संसद का शीतकालीन सत्र आगामी 1 दिसंबर से शुरू होकर 19 दिसंबर तक चलेगा। इस दौरान कुल 15 कार्य दिवसों में 10 विधेयक पेश करने की योजना है। हम आपको बता दें कि सरकार के एजेंडे में कई अहम प्रस्ताव शामिल हैं जैसे- परमाणु ऊर्जा विधेयक, 2025 जोकि निजी कंपनियों के लिए असैन्य परमाणु क्षेत्र को खोलने का प्रावधान करेगा। भारत उच्च शिक्षा आयोग विधेयक जोकि विश्वविद्यालयों और संस्थानों को अधिक स्वायत्त और उत्कृष्ट बनाने का मार्ग प्रशस्त करेगा। राष्ट्रीय राजमार्ग (संशोधन) विधेयक जोकि भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया को तेज़ और पारदर्शी बनाएगा। कॉरपोरेट कानून (संशोधन) विधेयक, 2025 जोकि ‘Ease of Doing Business’ को और सुगम करने के लिए कंपनी अधिनियम और एलएलपी अधिनियम में संशोधन लाएगा। प्रतिभूति बाजार संहिता (SMC) विधेयक, 2025 जोकि– सेबी अधिनियम, डिपॉजिटरी अधिनियम और प्रतिभूति अनुबंध अधिनियमों को एकीकृत कर एक समान कानून बनाएगा। मध्यस्थता और सुलह अधिनियम संशोधन जोकि कानूनी प्रक्रिया में पारदर्शिता लायेगा। इसके अलावा पहले सत्र के दो लंबित विधेयक और वर्ष का पहला अनुपूरक बजट भी विचार के लिए रखे जाएंगे। देखा जाये तो यह एजेंडा निश्चित रूप से आर्थिक और प्रशासनिक सुधारों की दिशा में एक कदम है। परंतु सवाल यह है कि क्या संसद केवल कॉरपोरेट, व्यापार और संस्थागत सुधारों तक सीमित रह जाएगी?
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संसद लोकतंत्र का हृदय है— जहाँ देश के जनजीवन के सबसे ज्वलंत मुद्दों पर बहस होनी चाहिए। परंतु दुर्भाग्य से हर सत्र में एजेंडे में वही बातें दिखती हैं— उद्योग, निवेश, अधिग्रहण, शिक्षा-संरचना। ऐसे में देश की सामाजिक आत्मा से जुड़े मुद्दे बार-बार पीछे छूट जाते हैं। आज देश जिन संकटों से जूझ रहा है, वे केवल आर्थिक नहीं हैं, बल्कि सांस्कृतिक, जनसांख्यिकीय और नैतिक संकट भी हैं। धर्मांतरण अब एक संगठित नेटवर्क का रूप ले चुका है— गरीब, पिछड़े और ग्रामीण वर्ग को लक्षित कर धर्म बदलवाने की घटनाएँ बढ़ रही हैं। लव जिहाद और ड्रग जिहाद जैसे अपराध युवाओं और विशेषकर लड़कियों को फँसाने के नए तरीके बन गए हैं। लड़कियों का गायब होना, तस्करी और जबरन विवाह के मामले राज्यों की सीमाओं से बाहर फैल चुके हैं। जनसंख्या नियंत्रण कानून पर अब तक कोई ठोस नीति नहीं बनी, जबकि यह समस्या आने वाले दशकों की स्थिरता को सीधे प्रभावित करेगी। इन सब पर राष्ट्रीय स्तर का विधायी हस्तक्षेप अनिवार्य है। लेकिन हर बार ये मुद्दे केवल चुनावी भाषणों तक सिमट जाते हैं— संसद की कार्यसूची में नहीं आते। अब समय आ गया है कि देश की संसद आर्थिक सुधारों के साथ-साथ सामाजिक सुधारों की दिशा में भी कानून बनाए। देखा जाये तो ये सब राष्ट्रीय आवश्यकता हैं, न कि वैकल्पिक एजेंडे।
बहरहाल, संसद के शीतकालीन सत्र में नए विधेयक स्वागत योग्य हैं, परंतु यदि संसद जनता के असली दर्द और सामाजिक असंतुलन के प्रश्नों पर मौन रही, तो ये विधेयक केवल विकास के आंकड़ों में जुड़ेंगे, जनहित में नहीं।
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