उच्चतम न्यायालय ने बृहस्पतिवार को कहा कि किसी आपराधिक मामले में आरोपी को दोषी ठहराने के लिए परिस्थितिजन्य साक्ष्य तभी उपयोग में लाए जा सकते हैं, जब वे केवल उसके दोषी होने की ओर ही संकेत करें।
न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने वर्ष 2004 के हत्या के एक मामले में आरोपी एक व्यक्ति की दोषसिद्धि और आजीवन कारावास की सजा को रद्द करते हुए, इस कानूनी सिद्धांत को दोहराया कि केवल अंतिम बार एक साथ देखे जाने का सिद्धांत उन मामलों में दोषसिद्धि को बरकरार रखने के लिए अपर्याप्त है जो पूरी तरह से परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित हैं।
पीठ की ओर से न्यायमूर्ति मिश्रा ने फैसला लिखते हुए कहा, ‘‘आपराधिक न्यायशास्त्र में यह एक सुव्यवस्थित सिद्धांत है कि किसी आरोपी को परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर तभी दोषी ठहराया जा सकता है, जब वे उसकी निर्दोषता से पूरी तरह असंगत हों और केवल उसके दोषी होने की ओर ही संकेत करें।’’
फैसले में कहा गया है कि जिस मामले में प्रत्यक्ष साक्ष्य का अभाव हो, उसमें आरोपी के खिलाफ इस्तेमाल की जा रही दोषसिद्ध करने वाली परिस्थितियां ऐसी होनी चाहिए, जो केवल अपराध की परिकल्पना की ओर ले जाएं और आरोपी की निर्दोषता की हर दूसरी संभावना को खारिज कर दें।
पीठ ने अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत साक्ष्यों की शृंखला में महत्वपूर्ण कमियां पाए जाने के बाद अपीलकर्ता मनोज उर्फ मुन्ना को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया।
यह मामला जून 2004 का है।
अभियोजन पक्ष का आरोप था कि मनोज ने वाहन चुराने और उसे बेचने के आरोप में पांच सह-आरोपियों के साथ मिलकर युवराज सिंह पटले नामक एक ट्रैक्टर चालक की हत्या की थी।
छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने 2011 में उसकी दोषसिद्धि बरकरार रखी थी।
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