बांग्लादेश में एक हिंदू युवक की सरेआम हत्या के बाद भारत में हिंदुओं का गुस्सा उबाल पर है। सड़कों पर प्रदर्शन हो रहे हैं, सोशल मीडिया पर दीपु चंद्र दास की नृशंस हत्या करने वाले कट्टरपंथियों के लिए फांसी की मांग है और गुस्से से भरे बयान आ रहे हैं। यह स्वाभाविक भी है। किसी निर्दोष की उसके धर्म के कारण हत्या सभ्य समाज के मुंह पर तमाचा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या इस सबसे बांग्लादेशी हिंदू सुरक्षित हो जायेंगे? सवाल यह भी है कि बांग्लादेशी हिंदुओं के प्रति एकजुटता दिखाने भर से क्या भारत के हिंदू भी सुरक्षित हो जायेंगे?
आज भारत के हिंदू बांग्लादेश के हिंदुओं पर हो रही प्रताड़ना पर दुख तो जता रहे हैं, लेकिन अपने घर के भीतर जो हो रहा है उस पर आंख मूंदे बैठे हैं। यही सबसे बड़ी विडंबना है। हम दूर की आग देखकर चीखते हैं, लेकिन अपने आंगन में सुलग रही चिंगारी को अनदेखा कर देते हैं। देखा जाये तो एक भ्रम जानबूझकर फैलाया जा रहा है कि बांग्लादेश में हिंदू बंटे हुए हैं इसलिए मारे जा रहे हैं। बांग्लादेश में हिंदू बंटे नहीं हैं, फिर भी कट रहे हैं। दरअसल वहां हिंदू संख्या में कम हैं, इसलिए निशाने पर हैं। इतिहास गवाह है कि दुनिया में जहां जहां हिंदू घटे हैं, वहां वहां वे असुरक्षित हुए हैं। अफगानिस्तान, पाकिस्तान और अब बांग्लादेश यह कड़वा सच बार-बार दोहरा रहे हैं।
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अब नजर भारत पर डालिए। क्या हम सचमुच सुरक्षित दिशा में जा रहे हैं। आंकड़े बता रहे हैं कि भारत में हिंदुओं की जनसंख्या दर घट रही है। इसे हल्के में लेना आत्मघाती है। यह एक दीर्घकालिक खतरे का संकेत है। जो समाज अपने जनसांख्यिकीय भविष्य के प्रति उदासीन हो जाता है, वह इतिहास में करुण उदाहरण बनकर रह जाता है। सबसे खतरनाक बात यह है कि हिंदू समाज को यह सिखाया जा रहा है कि संख्या का कोई महत्व नहीं, एकता ही सब कुछ है। यह आधा सच है। इसमें कोई दो राय नहीं कि एकता जरूरी है, लेकिन संख्या के बिना एकता भी बेबस हो जाती है। बांग्लादेश के हिंदू इसका जीता जागता प्रमाण हैं। वे एक हैं, फिर भी असहाय हैं, क्योंकि वे कम हैं।
आज जरूरत भावनात्मक नारों की नहीं, ठोस आत्मचिंतन की है। क्या हम अपनी सामाजिक चेतना जगा रहे हैं। क्या हम अपने परिवार, संस्कृति और भविष्य को लेकर गंभीर हैं। या फिर हम भी तब जागेंगे जब बहुत देर हो चुकी होगी।
बांग्लादेश के हिंदुओं के लिए आवाज उठाना जरूरी है, लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी है भारत के हिंदुओं का जागना। अगर भारत में हिंदू अपनी जनसंख्या, अपनी सांस्कृतिक निरंतरता और अपने सामाजिक दायित्वों को लेकर सचेत नहीं हुए, तो मुश्किल खड़ी हो सकती है। इतिहास चेतावनी नहीं, उदाहरण छोड़ कर जाता है। अब तय हमें करना है कि हम चेतेंगे या अगला उदाहरण बनेंगे।
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