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मां ने तीन शादियां की, बाबा रोज मेरा रेप करते:बचने के लिए भरी सर्दी में छत पर सोती, फिर भी आ जाते

डिस्क्लेमर: पीड़ित के कहने पर उसका नाम और चेहरा दिखाया जा रहा है। उनका कहना है कि जिन लड़कियों के साथ ऐसा कुछ हो रहा, उन्हें हिम्मत करके आगे आना चाहिए। मां कहती थीं, मेरा जन्म 2003 में हुआ। तारीख क्या थी, मुझे ठीक से याद नहीं। शायद इसलिए, क्योंकि मेरी जिंदगी में तारीखों से ज्यादा बदलाव अहम रहे। नमस्ते, मैं अन्नू यादव। मेरी मां बाराबंकी की रहने वाली थीं। पापा मुंबई में मजदूरी करते थे। मेरे पैदा होने के कुछ साल बाद मैं और मां उनके साथ मुंबई चले गए। उस समय की बहुत धुंधली याद है। इतनी धुंधली कि मुझे ये तक याद नहीं कि पापा कैसे दिखते थे? बचपन के नाम पर मेरे पास सिर्फ मां की गोद और अनजाना शहर था। जिंदगी का पहला मोड़ तब आया जब मैं कुछ समझने लायक ही नहीं थी। मां और पापा अलग हो गए। मैं मां के साथ लखनऊ आ गई। कुछ वक्त बीता, साल 2010 में मां ने दूसरी शादी कर ली। मां ने जिससे शादी की, अब वही मेरे पापा थे क्योंकि अपने पिता को लेकर मेरे पास कोई याद ही नहीं थी। हमारी जिंदगी एक नए ढांचे में ढल गई। कुछ साल बाद मेरे दो भाई-बहन आ गए। हमारा छोटा-सा खुशहाल परिवार था। मां-पापा, हम तीन भाई-बहन और दादी-बाबा। मुझे लगता था कि यही मेरी दुनिया है। यही मेरा घर है, फिर धीरे-धीरे घर की दीवारों में दरारें पड़ने लगीं। हमारे घर की हालत ज्यादा अच्छी नहीं थी। हम गरीब बस्ती में काम करने वाले NGO के स्कूल में पढ़ते थे। मां चाहती थीं कि हम अच्छे स्कूल में पढ़ें। मां-पापा के बीच अक्सर पैसों को लेकर झगड़ा होता था। धीरे-धीरे घर से आवाजें बाहर जाने लगीं। रोज की गाली-गलौज, मारपीट जिंदगी का हिस्सा बन गया। तब-तक मैं समझदार हो चुकी थी, यही कोई 12-13 साल की उम्र थी। मां का चेहरा हमेशा थका हुआ रहता। पापा हर वक्त गुस्से में दिखते। मुझे अंदाजा नहीं था कि ये तनाव सिर्फ बहस तक सीमित नहीं रहेगा। 2016 का नया साल शुरू ही हुआ था कि जिंदगी में एक और मोड़ लिया। तब-तक मैं चीजें समझने लायक हो गई थी। मां और पापा अलग हो गए। पापा ने दूसरी शादी कर ली और मां ने तीसरी। हम बच्चों की छत और जमीन एक साथ खिसक गई। एक ही पल में हमारा घर, हमारा परिवार, सब बिखर गया। अब मेरे सामने फैसला लेने की मजबूरी थी। मां चाहती थीं कि हम उनके साथ रहें, लेकिन मैंने मां से कह दिया कि मैं उनके साथ नहीं जाऊंगी। दादी-बाबा मुझे बहुत प्यार करते हैं। मैं उनके साथ ही रहूंगी। मेरे भाई-बहन भी मां के साथ नहीं गए। पापा भी अपनी दूसरी शादी के बाद अलग रहने लगे। अब उस घर में सिर्फ हम तीन बच्चे और दादी-बाबा ही रह गए। शुरुआत के कुछ दिन सब ठीक रहा। दादी सुबह जल्दी उठकर दूसरों के घर काम पर जातीं और बाबा अपनी गार्ड की नौकरी पर। पढ़ाई भी जैसे-तैसे चल रही थी। मैं अब भी NGO के स्कूल में पढ़ रही थी। वहां मुझे दोस्त मिले, हंसी मिली और ऐसा माहौल मिला जिसमें मुझे किसी चीज की कमी महसूस नहीं होती थी। फिर मुझे महसूस हुआ कि मेरा फैसला जिंदगी की सबसे बड़ी भूल बनता जा रहा है। वो दिन भी आम दिनों जैसा ही था। दादी शादीवाले घरों में भी काम करती थीं। उस दिन वे ऐसी ही किसी घर में रुक गई थीं। शाम को बाबा घर आए। हम सबने साथ बैठकर खाना खाया। हम सब एक ही कमरे में सोते थे। भाई-बहन, बाबा के साथ तखत पर सोते थे और मैं जमीन पर। उस दिन भी कब आंख लगी, पता नहीं चला। आधी रात को मुझे अपने पास किसी की मौजूदगी का एहसास हुआ। पहले लगा कि शायद सपना देख रही हूं। फिर कुछ ऐसा हुआ, जिससे मैं कांप गई। समझ नहीं आया कि क्या हो रहा? मैंने खुद को पीछे खिसकाने की कोशिश की, विरोध करना चाहा। मेरे होंठ जैसे जकड़ गए थे। वो आदमी जिसे मैं अपना सहारा मानती थी, मुझे उसी से बचने की जरूरत पड़ रही थी। बाबा मेरे साथ जबरदस्ती कर रहे थे।
सुबह जब दादी वापस लौटीं तो मुझे लगा वह मेरी बात जरूर सुनेंगी। मैंने हिम्मत जुटाकर उन्हें सब बता दिया। मेरी बात सुनते ही उनका चेहरा बदल गया। उन्हें मुझ पर भरोसा ही नहीं था। उन्हें लगा, मैं झूठ बोल रही हूं। मैंने रोते हुए उन्हें समझाने की कोशिश की। बार-बार कहा कि मैं सच बोल रही हूं। उनका गुस्सा बढ़ता गया। फिर वो चिल्लाकर बोलीं- “जैसी मां, वैसी बेटी… तेरी मां मेरे बेटे को छोड़कर चली गई। हम तुझे और तेरे भाई-बहन को पाल रहे हैं, ऊपर से तू मेरे ही पति को गलत कह रही है।” वो शब्द मुझे आज तक चुभते हैं। मुझे उम्मीद थी कि दादी मेरी बात समझेंगी। जब उन्होंने मेरा यकीन नहीं किया तो मैं अंदर से टूट गई। फिर भी मन में एक बात थी कि किसी भी तरह दादी को सच दिखाना होगा। मैं बच्ची थी, फिर भी डर ने मुझे जरूरत से ज्यादा समझदार बना दिया था। मुझे लगा, दादी अगर खुद देख लेंगी तो उन्हें यकीन हो जाएगा। उस दिन बाबा छत पर सो रहे थे। हम बच्चे दादी के साथ नीचे कमरे में थे। आधी रात के करीब अचानक मेरी नींद टूटी। वो फिर मेरे पास आ गए थे। मैं डर से कांप रही थी। मैंने खुद को संभाला और अचानक उठकर लाइट जला दी। मैं चीख पड़ी। “देखो दादी, देखो ये क्या कर रहे हैं? अब यकीन हुआ आपको?” मेरी आवाज कमरे में गूंज रही थी। दादी उठी और देखा कि बाबा नीचे चटाई पर लेटे हैं। उन्होंने एक भी कपड़ा नहीं पहना था। अब सब कुछ सामने था। दादी उन पर खूब चीखीं-चिल्लाईं, खूब सुनाया उन्हें। बोलीं कि ये तुम्हारी पोती है, तुम इसके साथ गलत सोच भी कैसे सकते हो। मैं कोने में खड़ी रोए जा रही थी। बिना किसी आवाज के आंसू बहे जा रहे थे। दादी ने मुझे चुप कराया और अलग ले जाकर बोलीं- “चुप हो जा, अब ये सब नहीं होगा। इस बात को बाहर किसी से मत कहना। बहुत बदनामी होगी।” अब जाकर मुझे सुकून मिला था। मुझे लगा अब सब ठीक हो जाएगा। मैं सेफ हूं, लेकिन मैं गलत थी। दादी जब भी किसी काम से बाहर जातीं, वही मजबूरी, वही जबरदस्ती। मैंने बोलना बंद कर दिया। तय कर लिया कि अपनी सुरक्षा मुझे खुद करनी होगी। जिस रात दादी घर पर नहीं होतीं, मैं डर के मारे घर के अंदर नहीं रहती थी। छत पर जाकर सोने लगी। मुझे लगता था कि बाबा छत पर नहीं आएंगे, वहां मैं सेफ रहूंगी। कई बार सर्दियों की ठंडी रातों में भी मैं छत पर ही सोई। मन को समझाती रहती कि यहां कुछ गलत नहीं होगा। फिर भी डर मेरा पीछा वहां भी नहीं छोड़ता था। जब घर ही सेफ न रहे तो कहीं भी सेफ फील नहीं होता। उस उम्र में जब बच्चों को सपने देखने चाहिए, मैं दुआ करती थी कि जल्दी सुबह हो। मैंने खुद को बचाने के तरीके सोचने शुरू कर दिए। मैं ऐसे कपड़े पहनकर सोने लगी, जिनमें नाड़ा होता था। मुझे लगता था कि इन्हें खोलने में वक्त लगे, उतने में मैं उठकर खुद को बचा लूंगी। हर रात मैं डर के साथ सोती थी। सोने से पहले मन में यही चलता रहता था कि आज कुछ न हो जाए। ठीक से नींद भी नहीं आती थी। अगले छह महीने इसी तरह डर के साथ बीते। कभी खुद को बचा पाती, कभी नहीं भी…। मैंने स्कूल जाना बंद कर दिया। बाहर निकलना, किसी से बात करना, हंसना सब बंद हो गया। मैं जिस NGO के स्कूल में पढ़ती थी, वहां एक दीदी कभी-कभी आया करती थीं, उषा दीदी। वही मुझे स्कूल ले गई थीं। जब मैंने स्कूल जाना बंद कर दिया तो स्कूलवालों ने उषा दीदी को बताया। इसके बाद उषा दीदी मेरे घर आईं। उन्होंने दादी से पूछा कि मैं स्कूल क्यों नहीं जा रही हूं? पहले तो दादी ने उन्हें मुझसे मिलने नहीं दिया। इधर-उधर का बहाना बनाने लगीं, बोली- “उसका मन नहीं लगता पढ़ाई में… यहीं घर में रहेगी। कुछ काम-धाम सीखेगी।” काफी देर बहस करने के बाद दादी ने उषा दीदी को मुझसे मिलने दिया। उन्होंने प्यार से कहा- “तुम स्कूल क्यों नहीं जाती? किसी ने कह दिया क्या तुमसे…” वो काफी देर तक समझाती रहीं। मैं बहुत डरी हुई थी। उन्हें देखकर रोना भी आ रहा था। इससे पहले कि मैं कुछ कह पाती, दादी ने उषा दीदी से जाने के लिए कह दिया। मैं उन्हें कुछ बता नहीं पाई। उषा दीदी चली गईं, लेकिन उन्होंने मेरे अंदर का डर देख लिया था। मेरी बॉडी में हुए बदलाव भी उन्होंने नोटिस किए थे। 12-13 साल की उम्र में जिस तरह से शरीर बढ़ रहा था, वो नॉर्मल नहीं था। मैं उम्र से कहीं बड़ी दिखने लगी थी। कुछ दिन मेरे ऐसे ही बीते। फिर एक दिन मैं टीवी देख रही थी। चैनल बदलते-बदलते एक लोकल न्यूज चैनल पर मुझे उषा दीदी दिखीं। उस दिन मुझे पता चला कि उषा दीदी हम जैसी लड़कियों के लिए काम करती हैं। ‘रेड ब्रिगेड’ के नाम से उनका NGO है। उस दिन मुझे एक उम्मीद-सी दिखी। मैंने सोचा, उषा दीदी मेरी मदद करेंगी। किसी तरह उनसे बात करनी होगी, लेकिन मैं बाहर नहीं निकल सकती थी। उषा दीदी के आने के बाद से बाबा घर से बाहर जाते वक्त गेट में ताला लगा देते थे। एक दिन वो ताला लगाना भूल गए। दरवाजे के पड़ोस में खिड़की थी। मेरा हाथ खिड़की से सिटकनी तक आसानी से पहुंच जाता था। दोपहर में मैंने सिटकनी खोली और पड़ोस की एक दीदी के पास पहुंच गई। मैंने उनसे रोते हुए कहा- “मुझे उषा दीदी के पास ले चलो। मुझे उन्हें कुछ बहुत जरूरी बताना है।” पहले तो वह घबरा गईं। जब मैंने उन्हें पूरी बात बताई, तब वो और डर गईं। उन्होंने कहा- “मुझे इन सब में मत घसीटो” मैंने उनसे वादा किया कि मैं उनका नाम किसी को नहीं बताऊंगी। बस उषा दीदी से मेरी बात करवा दीजिए। उन्होंने मोबाइल से मेरी बात कराई। उषा दीदी को मैंने छह महीने का सारा सच बोल दिया। मैंने बताया कि मेरे साथ क्या हो रहा है, बाबा मेरे साथ क्या करते हैं? उन्होंने मेरी शादी भी तय कर दी थी। दरअसल, एक दिन मैंने उन्हें पुलिस की धमकी दी। बाबा को लग गया था कि अब मैं किसी से कह सकती हूं। इसके बाद उन्होंने मेरी शादी तय कर दी। 27 जून, 2016 को शादी होने वाली थी। बदले में शायद पैसे भी लिए थे। मैं उस समय 14 साल की भी नहीं हुई थी। ये सारी बातें मैंने उषा दीदी को बता दीं। उन्होंने भी साफ कहा- “सबसे पहले तुम्हें खुद आवाज उठानी होगी। तभी हम तुम्हारी मदद कर पाएंगे।” इस बातचीत के बाद मैंने घर से भागने की सोच ली। शादी से एक दिन पहले 26 जून को मैं किसी तरह घर से निकली और सीधे उषा दीदी के पास पहुंची। वो मुझे पुलिस की चाइल्ड-केयर सेल में लेकर गईं। मैंने वहां अपनी पूरी कहानी सुनाई। केस दर्ज हुआ, बाबा को जेल भेज दिया गया और मुझे शेल्टर होम। ये सब भी मेरे लिए बहुत कठिन था। मुझसे बार-बार वही सवाल पूछे जाते कब हुआ, कैसे हुआ, कहां हुआ। हर बार वही दर्द दोबारा जीना पड़ता था। इस दौरान उषा दीदी मुझसे मिलने आती रहती थीं। जब वो आतीं तो मुझे लगता कि अब मैं अकेली नहीं हूं। शेल्टर होम में जिंदगी फिर से शुरू करने की कोशिश हो रही थी। एक दिन शेल्टर होम में सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग रखी गई। उषा दीदी का ‘रेड ब्रिगेड’ ही ये ट्रेनिंग करा रहा था। मैं भी उसमें शामिल हुई। इसके बाद मुझे समझ आया कि सेल्फ डिफेंस खुद को बचाने का तरीका भर नहीं, ‘खुद पर भरोसा’ कायम करने का जरिया है। अपने अंदर से डर निकलते ही हम आधी लड़ाई जीत जाते हैं। कॉन्फिडेंस ही सबसे बड़ी सुरक्षा है। उसी दिन मैंने फैसला कर लिया कि अब मुझे ये अच्छे से सीखना है। डर अभी भी मेरे आसपास था, फिर भी कहीं एक नई जिद भी आकार ले रही थी। मैं अब खुद को कमजोर नहीं देखना चाहती थी। मैंने तय कर लिया कि मुझे ऐसा हुनर चाहिए, जो किसी और पर निर्भर न हो। एक ऐसा सहारा जो हर हाल में मेरे साथ खड़ा रहे। कुछ दिनों तक ये बातें मेरे अंदर ही घूमती रहीं। जब उषा दीदी मुझसे मिलने आईं तो मैंने उनसे कहा कि मुझे सेल्फ डिफेंस की प्रॉपर ट्रेनिंग लेनी है। उन्होंने कोई सवाल नहीं किया। बस शांत आवाज में कहा कि जब तुम 18 साल की हो जाओगी और सेंटर से बाहर निकलोगी, तब मैं तुम्हें पूरी ट्रेनिंग दिलवाऊंगी। उस पल उनकी बात मेरे लिए एक वादे से ज्यादा थी। वो मेरे भविष्य की एक उम्मीद थी, जिससे मैं हर दिन खुद को जोड़कर देखती रही। साल 2022 में जब मैं शेल्टर होम से बाहर निकली, तो उषा दीदी ने मेरा हाथ थाम लिया। उन्होंने अपना वादा निभाया। उसी दिन मैं रेड ब्रिगेड से जुड़ गई। ट्रेनिंग आसान नहीं थी। शरीर थकता था, हाथ दर्द करते थे, चोट लगती थी। मगर हर बार मेरा डर थोड़ा और कम होता गया। मैं खुद को बचाना सीख रही थी। सिर्फ वार करना नहीं, हालात को समझना, खतरे को पहचानना और सबसे जरूरी खुद पर भरोसा करना। वहां मैंने सिर्फ दांव-पेंच या वार-पलटवार नहीं सीखा, बल्कि खुद पर भरोसा करना सीखा। हर ट्रेनिंग सेशन के साथ मेरा डर थोड़ा और पीछे छूटता गया। जो यादें कभी मुझे जकड़ लेती थीं, अब वही मुझे आगे बढ़ने की ताकत देने लगीं। मैंने समझ लिया कि अतीत कमजोरी नहीं, बल्कि सबसे बड़ी ताकत बन सकता है। उषा दीदी, रेड ब्रिगेड और सेल्फ डिफेंस ने मुझे वह दिया, जिसकी मुझे सबसे ज्यादा जरूरत थी। ताकत, आवाज और रीढ़ सीधी करके खड़े होने का हौसला। जब मैं आज पीछे मुड़कर देखती हूं, तो साफ समझ आता है कि एक ही फैसले से जिंदगी की दिशा बदल सकती है। रेड ब्रिगेड से जुड़ना किसी नए जन्म जैसा था। धीरे-धीरे मैंने खुद सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग देनी शुरू कर दी। मेरी जिंदगी अब सिर्फ ट्रेनिंग तक सीमित नहीं। मैं रेड ब्रिगेड की एक नई पहल ‘बाल मंच’ की ट्रेजरर और को-ऑर्डिनेटर हूं। छोटे बच्चों को पढ़ाना मेरे लिए सेवा जैसा है। बच्चों के सवाल, उनकी हंसी मुझे याद दिलाती है कि भविष्य अभी भी मासूम और सुंदर हो सकता है। मैंने अपनी पढ़ाई भी जारी रखी है। मैं ग्रेजुएशन कर रही हूं। मैं अपने अतीत को नकारती नहीं हूं, लेकिन अब उसे अपने ऊपर हावी भी नहीं होने देती। मेरा सपना बहुत सीधा है। मैं चाहती हूं कि हर लड़की सुरक्षित महसूस करे, बिना डर के चल सके, बोल सके और जी सके। अगर मेरी कहानी, मेरी ट्रेनिंग या मेरा साथ किसी लड़की को मजबूत बना पाती है तो मेरी लड़ाई सफल है। मैं जानती हूं कि रास्ता लंबा है। फिर भी पूरी ताकत और ईमानदारी के साथ चलने के लिए तैयार हूं। *** स्टोरी एडिट- कृष्ण गोपाल ग्राफिक्स- सौरभ कुमार *** कहानी को रोचक बनाने के लिए क्रिएटिव लिबर्टी ली गई है। ———————————————————– सीरीज की ये स्टोरीज भी पढ़ें… पति ने प्राइवेट पार्ट पर एसिड डाला; दो दिन घर में ही पड़ी रही प्रेग्नेंट रेहाना, डॉक्टर रोज निकालते थे मांस के लोथड़े तीन भाई-बहनों में सबसे बड़ी। किताबों में सपने ढूंढने की उम्र में मेरे लिए रिश्ते ढूंढे़ जा रहे थे। घर में फिक्र का माहौल था। नाते-रिश्तेदार, दूर के जान-पहचान वाले हर जगह रिश्ता खोजा जा रहा था। किसी की नजर में “अब बड़ी हो गई है” वाली लड़की थी, तो कोई “अब देर मत करो” वाली फिक्र करता सुनाई देता। पूरी स्टोरी पढ़ें…


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