहीं उम्मीद फिर से सिर उठा रही थी। ये एक छोटी शुरुआत थी, जिसे उस वक्त कोई बड़ी कामयाबी नहीं मान रहा था। शकुंतला उदास हो गईं, बोलीं- “लोग रोज ताने मारते हैं। कहते हैं अब ब्राह्मण घर-घर जाकर सिरका बेचेगा।” सभापति ने शांत आवाज में कहा- “लोग तो कहते रहेंगे। कुछ नहीं करेंगे, तब भी कहेंगे। घर में पूरा करने कोई नहीं आएगा।” शकुंतला की आंखें भर आईं। कुछ देर चुप्पी रही। फिर सभापति बोले- “कुछ बोतलें फैजाबाद वाले अजय वैद्य की दुकान रखवा देता हूं।” अगले दिन सभापति फैजाबाद पहुंच गए। अजय वैद्य ने उन्हें देखते ही पूछा- “कहिए शुक्ला जी, क्या लाए हैं?” सभापति ने बोतल आगे बढ़ाई, बोले- “बेचने नहीं, चखाने के लिए लाया हूं।” अजय ने बोतल खोली तो सिरके की खुशबू दुकान में फैल गई। उन्होंने थोड़ा-सा सिरका साथ में लेकर चखा। कुछ पल चुप रहे, फिर बोले- “ऐसा सिरका मैंने बहुत सालों बाद चखा है। एकदम देसी स्वाद है। बाजार में सब केमिकल वाला सिरका बिक रहा है।” सभापति ध्यान से सुन रहे थे। अजय बोले- “इसी काम में आ जाओ। ईमानदारी से करोगे तो बहुत आगे जाओगे।” सभापति की हिम्मत मजबूत हुई। कुछ बोतलें बिना दाम तय किए वहीं दुकान पर रख दीं। इस उम्मीद में कि सैंपल माल बिके तो आगे की तैयारी की जाए। कुछ ही दिनों में सारी बोतलें बिक गईं। ये उनके लिए अच्छा संकेत था। शायद आगे का रास्ता यहीं से निकलने वाला था। सभापति शुक्ला गांव के पास बस्ती-लखनऊ रोड पर तखत लगाकर सिरका बेचने लगे। रोज सुबह बोतलें सजाकर बैठ जाते। शुरुआत में बहुत कम ग्राहक आते थे। कई बार तो पूरा दिन गुजर जाता और एक भी बोतल नहीं बिकती। उस वक्त मन में डर उठता कि कहीं फिर से कोई गलत फैसला तो नहीं ले लिया। धीरे-धीरे लोग रुकने लगे। कोई चखकर देखता, कोई बनाने का तरीका जानना चाहता। बोतलें बिकने लगीं। आसपास के गांव में फेरी लगाने वाले भी सिरका लेने लगे। लेकिन, नेचुरल प्रोसेस से बिना केमिकल इस्तेमाल किए सिरका बनने में काफी वक्त लगता है। सभापति ने एक बात अपने मन में पक्की कर ली थी कि स्वाद और गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं करेंगे। इसी सोच के साथ हर बैच में वही मेहनत जारी रही। साल 2002-03 में अगली खेप के लिए सभापति ने चार क्विंटल गन्ने का रस कुछ ड्रमों में भरवा दिया। पत्नी शकुंतला इसकी देख-रेख करती रहीं। धीरे-धीरे पड़ोसी जिलों के दुकानदारों ने भी अपने काउंटर पर सिरका रखना शुरू कर दिया। कमाई बहुत ज्यादा नहीं थी, लेकिन घर का खर्च चल रहा था। उस समय यही बहुत था। कुछ दिनों बाद सभापति ने सरकार से फूड प्रोसेसिंग की ट्रेनिंग ली। वहां उन्हें बताया गया कि टैबलेट और केमिकल डालकर सिरका जल्दी तैयार किया जा सकता है। उन्होंने वो तरीका अपनाकर देखा। सिरका तो जल्दी बन गया, लेकिन कुछ ही दिनों में खराब भी होने लगा। कई बार पूरा बैच फेंकना पड़ा। उन्हें समझ में आया कि जल्दी का रास्ता लंबे समय तक साथ नहीं देता। इसके बाद उन्होंने दोबारा वही तरीका अपनाया जो पत्नी शकुंतला ने अपनी मां से सीखा था। वही देसी तरीका, वही लंबा वक्त लेने वाला प्रोसेस। गन्ने का ताजा रस बिना उबाले, बिना कोई केमिकल के ड्रमों में भरकर छोड़ दिया जाता। कुछ दिनों में रस सड़ने लगता, फरमेंटेशन शुरू हो जाता। फिर रंग बदलता और मिठास खट्टेपन में बदलने लगती। करीब पांच महीने में रस पूरी तरह सिरके में बदल जाता। इसके बाद कहीं बोतलों में भरकर बिक्री होती। इसी लंबे और नेचुरल प्रोसेस की वजह से सभापति शुक्ला के सिरके की मांग बढ़ने लगी। जहां कभी दो-चार सौ रुपए की बिक्री भी बड़ी बात लगती थी, वहां हजारों के हिसाब से कमाई होने लगी। समय के साथ काम बढ़ता गया। आज सभापति शुक्ला सालाना एक करोड़ रुपए से ऊपर का कारोबार करते हैं। इसमें 40 से 45 लाख रुपए शुद्ध मुनाफा होता है। बस्ती-लखनऊ रोड अब नेशनल हाईवे- 28 हो गया है। हाईवे किनारे शुक्ला जी की दुकान पर रोजाना करीब 60 हजार रुपए की बिक्री होती है और 12-15 हजार रुपए की ऑनलाइन बिक्री। शुक्ला जी ने चार क्विंटल गन्ने से सिरका बनाने की शुरुआत की थी। आज करीब 4 हजार क्विंटल गन्ना खरीदते हैं। उसका रस निकालकर सिरका बनाते हैं। इतना ही नहीं वे अंगूर, सेब और जामुन से भी सिरका बनाते हैं। इसके अलावा 60 तरह के अन्य प्रोडक्ट भी बनाते हैं। देश के कई बड़े शहरों तक उनका सिरका पहुंचता है। सभापति शुक्ला की कहानी जुगाड़ से निकले बिजनेस की कहानी नहीं है। ये उस जिद की कहानी है जो हालातों से हार मानने से इनकार कर देती है। ये उस भरोसे की कहानी है जो पत्नी के एक छोटे से सुझाव से जन्म लेता है और मेहनत के साथ एक बड़े कारोबार में बदल जाता है। *** स्टोरी एडिट- कृष्ण गोपाल *** कहानी को रोचक बनाने के लिए क्रिएटिव लिबर्टी ली गई है। ———————————————————- सीरीज की ये स्टोरी भी पढ़ें… सोचा नहीं था कबाड़ भी इतना महंगा बिकेगा, हाउसवाइफ मां और बेरोजगार बेटी ने खड़ा किया ₹10 करोड़ का बिजनेस इनोवेशन के लिए महंगे संसाधन या बड़ी टेक्नोलॉजी की जरूरत नहीं होती। असली इनोवेशन जरूरत और समझ से पैदा होता है। यही ‘जरूरत’ मेरे स्टार्टअप का आइडिया बनी। शिखा शाहबनारस में पैदा हुई और यहां के घाट-गलियों में खेली और पली-बढ़ीं। पूरी स्टोरी पढ़ें…
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