भास्कर न्यूज | मधेपुरा हम आज जिस दौर में हम जी रहे हैं, उसमें संस्कृति को लेकर शोर बहुत है, लेकिन समझ बहुत कम है। इसलिए संस्कृति के बारे में बात करना जितना कठिन है, उतना ही जरूरी भी है। हम संस्कृति को लेकर गहरे भ्रम के शिकार हो गए हैं। ऐसे में जरूरी हो गया है कि हम संस्कृति की साफ समझ को चारों ओर से ढकने वाले बौद्धिक जालों की सफाई करें। यह बात समाज दार्शनिक डॉ. आलोक टंडन ने कही। वे रविवार को अपनी पुस्तक संस्कृति पर केंद्रित ऑनलाइन पुस्तक-संवाद में मुख्य वक्ता के रूप में बोल रहे थे। कार्यक्रम का आयोजन बीएनएमयू के राष्ट्रीय सेवा योजना और टीपी कॉलेज के दर्शनशास्त्र विभाग के संयुक्त तत्वावधान में किया गया। उन्होंने कहा कि आज मानव विज्ञानियों द्वारा दी गई संस्कृति की परिभाषा-एक सम्पूर्ण जीवनशैली के रूप में अधिक स्वीकृत है। यह मूल्य निरपेक्ष नहीं है। संस्कृति की सैद्धांतिक समझ को और समृद्ध करते हुए सांस्कृतिक संकट के समाधान के लिए एक आलोचनात्मक विवेक जगाने का सुझाव दिया है। उन्होंने कहा कि आज हम एक बौद्धिक असमंजस के शिकार हैं। जब तक हम साध्य मूल्य और साधन मूल्यों में अन्तर को ठीक से नहीं समझ लेते, यह विवेक जागृत नहीं होगा। हमें तय करना होगा कि हमारी प्राचीन संस्कृति में क्या रखने और क्या छोड़ने योग्य है और बाहर से आ रहे सांस्कृतिक प्रभावों में क्या अपनाने योग्य है।
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