काशी हिंदू विश्वविद्यालय के जंतु विज्ञान विभाग द्वारा आयोजित विशेष व्याख्यान श्रृंखला के अंतर्गत आज प्रसिद्ध जेनेटिक विशेषज्ञ “विज्ञानश्री” डॉ. कुमारस्वामी थंगराज ने भारतीय उपमहाद्वीप की जीनोमिक इतिहास पर चर्चा करते हुए अंडमान की ओंगे जनजाति के प्राचीन इतिहास को विशेष रूप से रेखांकित किया। सीएसआईआर-सेन्टर फॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी हैदराबाद के भटनागर फेलो डॉ. थंगराज ने बताया कि ओंगे जनजाति के वर्तमान में मात्र 135 सदस्य ही बचे हैं, जो उनकी सांस्कृतिक और जैविक अस्तित्व के लिए गंभीर चुनौती पेश कर रहे हैं। एसपीआरसी हॉल में दोपहर १२ बजे से शुरू हुए इस लेक्चर में डॉ. थंगराज ने डीएनए विश्लेषण के आधार पर खुलासा किया कि ओंगे समुदाय के पूर्वज अफ्रीका से लगभग 65 हज़ार वर्ष पूर्व दक्षिणी मार्ग (सदर्न रूट) के जरिए भारतीय उपमहाद्वीप पहुंचे थे। उन्होंने स्पष्ट किया कि यह प्रवास मानव इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है, जब होमो सेपियंस ने अफ्रीकी महाद्वीप छोड़कर एशिया के तटीय क्षेत्रों की ओर कूच किया, जो आधुनिक गैर-अफ्रीकी आबादी का मूल स्रोत है। ओंगे जनजाति, जो अंडमान द्वीपसमूह की निग्रिटो समुदायों में से एक है, इस प्रारंभिक लहर का जीवंत प्रमाण है। डॉ. थंगराज ने व्याख्यान में जीनोमिक डेटा का सहारा लेते हुए बताया कि ओंगे लोगों का जीनोटाइप पूर्वी एशियाई और दक्षिण-पूर्व एशियाई निग्रिटो समूहों से निकटता रखता है, लेकिन उन्होंने निएंडरथल डीएनए के न्यूनतम प्रभाव को भी उजागर किया, जो अफ्रीका से सीधे प्रवास की पुष्टि करता है। उन्होंने चेतावनी दी कि औपनिवेशिक काल में सेलुलर जेल बनाने के दौरान अंग्रेजों द्वारा इनकी हत्या से लेकर वर्तमान पर्यावरणीय दबावों तक, ओंगे आबादी में भारी गिरावट आई है 1901 में 672 से घटकर आज 135 रह गई है। हाल ही में एक नवजात शिशु के जन्म से यह संख्या 136 तक पहुंची है, लेकिन बाहरी संपर्क, बीमारियां और वनों की कटाई जैसे खतरे उन्हें विलुप्ति के कगार पर ला खड़े कर चुके हैं। डॉ. थंगराज ने रूपकुंड झील के डीएनए विश्लेषण को विस्तार से समझाया, जिसे “कंकाल झील” या “मिस्ट्री लेक” के नाम से भी जाना जाता है। उत्तराखंड के चमोली जिले में 5,020 मीटर की ऊँचाई पर स्थित यह छोटी हिमनद झील गर्मियों में बर्फ पिघलने पर सैकड़ों मानव कंकालों से भर जाती है, जिसने दशकों तक वैज्ञानिकों को हैरान किया हुआ था। 7-9वीं शताब्दी पर किया रिसर्च उनकी टीम के हालिया जीनोमिक अध्ययन ने इसके बारे में खुलासा किया है कि ये कंकाल एक साथ नहीं मरे, बल्कि कम-से-कम तीन अलग-अलग समूह के हैं, जो लगभग 1,000 साल के अंतराल में वहाँ पहुँचे। पहला समूह: 7वीं–9वीं शताब्दी का, दक्षिण एशियाई (भारतीय) मूल का। इनकी मृत्यु एक ही बार में हुई संभवतः भयंकर ओलावृष्टि से, क्योंकि कई खोपड़ियों पर गहरे, गोलाकार आघात के निशान मिले हैं जो केवल बड़े-बड़े बर्फ के गोले ही पैदा कर सकते हैं। दूसरा समूह: 17वीं–20वीं शताब्दी का, आश्चर्यजनक रूप से पूर्वी भूमध्यसागरीय (ग्रीक द्वीप क्रेट के आसपास) मूल का। तीसरा समूह: एकल दक्षिण-पूर्व एशियाई व्यक्ति का था। संगोष्ठी में शामिल टीम कार्यक्रम का संचालन ज्ञान लैब की शोधार्थी देबश्रुति दास और संयोजन प्रोफेसर ज्ञानेश्वर चौबे ने किया। इस अवसर पर प्रोफेसर एस सी लाखोटिया, प्रोफेसर राजीव रमन, प्रोफेसर ए के सिंह, डॉ चंदना बसु, प्रोफेसर परिमल दास, डॉ ऋचा आर्य, डॉ राघव, डॉ गीता सहित भारी संख्या में विद्यार्थी मौजूद थे।
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