बहराइच नगर स्थित गुरुद्वारा श्री गुरु सिंह सभा में मंगलवार को सिखों के नौवें गुरु, गुरु तेग बहादुर जी के शहादत दिवस पर एक विशाल कीर्तन समागम का आयोजन किया गया। उन्हें ‘हिंद की चादर’ के नाम से भी जाना जाता है। इस समागम में बहराइच, मटेरा, डीहवा, निहालसिंह पुरवा, गौरा, धनौली फखरपुर और पयागपुर सहित विभिन्न स्थानों से बड़ी संख्या में संगत (श्रद्धालु) ने गुरुघर में माथा टेका और अपनी श्रद्धा अर्पित की। गुरुद्वारा अध्यक्ष मनदीप वालिया ने गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान के बारे में जानकारी दी। उन्होंने बताया कि 24 नवंबर, 1675 को दिल्ली के चांदनी चौक में काजी के आदेश पर जल्लाद जलालुद्दीन ने तलवार से गुरु तेग बहादुर जी का शीश धड़ से अलग कर दिया था। गुरु जी ने दूसरों के धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया था। इसी कारण गुरु तेग बहादुर जी को ‘हिंद की चादर’ (भारत की ढाल) कहा जाता है। उनके धड़ का अंतिम संस्कार भाई लखी शाह वंजारा ने अपने घर को जलाकर किया था। यह स्थान अब गुरुद्वारा रकाब गंज साहिब के नाम से जाना जाता है। गुरु जी के शीश को भाई जैता (जो बाद में भाई जीवन सिंह कहलाए) उनके पुत्र गोबिंद राय के पास आनंदपुर साहिब ले गए। वहां उनका सम्मानपूर्वक अंतिम संस्कार किया गया। यह स्थान आज गुरुद्वारा शीश गंज साहिब के रूप में प्रसिद्ध है। गुरु तेग बहादुर जी का बलिदान भारतीय इतिहास में एक अद्वितीय घटना मानी जाती है। यह बलिदान केवल सिख धर्म के लिए ही नहीं, बल्कि सनातन धर्म (विशेषकर कश्मीरी पंडितों) की रक्षा के लिए भी था। यह भारत की धर्मनिरपेक्ष और विविध संस्कृति को बचाने के लिए एक सिख गुरु द्वारा दिया गया सर्वोच्च बलिदान था। उनका बलिदान यह दर्शाता है कि सच्चा धर्म केवल अपने अनुयायियों तक सीमित नहीं होता, बल्कि सभी के धर्म की स्वतंत्रता की रक्षा करता है। गुरु जी की शहादत ने अत्याचारी मुगल शासन के विरुद्ध खड़े होने का साहस और प्रेरणा प्रदान की, जिससे पंजाब और पूरे उत्तर भारत में प्रतिरोध की भावना मजबूत हुई। गुरु तेग बहादुर जी की शहादत ने उनके पुत्र, गुरु गोबिंद सिंह जी, को खालसा पंथ की स्थापना (1699) और सिखों को एक जुझारू योद्धा समुदाय में संगठित करने के लिए प्रेरित किया।गुरु गोबिंद सिंह जी ने ही कहा था: “तेग बहादुर सी क्रिया करी, न किनहूं आन करी।” (तेग बहादुर जैसा कार्य किसी और ने नहीं किया)। आधुनिक संदर्भ में, गुरु तेग बहादुर जी का बलिदान मानवाधिकारों की रक्षा और विचार की स्वतंत्रता के लिए दिया गया पहला प्रमुख बलिदान माना जा सकता है। प्रत्येक वर्ष 24 नवंबर को गुरु तेग बहादुर जी का शहादत दिवस पूरे विश्व में, विशेष रूप से सिखों द्वारा, श्रद्धा और सम्मान के साथ मनाया जाता है। यह दिन उनके महान त्याग, सिद्धांतों के प्रति उनकी अडिग निष्ठा और धार्मिक स्वतंत्रता के लिए उनके साहसी रुख को याद करने का अवसर है। गुरु तेग बहादुर जी का जीवन और उनकी शहादत हमें यह सिखाती है कि सत्य, धर्म और मानवता के सिद्धांतों के लिए बड़े से बड़ा बलिदान भी छोटा है। ‘हिन्द की चादर’ के रूप में उनका स्मरण भारतीय सभ्यता के एक ऐसे स्तंभ के रूप में किया जाता रहेगा, जिसने धार्मिक सहिष्णुता और स्वतंत्रता के आदर्शों को अपने रक्त से सींचा। उनकी बाणी और शिक्षाएं आज भी लाखों लोगों को निडरता और धार्मिक सद्भाव का मार्ग दिखाती हैं। गुरुद्वारे के हेडग्रंथी ज्ञानी विक्रम सिंह जी ने सरबत के भले की अरदास की। उसके उपरांत गुरु का अटूट लंगर चला। इस अवसर पर महामंत्री भूपेंद्र सिंह जगनंदन सिंह, जगजीत सिंह, देवेंद्र सिंह बेदी, जगनंदन सिंह, मास्टर सरजीत सिंह,कुलबीर सिंह, दशमिंदर सिंह, डॉ बलमीत कौर,रोशन सिंह वणजारा, बलजीत कौर, राजेंद्र कौर चरनजीत कौर, गुरजीत कौर समेत सैकड़ों श्रद्धालु उपस्थित रहे।
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