आज से हम शुरू कर रहे हैं एक नई सीरीज ‘जिंदगी के मोड़ पे’। इसमें आप पढ़ेंगे और देखेंगे आम लोगों की सच्ची कहानियां, जिन्हें जिंदगी ने ऐसे दोराहे पर लाकर खड़ा कर दिया जहां से वापसी का रास्ता नहीं था। कभी एक फैसला, कभी एक हादसा, कभी एक रिश्ता तो कभी एक छोटी-सी चूक ने पूरी जिंदगी की दिशा और दशा बदल दी। यहीं से आया जिंदगी में मोड़… शादी के बाद लड़कियों कि जिंदगी बदल ही जाती है। यही वजह है, हम लड़कियों को बचपन से ही ‘एडजस्ट’ करने की ट्रेनिंग दी जाती है। नमस्ते… मैं कोमल, दिल्ली के मदनगीर में जन्मी, शहरी चमक-दमक में पली, लेकिन शादी ने जैसे पूरी दुनिया ही बदल दी। 10वीं के बाद भी मैं पढ़ना चाहती थी, लेकिन परिवार के हालातों की वजह से शादी हो गई। बड़े शहर से सीधे गांव में आ गई। यूपी में गाजियाबाद के निठौरा गांव में मेरी ससुराल है। शादी की पहली रात सब कुछ नॉर्मल था। नए रिश्तों की खुशियों और उत्साह में कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला। अगले दिन मैं जल्दी उठ गई। सुबह की हल्की रोशनी कमरे में फैल रही थी। चुपचाप उठी और बाहर आकर सास के पास गई। मैं बोली- “मम्मी जी, टॉयलेट कहां है?” मेरी बात सुनकर उन्होंने अजीब सा मुंह बनाया। ऐसा लगा जैसे मैंने कोई बेतुकी सी बात पूछी हो। थोड़ी देर चुप रहीं, फिर बोलीं- “टालेट… ये सब कहां होवे है गांवन में। बाहर ही जावें हैं सब खुल्ले में…।” ये बात सुनकर मुझे जोरदार झटका लगा। समझ नहीं आ रहा था, कैसे रिएक्ट करूं। सास की बात पर हंसूं या रोऊं। थोड़ी देर तक तो कुछ बोल ही नहीं पाई। फिर धीरे से पूछा- “मतलब… घर में नहीं है?” सास ने कहा- “हमारे जहां तो कभी जरूरत ही ना पड़ी। सब औरतें साथ चली जावे हैं सुबेरे-सुबेरे।” “पर मम्मी जी, मैं तो कभी खुले में गई ही नहीं…” इतने में मेरे पति बादल जी आ गए। मैंने उनकी तरफ देखकर पूछा- “घर में टॉयलेट नहीं है?”
वो बोले- “गांव में चलता है ऐसा।” मेरी आवाज कांप गई। वे बोले- “सब औरतें जाती हैं, तुम भी चली जाना।” मेरी आंखें भर आईं। मन में कई सवाल उमड़ रहे थे। मैंने खुद से कहा- “ये वही शादी है जिसके मैंने सपने देखे थे?” मैं अब भी अपनी सास की तरफ हैरानी से देख रही थी। वे कड़ी आवाज में बोलीं- “जे दिल्ली ना हय, जहां तो खुल्ले में ही जाने पड़ेगो। आदत डाल्ले जा की।” वो सुबह मुझे आज भी याद है। मैंने खुद से कहा- “ये सिर्फ जगह नहीं बदली है, मेरी पूरी दुनिया बदल गई है।” सास ने फिर कहा- “जल्दी चल, देर हो रही है। औरतें निकरन वाली होंगी।” मैं खुद को समझाती हुई, सांस रोकती हुई, घर की महिलाओं के साथ खुले में जाने के लिए चल दी। हाथ में स्टील का एक लोटा था। वो लोटा उस समय किसी बोझे से कम नहीं लग रहा था। शरीर आगे बढ़ रही था, लेकिन मन में तूफान उठ रहा था। हर कदम पर यही सवाल- ‘क्या सचमुच यही मेरी नई जिंदगी है?’ कुछ ही देर में हम गांव के बाहर एक खेत के किनारे पहुंचे। बहुत सी औरतें अलग-अलग कोनों में बैठी थीं। कोई परदे के लिए दुपट्टा पकड़े थी, कोई इधर-उधर देख रही थी, कोई जल्दी-जल्दी उठकर कपड़े ठीक कर रही थी। मेरा दिल धक से हो गया। ये मेरे लिए सदमे जैसा था। अपनी सबसे निजी जरूरत के लिए इस तरह खुले में बैठना बहुत शर्मिंदगी भरा था। उस दिन ऐसा लग रहा था, जैसे हर कोई मेरी तरफ ही देख रहा था। पूरे टाइम डर, घबराहट और बेइज्जती का एहसास होता रहा। आंखें नम थीं, लेकिन मैंने किसी को दिखने नहीं दिया। उस सुबह ने मुझे सिखाया- जब-तक कोई खुद दर्द न झेल ले, उसकी गंभीरता समझ नहीं आती। घर लौटकर मैंने अपने पति को बताया कि सुबह खुले में जाना मेरे लिए कितना मुश्किल था। वो बहुत हैरानी से बोले- “इसमें नई बात क्या है? यहां तो हमेशा से ऐसा ही चलता आया है।” उनके जवाब ने मुझे और तोड़ दिया। रोज मेरी सुबह इसी तरह बीत रही थी। इसकी आदत पड़ने के बजाय मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। एक ओर सरकार हर घर फ्री में टॉयलेट बना रही थी, वहीं मेरे ससुरालवाले इसके लिए राजी ही नहीं थे। हर सुबह वही डर, वही शर्म, वही समझौता… और एक ही बात कि ये सब सही नहीं है। मैं काफी गुमसुम रहती थी। साथ जाने वाली औरतों और लड़कियों से बातचीत नहीं करती थी। शुरुआत में सबको लगा, नई शादी की वजह से शर्मा रही होगी, लेकिन बात तो कुछ और ही थी। एक दिन पड़ोस की मंजू ने बातचीत न करने की वजह पूछी। उसकी भी कुछ महीने पहले ही शादी हुई थी। मुझे लगा शायद वो समझेगी, लेकिन पूरे गांव-मोहल्ले में मेरी हंसी उड़ाई जाने लगी। लोग कहते- “शहर की लड़की है, नखरे तो करेगी ही।” बुजुर्ग औरतें कहतीं- “बादल की बहू दिल्ली से आई है… घर में चौक-चूल्हे की जगह लैट्रीन बनवाना चाहती है।” पूरे गांव और घरवालों का मेरे लिए नजरिया बदलने लगा। बेइज्जती और दुत्कार ऐसी, जैसे मैं किसी गलत काम के लिए कह रही हूं। सबसे ज्यादा दुख तब हुआ, जब पड़ोस में लोगों ने अपनी बहू-बेटियों को मुझसे बात करने से रोक दिया। वे कहतीं- “बादल की बहू बड़ी ‘मारडन है… इससे बात करोगी तो बिगड़ जाओगी।” मैं अकेली पड़ती जा रही थी, लेकिन यकीन था कि मैं जो सोच रही हूं, वो गलत नहीं। शादी को करीब एक महीना हो चुका था। एक दिन दोपहर में पेट में मरोड़ उठने लगे। बाहर जाना मजबूरी थी, लेकिन ‘इस’ काम के लिए दिन में बाहर जाना गलत माना जाता है। औरत को दिन में शौच के लिए जाता देखकर लोग मजाक उड़ाते हैं, छेड़खानी भी कर देते हैं। उस दिन सास भी घर पर नहीं थीं। हिम्मत करके मैंने उनसे कहा। मुझे बहुत तकलीफ हो रही थी। एक-एक पल भारी हो रहा था। उस दिन शायद पहली बार उन्होंने मेरी आंखों में घुटन देखी। मेरे पति साथ चल पड़े। जब हम दोनों जा रहे थे तो कई गांववालों ने हमें देखा। किसी ने हंसकर अपने साथी को कोहनी मारी, किसी ने ताना मारा। हम लोग सब सुन रहे थे। उनके चेहरे पर परेशानी साफ दिख रही थी। पति को पहली बार महसूस हुआ कि औरतों के लिए खुले में जाना कैसा होता है? घर लौटकर उन्होंने बहुत शांत आवाज में कहा- “कोमल, तुम सही हो। घर में टॉयलेट होना ही चाहिए।” एक महिला को पूरी दुनिया की जरूरत नहीं होती। बस उसका जीवनसाथी उसके दर्द को समझ ले यही काफी होता है। उन्होंने मेरे लिए अपने मम्मी-पापा को समझाना शुरू किया। पहले सब लोग नाराज हुए, लेकिन मेरे पति डटे रहे। कुछ दिन बाद घरवाले इसके लिए मान गए। ससुरालवाले तो टॉयलेट बनाने के लिए राजी हो चुके थे, लेकिन असली चुनौती बाकी थी। पूरे गांव को समझाना कि घर में टॉयलेट होना कोई बुरी बात नहीं। गांव की सोच हमेशा से यही रही थी कि शौच तो बाहर ही होता है। जो कोई इसके खिलाफ जाता, उसे अजीब नजर से देखा जाता। हमने तय किया कि ग्राम प्रधान चाहतराम जी की मदद ली जाए। मैं खुद हिम्मत जुटाकर प्रधान जी के घर गई। ये कदम मेरे लिए बहुत बड़ा था। गांव में औरतों का किसी आदमी खासकर प्रधान जी से सीधे बात करना ‘गलत’ माना जाता है। मेरे लिए ये सब मायने नहीं रखता था। वैसे भी मैं ये सब सुनने की आदी हो चुकी थी। मुझे बस मेरे घर में एक टॉयलेट चाहिए था। मैंने प्रधान जी से कहा- “मुझे एक शौचालय चाहिए। मेरे घर में इसकी सख्त जरूरत है।” उन्हें भी थोड़ा अटपटा लगा। गांव में बाकियों की तरह उन्हें भी उम्मीद नहीं थी कि नई बहू खुलेआम ऐसी मांग करेगी। मैं रोज जाती थी। कभी समझाती, कभी विनती करती, कभी बताती कि खुले में जाने से हमें कैसा लगता है। धीरे-धीरे उनका मन बदला। एक दिन उन्होंने कहा- “अगर तुम्हारे घरवालों को दिक्कत नहीं है, तो ठीक है… फॉर्म भर दो।” ये मेरे लिए किसी लड़ाई में जीत जैसा था। मैं शौचालय का पहला फॉर्म लेकर घर लौटी, लेकिन मुझे नहीं पता था कि गांव में तूफान खड़ा हो जाएगा। ये खबर गांव में आग की तरह फैल गई। शाम होते-होते गांववाले डांटने-फटकारने के लिए हमारे घर आ पहुंचे। एक आदमी ने तमतमाते हुए कहा- “जिस जगह खाना बनाते हो, वहीं हगो गे… तुम्हें शर्म नहीं आती?” दूसरा बोला- “हमारे गांव की हवा खराब मत करो। शहर की आदतें इतनी ही पसंद हैं, तो वापस वहीं चली जाओ।” औरतें कह रही थीं- “बहू, गांव की बहुएं ऐसे काम नहीं करती… घर में लैट्रीन बनवाना पाप है।” घरवालों ने समझा-बुझाकर गांववालों को हटाया। मैं डर गई थी। मेरी आंखें नम थीं। पति ने धीरे से मेरा हाथ पकड़कर कहा- “कोमल, तुम गलत नहीं हो। आज जो हुआ, उससे डरना मत। हम तुम्हारे साथ हैं, किसी की परवाह मत करना।” सास भी बोलीं- “बेटी, गांववाले जो बोलते हैं बोलन दे… तू जो कर रही है, सही है।” ये शब्द मेरे लिए ढाल जैसे थे। मैंने पहली बार महसूस किया कि बाहर लाख लोग खड़े हों, लेकिन घरवाले साथ हों, तो कोई भी रास्ता मुश्किल नहीं होता। कुछ दिनों में मेरा शौचालय वाला फॉर्म पास हो गया। एक सुबह घर के आंगन में ईंटें, बालू और सीमेंट के बोरे रखे देखे। वो आम दिन नहीं था। उस दिन पहली बार लगा कि अब बदलाव की सोच जमीन पर भी उतरने वाली है। ईंटें लगने लगीं, धीरे-धीरे ढांचा तैयार हो गया। गांववालों की बातें अभी भी जारी थीं। लोग ताना मारते- “लो जी, घर के अंदर हगने की तैयारी हो रही है।” कोई कहता- “बहू के सिर चढ़ा रखा है… देखना, पूरा घर बिगड़ जाएगा।” मैंने तय कर लिया था कि अब पीछे नहीं हटना। टॉयलेट बनकर तैयार हुआ। बरसात का मौसम शुरू हो चुका था। गांव के रास्ते फिसलन भरे हो गए थे। खुले में जाना बहुत मुश्किल हो गया। पहले तो घरवाले हिचकिचाए, लेकिन एक दिन तेज बारिश की वजह से बाहर नामुमकिन था। मेरी सास बोलीं- “आज मैं भी यहीं जाऊंगी… बाहर जाना मुश्किल है।” धीरे-धीरे घर के बाकी लोगों ने भी झिझक छोड़ दी। घर में टॉयलेट बन जाना मेरे लिए छोटी बात नहीं थी। मेरे खोए हुए सम्मान की पहली वापसी थी। अब मैंने ठान लिया था कि इस लड़ाई को यहां खत्म नहीं करना है। पूरे गांव को समझाना कि घर में ‘लैट्रीन’ होना पाप नहीं, जरूरत है। मेरे ससुरालवाले भी मेरे साथ थे। उन्होंने महसूस किया था कि टॉयलेट होने का मतलब सुविधा नहीं, महिला की सुरक्षा और सेहत भी है। हमने तय किया प्रधान जी से बात करेंगे। सरकार का ‘स्वच्छ भारत मिशन’ चल रहा था, लेकिन गांववाले तब तक कदम नहीं बढ़ाते, जब तक कोई उन्हें समझाए नहीं। औरतों को मनाना सबसे कठिन था। उनकी पूरी जिंदगी एक तय ढर्रे पर चल रही थी- सुबह अंधेरे में निकलना, लोटा लेकर दूर तक जाना, किसी झाड़ी या खेत के किनारे बैठकर जल्दी-जल्दी निपटना। उनके लिए ये असुविधा नहीं, ‘रूटीन’ था। मैं और मेरी सास जब भी मोहल्ले की औरतों के साथ बैठतीं- हम धीरे से शौचालय की बात छेड़ देते। कभी सास कहतीं- “बरसात में बाहर जाना मुस्किल होता था, लेकिन अब बहुत आराम है।” कभी मैं समझाती- “बच्चियां बड़ी हो रही हैं। उनके लिए खुले में जाना सेफ नहीं।” धीरे-धीरे उन औरतों के माथे पर चिंता की लकीरें दिखाई देने लगीं। वे एक-दूसरे की ओर देखकर कहतीं- “हां, बरसात में सचमुच बहुत दिक्कत होती है…” “कई बार आदमी खेत से भगा भी देता है…”
“लड़की बड़ी हो जाए तो डर लगता है…” उन्हें महसूस हो रहा था कि बाहर न जाना ही बेहतर है। उसी एहसास ने हमें आगे बढ़ने की ताकत दी। उनके घरवालों को समझाकर टॉयलेट बनवाए। फिर औरतों को जोड़कर एक छोटी सी टीम बनाई। हम हर घर जाते, बैठकर समझाते। कुछ महिलाएं तुरंत मुंह फेर लेतीं- “हम पैदा हुए तब से ऐसे ही कर रहे… अब का फर्क पड़ेगा?” लेकिन मैं जानती थी कि बातें धीरे-धीरे असर करती हैं। और वही हुआ झिझक पिघलने लगी, और उम्मीद दिखने लगीं। हालांकि, पुरुषों को मनाना और भी कठिन था। मेरे पति और घर के आदमी गांव के मर्दों को समझाने निकले। लोग कहते- “और कोई काम नहीं बचा क्या?” कुछ ताने मारते- “आज बहू लैट्रीन बनवा रही, कल कहेगी शहर चल तो मां-बाप को छोड़ देगा क्या…?” कुछ लोग सीधे-सीधे बदतमीजी करने लगते, लेकिन मेरे पति यही कहते- “कोमल, चिंता मत करो। लोग तब-तक विरोध करते हैं जब तक सच दिखाई न दे। गांववाले हमारी बात मानने लगे, शौचालय बनते गए। इसी तरह करीब डेढ़ साल बीत गया और फिर 2019 में हमारी मेहनत रंग लाई। निठौरा गांव में 250 टॉयलेट बन चुके थे। पूरा गांव ODF (ओपन डेफिनेशन फ्री) यानी खुले में शौच मुक्त घोषित हो गया। वो दिन सिर्फ सरकार के लिए रिकॉर्ड नहीं था। वो दिन मेरे लिए गांव की औरतों की आजादी और सम्मान की शुरुआत था। वो साल बहुत यादगार है। एक दिन पता चला नॉर्वे की प्रधानमंत्री एर्ना सोलबर्ग हमारे निठौरा गांव आ रही हैं। उन्होंने मुझे मिलने के लिए बुलाया। मैंने सोचा शायद मजाक होगा, लेकिन ये सच था। फिर वो दिन आया। पूरे गांव में पुलिसवालों और मीडियावालों की हलचल थी। दोपहर में मैडम आईं। मैं उनसे मिली। उन्होंने मेरे हाथ थामकर कुछ कहा। मुझे तो कुछ समझ नहीं आया। फिर साथ वाली एक मैडम ने समझाया कि वे कह रही थीं, हमने कमाल का काम किया है। उस समय मेरी आंखों में आंसू भर आए। गांव आकर एक विदेशी ने मेरा संघर्ष देखा, समझा, सम्मान दिया। ये बहुत बड़ी बात थी। ये मेरा नहीं गांव की हर उस औरत का सम्मान था जिसने खुलकर नहीं कहा लेकिन दिल से दुआ करती रही। अब गांव के हर घर में टॉयलेट है, लेकिन मेरी जिंदगी की लड़ाई यहां खत्म नहीं होती। आज मैं गांव की लड़कियों को मासिक धर्म के समय रखी जाने वाली साफ-सफाई के बारे में जानकारी देती हूं। उन्हें सैनिटरी पैड देती हूं। मैं हर दिन महसूस करती हूं कि अगर एक महिला हिम्मत से खड़ी हो जाए, तो पूरा गांव बदल सकता है। टॉयलेट ने मुझे जिंदगी के उस मोड़ पे लाकर खड़ा कर दिया था, जहां से मेरी शादी और इज्जत दोनों दांव पर लगी थी, लेकिन मेरे एक फैसले से ये दोनों बच गए। *** स्टोरी एडिट- कृष्ण गोपाल ग्राफिक्स- सौरभ कुमार *** कहानी को रोचक बनाने के लिए क्रिएटिव लिबर्टी ली गई है।
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