आज पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि जिंदगी कब और कैसे करवट बदलती है, पता ही नहीं चलता। यूरोप, अमेरिका, साउथ-ईस्ट एशिया के बड़े-बड़े कॉर्पोरेट ऑफिसेज में काम करने वाला एक लड़का गाय चरा रहा है। नमस्कार, मैं असीम रावत, पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर था। अब मैं गाजियाबाद के सिकंदपुर में रहता हूं। मेरा बचपन और पढ़ाई-लिखाई लखनऊ में हुई। सेंट पॉल्स स्कूल और लॉ मार्टिनियर कॉलेज से 12वीं तक पढ़ा। फिर आगरा में आरबीएस कॉलेज से इंजीनियरिंग की और IIIT हैदराबाद से पोस्ट ग्रेजुएशन किया। 2001 में मेरी पहली नौकरी कोलकाता में लगी। इसके बाद बेंगलुरु, पुणे, हैदराबाद जैसे शहरों में काम करता रहा। करीब 14 साल सॉफ्टवेयर इंजीनियर के तौर पर अलग-अलग कंपनियों में काम किया। इस दौरान यूरोप, अमेरिका और साउथ ईस्ट एशिया के कई शहरों में रहा। नई टेक्नोलॉजी, नए लोग और ग्लोबल एक्सपोजर मिला। सब बढ़िया था। अच्छी जॉब, अच्छा पैकेज और मैं अपने काम से बहुत खुश था। ऐसा कुछ नहीं था, जिसकी शिकायत करूं। लेकिन, जिंदगी कभी-कभी एक छोटी-सी बात से करवट बदल लेती है। 2015 की बात है, अगस्त या सितंबर का महीना था। ऑफिस से लौटकर टीवी डिबेट देखना मेरा रूटीन था। उन दिनों OTT इतना पॉपुलर नहीं था। इसलिए यही मेरा टाइमपास भी था और दिमाग को एक्टिव रखने का तरीका भी। उस दिन देसी नस्ल की गाय और डेयरी बिजनेस पर डिबेट हो रही थी। बातों में कुछ नया नहीं लग रहा था, लेकिन तभी एक सवाल आया। “क्या देसी नस्ल की गायों से सक्सेसफुल डेयरी बिजनेस किया जा सकता है?” जवाब दे रहे एक एक्सपर्ट ने पहले तो हां कहा, फिर हल्की मुस्कान के साथ जोड़ दिया- “लेकिन आज के दौर में बहुत ज्यादा सक्सेसफुल नहीं होती।” फिर उन्होंने वो बात कही, जिसने मेरे अंदर एक टीस पैदा कर दी। वो बोले- “देसी गाय दूध कम देती हैं। वो पूजा-पाठ के लिए ही ठीक है, बिजनेस के लिए नहीं।” पता नहीं क्यों, वो हंसी मुझे चुभ गई। मुझे वो सिर्फ एक कमेंट नहीं लगा। मुझे लगा, ये एक सोच है- ऐसी सोच, जिसने देसी गाय को सिर्फ आस्था और भावना तक सीमित कर दिया है। पहली बार मुझे एहसास हुआ कि हमने देसी गाय की असली ताकत को जानने-समझने की कोशिश ही नहीं की। मेरे मन में एक सवाल साफतौर पर उठ चुका था। “अगर ये सोच गलत है, तो इसे गलत साबित कौन करेगा?” उस वक्त मैं पुणे जैसे महानगर में अच्छी जॉब कर रहा था। सब कुछ ठीक-ठाक था, सेटल था। लेकिन, मेरी जड़ें अब भी कहीं न कहीं गांव से जुड़ी थीं। गाय के लिए हमेशा से लगाव था। अखबारों में घायल पड़ी गायों की तस्वीरें, कटने की खबरें मुझे बहुत टीस पहुंचाती थीं। लेकिन, उस टीवी डिबेट ने जैसे भीतर कहीं बुझ चुकी आग को फिर से कुरेद दिया था। उसके बाद करीब एक हफ्ते तक मैं रोज ऑफिस जाता रहा। मीटिंग्स में बैठा, प्रेजेंटेशन दीं, लेकिन मन कहीं और अटका रहता था। जो काम कभी मुझे सुकून देता था, वही अब बोझ लगने लगा था। अंदर एक टीस थी, जो हर दिन और गहरी होती जा रही थी। मुझे समझ आ रहा था कि ये बेचैनी यूं ही खत्म होने वाली नहीं है। मैंने कुछ दिन की छुट्टी लेने का फैसला किया। कोई प्लान नहीं था। बस एक जिज्ञासा थी और एक बेचैनी, जो मुझे चैन से बैठने नहीं दे रही थी। मैं जानता था, मेरे सवालों के जवाब पुणे में बैठकर नहीं मिलेंगे। इसके लिए मुझे गांव जाना होगा। मैं यूपी, राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, हरियाणा के कई अलग-अलग हिस्सों और गांवों में गया। किसानों के साथ घंटों बातें कीं, बुजुर्गों का अनुभव सुना। करीब 1 महीने देसी नस्ल की गायों को देखा। उनके रखरखाव को समझकर, उनके साथ जुड़ी पूरी लाइफस्टाइल को महसूस किया। जितना देखा, मेरी सोच उतनी ही खुलती गई। उन्हीं गांवों में मुझे पहली बार साफतौर पर समझ आया कि देसी गाय सिर्फ दूध देने वाला पशु नहीं। उसका पंचगव्य यानी गोमूत्र, गोबर, दूध, दही और घी अपने आप में एक पूरी अर्थव्यवस्था है। ये सिर्फ आस्था नहीं, बल्कि अनुभव, विज्ञान और सस्टेनेबल डेवलपमेंट का ऐसा मॉडल है, जिसे हम नजरअंदाज कर रहे हैं। इसी सफर में मैंने पक्का कर लिया कि मैं देसी गाय के पंचगव्य पर बेस्ड काम शुरू करूंगा। साथ ही ये साबित करूंगा कि देसी गाय सिर्फ से एक मुनाफे वाला बिजनेस खड़ा किया जा सकता है। लेकिन ये फैसला मेरे लिए जितना साफ था, उतना ही मुश्किल इसे जिंदगी में उतारना था। इसके लिए नौकरी छोड़ने का साहस चाहिए था। मुझे पता था कि बिना पूरी समझ और रिसर्च के इस रास्ते पर उतरना सही नहीं होगा। हालांकि, सबसे बड़ी चुनौती बिजनेस प्लान नहीं था, बल्कि घरवालों को मनाना था। ये समझाना था कि मैं कोई सनक में नहीं, बल्कि सोच-समझकर गोशाला और पंचगव्य का काम शुरू करना चाहता हूं। जब मैंने पहली बार ये बात अपने माता-पिता को बताई, तो वे एक पल के लिए सन्न रह गए। उन्हें लगा कि मैं क्या बोल रहा हूं। मेरे पापा हमेशा यही चाहते थे कि मैं बड़े शहर में रहूं। अच्छा करियर बनाऊं या फिर विदेश जाकर बस जाऊं। जब उन्होंने सुना कि मैं नौकरी छोड़कर गोशाला खोलना चाहता हूं, तो उन्हें ये बात बिल्कुल समझ नहीं आई। उनके सवाल वाजिब थे। मेरी शादी हो चुकी थी, दो बच्चे थे, वेल सेटेल्ड था। खर्च बढ़ने वाले थे, जिम्मेदारियां सामने थीं। मुझसे बार-बार कहा गया- “तुम ये सब सोच भी कैसे सकते हो, पागल तो नहीं हो गए?“ मैंने सबको शांति से समझाने की कोशिश की। कहा- गाजियाबाद में हमारी पुश्तैनी जमीन पड़ी है। मैं कोई बड़ा जोखिम नहीं लेना चाहता। बस वहीं, छोटी-सी जगह में कुछ देसी गाय बांधकर शुरुआत करना चाहता हूं। इसमें बहुत ज्यादा खर्च नहीं लगेगा। ये कोई छलांग नहीं, बल्कि सोच-समझकर उठाया गया कदम है। धीरे-धीरे घरवालों को समझ आने लगा कि मैं ये फैसला यूं ही नहीं ले रहा हूं। या शायद उन्हें दिखने लगा था कि मैं अब रुकने वाला नहीं। आखिरकार मैंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया और अपना पूरा समय गायों और देसी नस्लों को समझने में लगाया। पढ़ना शुरू किया, उनके व्यवहार, रखरखाव और पंचगव्य से जुड़े हर पहलू पर रिसर्च करने लगा। धीरे-धीरे ये साफ होने लगा कि आइडिया को जमीन पर कैसे उतारा जा सकता है। कुछ समय बाद मैं पुणे से गाजियाबाद लौट आया। अपनी पुश्तैनी जमीन पर सबसे पहले दो देसी गायें बांधीं। कोई बड़ी गौशाला नहीं थी, कोई बोर्ड नहीं था। बस छोटा-सा भरोसा था कि यहीं से कुछ नया शुरू होगा। अगर आज कोई मुझे देखकर कहे कि ये सब बहुत सोच-समझकर, पूरी प्लानिंग के साथ हुआ होगा, तो मैं बस हल्की-सी मुस्कान के साथ सिर हिला देता हूं। क्योंकि सच ये है कि मेरी शुरुआत जितनी साधारण थी, उतने ही डर और अनसर्टिनिटी से भरी थी। पहले ही दिन जो हुआ, उससे ही हिम्मत टूट सकती थी। मैं दो गायें खरीदकर फॉर्म ले जा रहा था। रात हो गई थी, रास्ते में एक गाय लोडर के अंदर अचानक बेहोश होकर गिर पड़ी। मेरी सांस जैसे अटक गई। लगा क्या ये कोई इशारा है- “क्या इतनी जल्दी सब कुछ गलत होने वाला है? क्या मैंने कोई बहुत बड़ी गलती कर दी है?” गांव में चारों तरफ सन्नाटा, समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं। हम उसे जानवरों के डॉक्टर के पास ले गए। घड़ी देखी तो रात के करीब 2 बज चुके थे। हम क्लिनिक पहुंचे, तो डॉक्टर खुद चौंक गया। खैर इलाज शुरू हुआ। इंजेक्शन लगे, दवाइयां दी गईं। मैं पास खड़ा, सब देखता रहा। हर मिनट भारी लग रहा था। भगवान से बस यही मना रहा था कि गाय ठीक हो जाए। कुछ देर बाद गाय ने हल्की-सी हरकत हुई, वो ठीक हो रही थी। उस रात मुझे समझ आया कि ये रास्ता आसान नहीं होने वाला है। लेकिन ये भरोसा भी पैदा हुआ कि नीयत सही है, तो हर मुश्किल का रास्ता निकल ही आता है। गाय लाने के बाद अब असली चुनौती सामने आने वाली थी। गाय की देखभाल के लिए एक आदमी रखा। सुबह-शाम दूध निकालना, साफ-सफाई रखना धीरे-धीरे एक रूटीन में ढलने लगा। मैं खुद दूध लेकर आसपास के इलाकों में निकलता। घर-घर जाता, लोगों से बात करता, उन्हें देसी गाय के दूध के फायदे समझाता। बताता कि ये दूध कैसे अलग है, कैसे सेहत के लिए बेहतर है। लोग मेरी बात ध्यान से सुनते जरूर थे, पर खरीदने पर बात आकर अटक जाती थी। उनका सवाल सीधा होता था- “भाई साब, दूधिया 25-30 रुपए में घर तक दूध पहुंचा जाता है, आप 70 रुपए में क्यों बेच रहे हैं?” उनकी बात गलत नहीं थी। कई बार ऐसा हुआ कि पूरा का पूरा दूध लेकर वापस लौटना पड़ा। तब समझ आया कि सिर्फ प्रोडक्ट अच्छा होना काफी नहीं, भरोसा जीतना पड़ता है और यह एक दिन में नहीं जीता जा सकता। मैंने तय किया, कुछ समय तक मुनाफे के बारे में नहीं सोचूंगा। पहले लोगों का भरोसा जीतूंगा। हमने दूध से दही और घी बनाना शुरू किया। लोगों से कहा कि वे चखकर देखें, फर्क खुद महसूस करें। कहीं फ्री में दिया, कहीं लागत पर। धीरे-धीरे लोग लौटकर आए। लोगों को समझ में आया कि दही का स्वाद अलग है। किसी ने कहा- “घी की खुशबू बचपन की याद दिला रही है।” ये छोटी-छोटी बातें मेरे लिए बहुत बड़ी थीं। मुझे समझ आ गया था कि रास्ता सही है, बस रफ्तार धीमी है। धीरे-धीरे पंचगव्य से प्रोडक्ट्स बनाने शुरू किए। हमारा काम सिर्फ प्रोडक्शन नहीं, बल्कि रिसर्च से जुड़ा है। हम आयुर्वेदिक और पंचगव्य दवाएं बनाते हैं। हर दवा में देसी गाय से जुड़ा कोई न कोई तत्व जरूर होता है। चाहे गोमूत्र हो, गोबर हो, दूध या घी। गोमूत्र के नाम पर लोग हंसते हैं, लेकिन सच्चाई ये है कि गोमूत्र पर कई अमेरिकी पेटेंट मौजूद हैं। इसे बायो-एन्हांसर, एंटी-कैंसर, एंटी-फंगल और एंटी-बैक्टीरियल एजेंट के तौर पर मान्यता मिली हुई है। समय बीतने के साथ-साथ जब पंचगव्य का काम धीरे-धीरे पटरी पर आने लगा, तो देसी गायों की संख्या भी बढ़ने लगी। दो गायों से शुरू हुआ ये सफर अब सिर्फ प्रयोग नहीं रहा था, बल्कि जिम्मेदारी बन चुका था। साथ ही ये एहसास और गहरा होता गया कि ये काम सिर्फ कारोबार नहीं, बल्कि परंपरा और विरासत को आगे बढ़ाने का जरिया है। इसी सोच के बीच एक सवाल मेरे मन में बार-बार आता था- इस पहल को नाम क्या दूं? मैं चाहता था कि इसका नाम ऐसा हो, जो आज ही नहीं अतीत और भविष्य दोनों को जोड़ दे। मुझे अपनी पांचवीं पीढ़ी के पूर्वज का नाम याद आया- ‘हेतराम’। उन्हीं के नाम पर डेयरी फॉर्म का नाम ‘हेता ऑर्गेनिक’ रखा। ‘हेता’ सिर्फ एक ब्रांड नहीं, बल्कि विरासत को आगे बढ़ाने की कोशिश है। आज हमारे पास साहीवाल, गिर, थारपारकर, हरियाणा, बद्री जैसी देसी नस्लों की 1 हजार से ज्यादा गाय और सांड हैं। मॉडर्न मिल्किंग फैसिलिटी है, ताकि गायों को किसी तरह की तकलीफ न हो। उम्रदराज और असहाय गाय, बैल, सांडों के लिए हॉस्पिटल है। ये सब देखकर कभी-कभी खुद यकीन नहीं होता कि दो गाय से शुरू हुआ सफर आज पूरा इकोसिस्टम बन चुका है। आज ‘हेता’ का टर्नओवर 10 करोड़ रुपए से ज्यादा है और 80 से ज्यादा लोग इस सफर का हिस्सा हैं। इनमें सिर्फ कर्मचारी नहीं, डॉक्टर, इंजीनियर और रिसर्च एक्सपर्ट भी शामिल हैं। ये लगातार देसी गाय और पंचगव्य से जुड़े इनोवेशन पर काम कर रहे हैं। जब हमने ये काम शुरू किया था, तब किसी पहचान की चाह नहीं थी। पूरा ध्यान बस इस पर था कि जो कर रहे, वो सही हो। लेकिन जब काम ईमानदारी से किया जाता है, तो पहचान खुद चलकर आती है। एक दिन तमिलनाडु से एक टीम हमारे फॉर्म आई। बिना किसी फोन या इन्फॉर्मेशन के, उन्होंने कहा कि वे हमारे काम को करीब से देखना चाहते हैं। कई दिन तक उन्होंने हर चीज को बहुत बारीकी से परखा। रिसर्च और हमारे काम का तरीका देखा। हम नहीं जानते थे कि ये इंस्पेक्शन किस दिशा में जाएगा? हमने वही दिखाया, जो हम रोज करते हैं। कुछ दिनों बाद खबर मिली, हमें राष्ट्रीय गोपाल रत्न पुरस्कार 2018 के लिए चुना गया है। ये डेयरी क्षेत्र का सबसे बड़ा अवॉर्ड माना जाता है। उस पल मुझे लगा कि हमारे काम को सिर्फ देखा ही नहीं, समझा भी गया है। इसके बाद 2019 में मथुरा में ऐसा सीन देखने को मिला, जिसे मैं कभी नहीं भूल सकता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ‘हेता’ की गाय का गौ-पूजन किया। उस पल मुझे लगा, शायद हमारी मेहनत सही दिशा में जा रही है। इसके बाद भी अवॉर्ड मिले। 2022 में स्टार्टअप ऑफ द ईयर से नवाजा गया। उत्तराखंड की बदरी नस्ल पर हमारे काम के लिए हमें ‘उत्तराखंड शक्ति अवॉर्ड’ मिला। देसी नस्लों की पहचान, टैगिंग और जेनेटिक रिकॉर्डिंग करने वाली संस्था नेशनल ब्यूरो ऑफ एनिमल जेनेटिक रिसोर्सेज (NBAGR) से एप्रिसिएशन लेटर मिला। ये पुरस्कार हमारी मंजिल नहीं हैं, बल्कि इस बात की गवाही हैं कि देसी गाय और पंचगव्य पर किया गया काम सिर्फ इमोशनल नहीं, साइंटिफिक और नेशनल इंट्रेस्ट का है। आज ज्यादातर डेयरी फॉर्म दूध और मांस के इर्द-गिर्द घूमते हैं। लेकिन हमने तय किया कि हमारी गौशाला में आई हर गाय और सांड, आखिरी सांस तक हमारी जिम्मेदारी रहेंगे। वे प्रोडक्शन का साधन नहीं, जीवित प्राणी हैं। इस विजन को जमीन पर टिकाए रखने के लिए सिर्फ भावना काफी नहीं थी। इसके लिए एक ऐसा सिस्टम चाहिए था, जो आर्थिक रूप से भी मजबूत हो। तभी हमने देसी गाय पर आधारित तीन वर्टिकल्स खड़े किए। पहला: डेयरी प्रोडक्ट देसी गाय के दूध के अलावा घी, खोया, मठा (छाछ), मक्खन ट्रेडिशनल मैथल से तैयार करते हैं। बिलौना विधि से बने घी की खुशबू और स्वाद लोगों को उनके बचपन की याद दिला देता है। दूसरा: आयुर्वेद और पंचगव्य मेडिसिन हमारे आयुर्वेदिक प्रोडक्ट्स और दवाओं में देसी गाय से जुड़ा कोई न कोई तत्व जरूर होता है। हेता च्यवनप्राश इसी सोच का उदाहरण है। ये 55 से ज्यादा जड़ी-बूटियों से तैयार किया जाता है। इसके लिए हिमालयन रीजन में मिलने वाली बद्री नस्ल की गाय का घी इस्तेमाल किया जाता है। तीसरा: ऑर्गेनिक फार्मिंग देसी गाय पूरी फॉर्मिंग सिस्टम की रीढ़ है। ये मिट्टी को भी जिंदा रखती है और इंसान को भी। हमारा तीसरा मजबूत स्तंभ है, ऑर्गेनिक खेती। हमारे सर्टिफाइड ऑर्गेनिक फॉर्म्स में गोबर और गोमूत्र की खाद इस्तेमाल होती है। कोई केमिकल या शॉर्टकट नहीं। आज पीछे मुड़कर देखता हूं, तो समझ आता है कि हेता तीन वर्टिकल्स वाला बिजनेस नहीं। ये ऐसा मॉडल है जहां एथिक्स, साइंस, परंपरा और मुनाफा चारों एक साथ चलते हैं। शायद यही वजह है कि हम कह पाते हैं, “हमारी सबसे बड़ी पूंजी हमारी गाय हैं और हमारी सबसे बड़ी पहचान, उनके प्रति हमारी जिम्मेदारी।” *** स्टोरी एडिट- कृष्ण गोपाल ग्राफिक्स- सौरभ कुमार *** कहानी को रोचक बनाने के लिए क्रिएटिव लिबर्टी ली गई है। ———————————————————– सीरीज की ये स्टोरी भी पढ़ें… दिल्ली 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